(फ़ोटो - http://kalmatia-sangam.blogspot.in/ से साभार ) |
(पिछली क़िस्त से आगे)
आसन्न
रात को आता देख परमौत और गिरधारी इंतज़ार में थे कि नब्बू डीयर कब उनसे घर के भीतर
चलने को कहेगा. सुबह से जूतों में बंद उनके पैर हल्का दर्द करने लग गए थे. चाय पी
जा चुकी थी और उनसे थोड़ी दूरी बनाकर बैठा बचेसिंह अब भी पथरौटों के बारीक निरीक्षण
में व्यस्त था.
वार्तालाप
में संजीदगी वापस आने पर परमौत और गिरधारी द्वारा अपनी और अपने पिता की तबीयत के
बारे में पूछे गए सवालों का नब्बू डीयर ने बेपरवाही से उत्तर दिया और दोस्तों के
मन के असमंजस को भांपते हुए किंचित सकुचाते हुए कहा – “देखो यार गिरधर गुरु, बाबू हो रहे हुए भयंकरी बीमार मल्लब ... टट्टी-पिसाब सब मल्लब अन्दर ही
करने वाले हुए ... अब वहां की चुरैन-हगैन में तुम्हारे बस की ठैरी नहीं ... तो ऐसा
है कि रात को तेरे और परमौती वस्ताज के रहने का बचदा के यहाँ कर दिया है ... मल्लब
बचदा के भतीजे का मकान खाली जैसा ही हुआ ... बस यहीं परी हुआ चार कदम आगे ... ठीक
हुआ?”
नब्बू
डीयर की समस्या वाजिब और जायज थी जिसे दोनों दोस्तों ने तुरंत समझ लिया. परमौत ने
अपनी बांह को नब्बू की गर्दन के गिर्द लपेटते हुए उसे आँख मारी – “वैसे तो बागेश्वर से बोतल लाये
हुए ठैरे तुम्हारे लिए नब्बू गुरु ... लेकिन अब जो है बचदा के संग मौज की जाएगी
... रात भर की बात हुई बस ... और तुम हर हाल में कल सुबे हल्द्वानी चलने की तैयारी
कर लेना बस ...”
नब्बू
की आवाज़ का संकोच कृतज्ञतापूर्ण मोहब्बत में तब्दील हो गया. वह धीमी आवाज़ में बोला
- "कल की बात कल देखी जाएगी यार परमौत बाबू ... अभी एक काम करो. तुम लोग बचदा
के यहाँ को जाओ. और खाना ईजा अन्दर बना रही है तुम लोगों के लिए. बचदा बाद में ले
जाएगा यहाँ आ के ..."
परमौत
ने नब्बू डीयर के बाबू को एक बार देखने और उसकी माँ से विदा लेने की बात की तो
नब्बू मुस्कराता हुआ बोला - "वो सब कल करना यार ... अभी तुम जाओ. बचदा के
यहाँ बच्चे-कच्चे हुए बिचारे ... रस्ता देख रहे होंगे बाबू का ... हंहो बचदा! ...
ले जातो हो भलै इन फंटूसों को अब ..."
नब्बू
की बात का मान रखा गया और गुडनाईट कहकर वे बचदा के पीछे-पीछे लग लिए. बचेसिंह का
घर वाकई बहुत नज़दीक था और नब्बू डीयर के घर से थोड़ा ही अधिक संपन्न और करीनेदार
दीखता था. पटांगण पार कर उन्हें ऊपर की मंजिल पर मौजूद बाहरी कमरे में ले जाया गया
जहाँ लालटेन की रोशनी में बचेसिंह की दो बच्चियां कापी-किताबों पर झुकी हुई थीं.
अन्दर रसोई के कमरे से आ रही दो अपेक्षाकृत बड़ी बच्चियों की आवाजें अचानक भीतर
घुसे बचेसिंह के "ज़रा चहा रखो तो गुड़िया, डौली रे ..." की पुकार लगते ही
शांत हो गईं.
पढ़ाई
कर रही बच्चियों ने परमौत और गिरधारी लम्बू को देखा तो वे शर्मा कर भीतर रसोई में
चली गईं. उनकी कापी-किताबों को एक तरफ सरका कर मेहमानों के बैठने के लिए जगह बनाई
गयी. कम ऊंचाई वाले रसोई के दरवाज़े से अपना सर झुका कर बचाता हुआ बचेसिंह भी भीतर
चला गया. वह कुछ पलों के बाद कमरे में आया तो उसकी टांगों से सटकर खड़ीं चारों
सकुचाई बच्चियां ज़मीन से निगाह चिपकाए परिचय कराने जाने के इंतज़ार में उपस्थित
थीं. दस से चौदह साल की चारों बच्चियों के चेहरों पर तकरीबन एक जैसी उत्सुकता और
अनिश्चितता के भाव थे. परिचय कराये जाने के तुरनत बाद वे रसोई की जानी-पहचानी शरण
में वापस चली गईं. बचेसिंह ने चारों की स्कूली शिक्षा वगैरह के बारे में इधर-उधर
के बातें कीं. जब सबसे छोटी बच्ची चाय लेकर आई तो बचेसिंह ने उसे निर्देश दिया -
"ज़रा देख के आ तो सरू, एसडीएम चचा आ गए कि नहीं ... सामान रख आते हैं सैप
लोगों का."
सरू
के बाहर भागते ही बचेसिंह ने बताया कि वह उस गृहस्वामी का पता लगाने गयी है जिसके
यहाँ उन्हें रात बितानी है. एसडीएम का नाम सुनकर परमौत और गिरधारी लम्बू के मन में
बचेसिंह के लिए अचानक थोड़ा आदर उत्पन्न होने लगा. ऐसे निहायत पराजित और
नैराश्यपूर्ण मनुष्य का कोई संबंधी ऐसे ऊंचे ओहदे वाला बड़ा सरकारी अफसर हो सकता है
- दोनों की कल्पनाओं से परे जैसी कोई बात थी. दोनों चुपचाप चाय पीते रहे.
"आ
गए बाबू ... यहीं को आ रहे है बीबन कका ..." बाहर से ही इन सूचनाओं को जारी
करती हांफती हुई सरू भागती ही वापस आई और रसोई के पूरा भीतर जाने की जगह दरवाज़े की
ओट से शहरी मेहमानों को ताकने लगी. परमौत उसकी तरफ देख कर मुस्कराया तो वह झेंपती
हुई चट से भीतर अदृश्य हो गयी.
बचेसिंह
उठकर सीढ़ी पर खड़ा हो गया ताकि बीबन अर्थात विपिन नामक अपने अफसर संबंधी का स्वागत
कर सके. पालथी मार कर बैठे हुए परमौत और गिरधारी ने अपनी मुद्रा को भरसक
प्रेजेंटेबल बनाने की कोशिश की ताकि आगंतुक अफसर के सम्मुख थोड़े बहुत सभ्य दिखाई
दें.
आगंतुक
अर्थात बीबन अर्थात एसडीएम तनिक मुटाई हुई काठी वाला पैंतालीसेक साल का एक नाटे कद
का आदमी था जिसे कद में हुई एक-दो इंच की महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरी के कारण बौना नहीं
कहा जा सकता था. परमौत और नब्बू उसके नाटेपन से अधिक प्रभावित नहीं हुए और अपनी
जगहों पर खड़े होकर उन्होंने उसके प्रति यथायोग्य सम्मान जताया. आगंतुक बैठा नहीं बल्कि
बचेसिंह के निर्देशों का पालन करता हुआ मेहमानों के बैग कंधे पर लादने लगा.
"अरे
ये क्या कर रहे हैं भाईसाब ... छोड़िये छोड़िये ...” गिरधारी आगे बढ़ने को हुआ तो
बचेसिंह ने उसे रोक लिया - "अरे ले जाने दो सैप ... घर का लौंडा हुआ ...
दिनमान भर खाली बैठने वाला हुआ. थोड़ा काम करके कौन सा घिस जाएगा ... अरे आप लोग
बैठो तो सही दो मिनट को ..."
दोनों
एयरबैग लेकर बीबन एसडीएम के बचेसिंह के साथ बाहर चले जाने पर दोनों मित्रों ने एक
दूसरे को माजरा समझ में न आने वाली निगाह से देखा लेकिन कुछ भी बोलना उस समय
बुद्धिमानी नहीं मानी जाती. जिस अधिकार से बचेसिंह ज़ाहिर तौर पर अपने नज़दीकी संबंधी
लग रहे नाटे से बात कर रहा था उसे देखते हुए कहा जा सकता था कि बीबन अपार विनम्रता
से भरपूर बड़ों की इज़्ज़त करने वाला एक संस्कारी मनुष्य होगा.
परमौत
और गिरधारी के मन में चल रही ऊहापोह को अगले ही मिनट में शांत करते हुए वापस लौट
आये बचेसिंह ने उन्हें बीबन एसडीएम का पूरा परिचय मुहैय्या करा दिया. कोई
बारह-पंद्रह साल पहले बागेश्वर के डिग्री कॉलेज से जैसे तैसे पांच साल लगाकर बीए
करने के बाद अपने घर का इकलौता चिराग बीबन बड़ी नौकरी की तैयारी करने की नीयत से
गाँव वापस आ गया था. उस वक्त तक उसके माँ-बाप दोनों ज़िंदा थे. छः महीने के अंतराल
में दोनों के बीमारी से मर जाने तक अर्थात अगले दस-बारह साल तक उसने लगातार बैंक,
एलआईसी वगैरह के इम्तहान दिए और निष्ठापूर्वक फेल होता रहा. माँ बाप की बरसी वाले
साल उसने इन छोटी-मोटी नौकरियों की चिंता करना छोड़ा और आख़िरी छलांग मारने की नीयत
से पीसीएस का फॉर्म मंगवाया. गाँव में हफ्ते में एक दफ़ा डाक लाने वाले हरकारे ने फॉर्म
की डिलीवरी कारने के साथ-साथ अफवाह फैला दी कि तल्ला झिंगेड़ी का बीबन एसडीएम बन
गया है. बीबन ने फॉर्म तो नहीं भरा अलबत्ता समूचे इलाके में लोगों ने उसे एसडीएम
साब कहना शुरू कर दिया.
बीबन
की करुणाभरी कथा एक सीमा तक मनोरंजक थी और परमौत और गिरधारी अपने मेज़बान के
सान्निध्य में पहुँचने को बेताब हो उठे. उनकी इच्छा ताड़कर बचेसिंह ने चलने का
उपक्रम करना शुरू किया और बेटियों को सूचित किया कि वह बाहर खाकर आएगा और वे सो
जाएं वगैरह.
परमौत
नोटिस कर रहा था कि पिछले आधे घंटे से बचेसिंह की देहभाषा में एक अबूझ किस्म की चापलूसीभरी
तत्परता आ गयी थी और वह पहले के मुकाबले सामान्य से अधिक क्रियाशील होता जा रहा
था. उसे अपने बैग में धरी बागेश्वर से उठाई गयी बोतल की याद आई तो उसे माजरा कुछ
कुछ समझ में आने लगा. बीबन एसडीएम ने दुमंजिले पर अवस्थित अपने एक कमरे को
मेहमानों के रहने के लिए गद्दे-रज़ाई वगैरह लगाकर उनका सामान करीने से सिरहानों पर
सजा दिया गया था.
बोतल
की उपस्थिति में की जाने वाली बैठक के लिए 'बैठना' शब्द का इस्तेमाल सार्वभौमिक
स्तर पर होने लगा है सो इस सन्दर्भ में बैठने की व्यवस्था एसडीएम साहब के कमरे में
की गयी थी. टुटही मेज़ पर धरे गए पानी के जग और कांच के चार धुंधुआए गिलासों की
उपस्थिति ज़ाहिर कर रही थी कि बचेसिंह द्वारा बीबन को बोतल की उपस्थिति के बारे में
पर्याप्त सूचित कर दिया गया था. बीबन एसडीएम ने अपने हाथों में कम से कम दो किलो
की एक पहाड़ी ककड़ी थाम रखी थी जिसने स्नैक्स का काम करना था.
परस्पर
परिचय का कार्यक्रम संपन्न हुआ और बहरहाल मेहमानों के भीतर घुसने के दस मिनट के
भीतर पार्टी शुरू हो गयी. बीबन ने एक बड़ी सी दरांती की मदद से थाली में ककड़ी काटना
शुरू कर दिया. गिरधारी गिलास ढाल रहा था और बचेसिंह की आँखों के रास्ते उसकी जीभ
लपलप करने लगी थी. पूरे माहौल को असम्पृक्त भाव से देखता परमौत लगातार नब्बू डीयर
को हल्द्वानी ले जाने के तरीकों के बारे में विचार कर रहा था. लकड़ी के गिंडों जैसे
बड़े-बड़े टुकड़ों में काट कर ककड़ी की हत्या जैसी कर चुकने के बाद बीबन ने अपने
पाजामे की जेब से कागज़ की पुड़िया निकाली जिसमें चटपटा नमक था. गिलास बाकायदा हवा
में उठाए गए और उन्हें टकरा कर
बिस्मिल्लाह किया गया.
नैसर्गिक
था कि बात नब्बू डीयर, उसकी बीमारी और उसके परिवार की खस्ताहाली से ही शुरू हुई.
बीबन शांत बैठा नमक में ककड़ी एक टुकड़े से रेखाएं जैसी खेंचता हुआ धीरे-धीरे अपना
गिलास निबटाता जा रहा था. उस समय तक अपेक्षाकृत शांत रहा बचेसिंह तेज़ी से खुल रहा
था और परमौत और गिरधारी को सैप कहना छोड़, उन दोनों के बाप जैसा लगने के बावजूद उन्हें
परमौद्दा और गिरधरदा कह कर संबोधित करने लगा था.
नब्बूपुराण
को अचानक ब्रेक लगाते हुए बीबन ने पाल्टी शुरू होने के बाद का अपना पहला वाक्य
बोलते हुए बचेसिंह को मुखातिब होकर पूछा - "ये सूगर-हूगर का इलाज घर में हो
जाने वाला हुआ, दाज्यू? मल्लब डाक्टर के जाना जरूड़ी जो क्या होता होगा. पैसे लगाने
वाले हुए साले में नफे के ..."
"हैं?"
बचेसिंह ने प्रतिप्रश्न किया. बीबन चुप हो गया.
शुगर
की बीमारी का ज़िक्र अब तक के वार्तालाप में नहीं हुआ था - वह न नब्बू डीयर को थी,
न नब्बू के पिताजी को. गिरधारी को लगा बीबन को होगी - "अरे आपको सूगर ठैरी,
दाज्यू? एकाध पैक से कुच्छ जो क्या होने वाला हुआ. बाकी घर में तो ऐसा हुआ परहेज से
रहना बताने वाले हुए डाक्टर लोग. दवा खानी पड़नी वाली हुई सुबे-साम ..."
"ना
ना मुझको जो क्या है सूगर."
"फिर?"
बचेसिंह ने बीबन को घूरा.
"फिर
मल्लब? ऐसे ही पूछ रहा हुआ मैं ..." बीबन ने नज़रें नीची कीं और अगले आधे घंटे
तक कुछ नहीं बोला. इस दौरान उसने एक गिलास और निबटाया और उसी ककड़ी के टुकड़े और नमक
की मदद से से पिकासो की गुएर्निका की टक्कर की एक कलाकृति थाली में रच दी. बचेसिंह
परमौत और गिरधारी को खड़िया के धंधे की जटिल बारीकियों और उससे पैदा किये जा सकने
वाले असीम रोकड़े की बाबत लेक्चर पिला रहा था. गिरधारी की दिली इच्छा थी कि इस धंधे
किसी भी तरह परमौत की दिलचस्पी पैदा हो जाए लेकिन बात बन नहीं रही थी.
"अगर
इंद्रा गांधी की जगे भुट्टो भारत का प्रेसीडेन होता तो नेपाल और रसिया हमारे कब्जे
में होते. सोयाबीन भी सस्ती होती. बागेश्वर में सोयाबीन का क्या रेट चल रहा होगा
दाज्यू?" बीबन ने अपना दूसरा सवाल दागा.
"हैं?"
बचेसिंह ने फिर से प्रतिप्रश्न किया. बीबन फिर चुप हो गया.
परमौत
ने पहली बार बीबन को ध्यान से देखा. दो पैग पी चुका बीबन निगाहें नीची किये ककड़ी
के उस टुकड़े से अब मेज़ पर रेखाएं बना रहा था. परमौत ने मुख्य वार्तालाप में उसे शामिल
करने की नीयत से कहा - "हल्द्वानी में तो ऐसे ही दो-सवा दो का रेट चल रहा था
परसों तक. बागेश्वर का रेट बचदा को जादे मालूम होगा. क्यों दाज्यू!"
"अरे
रहने दो हो परमौद्दा" बचेसिंह थोड़ा सा उखड़ने लगा था - "अब साली इन्द्रा
गांधी होती या वो क्या नाम कै रा था ये ... मल्लब भुट्टो होता. रूस-नेपाल की
सोयाबीन से हमारा क्या मल्लब हुआ. वैसे बीबनौ! ..." उसने अपने अनुज से पूछा -
"कितनी सोयाबीन चाहिए तुझको जो रेट पूछ रहा है. हैं?"
"ना
ना मुजको जो क्या चइये हुई सोयाबीन. मैं तो वैसे भी नहीं खाने वाला हुआ. गैस्टिक
करती है बहुत."
"फिर?"
"फिर
मल्लब? ऐसे ही पूछ रहा हुआ मैं ..." बीबन ने पुनः नज़रें नीची कर लीं और अपने
खाली गिलास को ताकने लगा.
बचेसिंह
ने घड़ी देखी तो उसे कुछ याद आया.
"अरे
खाना बना दिया होगा यार काखी ने ... जा तो बीबनौ! जा खाना ले आ तो." बीबन से
निर्विकार भाव से पाल्टी को देखा और उठ खड़ा हुआ. वह बाहर निकलने ही वाला था कि
बचेसिंह ने कहा - "टॉर्च ले जा टॉर्च! रस्ते में सांप-कीड़े होने वाले हुए
भुलू!"
बीबन
वापस कमरे में आया और एक तरह को रखी अपनी चारपाई के सिरहाने के नीचे से टॉर्च
निकालकर बोला - "ये एक म्हैने में कितना कम लेता हुआ टाटा-बिल्डा?"
"हैं?"
बचेसिंह
का प्रतिप्रश्न सुनकर बीबन बाहर जाता हुआ बोला - "ऐसेई ... मल्लब पूछ रहा हूँ
..."
बीबन
एसडीएम के बाहर जाते ही थोड़ा संकोच करते हुए परमौत ने पूछा - "यार बचदा ये अपने
एसडीएम सैप अजीब टाइप से सवाल क्यों पूछ रहे हुए बेर-बेर? मल्लब चक्कर क्या हुआ ये?"
"अरे
डिमाग खराब हो गया है बिचारे का पांच-छै महीने से परमौद्दा. नौकरी-फौकरी हुई नहीं.
ग्रेचुवट अलग कर आया हुआ बिचारा. नहीं भी हो गए होंगे बीस साल हो गए होंगे.
पड़े-लिखे आदमी की पूछ जो क्या हुई साली यहाँ झिंगेड़ी-फिंगेड़ी में. अब इतनी किताब-हिताब
पड़ के कोई फड़वे-बेलचे का काम जो क्या करेगा मल्लब ... ऐसेई उलूलजुलूल चल रहा हुआ
बिचारे का. मैं तो बुरा भी नईं मानने वाला हुआ साले का. वैसे भी बहोत तंग जो क्या
करने वाला हुआ कोई. जादे बोलने वाला हुआ तो एक नड़क मार दो चुप हो जाने वाला ठैरा."
अगले
दस-पंद्रह मिनट तक बीबन के बहाने बीबन, शिक्षा व्यवस्था, देश के संविधान, नागरिकों
के अधिकारों और झिंगेड़ी ग्राम के सरपंच के व्यक्तिगत जीवन पर अधिवेशन चला जिसकी
परिणति बीबन द्वारा - "पिलीच ओपन डोर बचिया बरदर. दी फूड इज ए ब्रिंग बाई दी
बीपन एट दी होम ऑफ़ ए नबुवा ..." की लड़खड़-नशीली पुकार के लगाए जाने से हुई.
"यौ
... अब आज ज़रा देर इसकी अंगरेजी भी सुन लो परमौद्दा. पड़ा-लिखा हुआ. आज का जो हुआ
बिचारा ... बीस साल पैले का ग्रेचुवट ठैरा ..." बचेसिंह बीबन की मदद करने
बाहर गया तो गिरधारी ने परमौत की बांह में हल्की सी चिकोटी काटते हुए कहा -
"मज़ा आ गया यार परमौद्दा वस्ताज!"
नब्बू
के घर से भरसक आलीशान भोजन बना कर भेजा गया था. भोजन के अतिरिक्त एक कटोरे में घी
और कागज़ की थैली में मेहमानों की लाई मिठाई की काफी मात्रा अलग से भेजी गयी थी. बचेसिंह
द्वारा थालियों में भोजन परोसा गया. बीबन खड़े-खड़े थालियों पर टॉर्च चमका रहा था.
परमौत और गिरधारी लम्बू बीबन के अंग्रेज़ी डायलॉगों का इंतज़ार कर रहे थे.
हरुवा
भन्चक ने पहले ही उन्हें इस काम की अच्छी प्रैक्टिस करवा रखी थी.
(जारी)
3 comments:
अहा रे, दद्दा!!
गजब
गचेप, आज का पात्र ज्यादा जानदार लगता है
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