(फोटो: https://travelshoebum.com से साभार) |
(पिछली क़िस्त से आगे)
नब्बू डीयर ने अपने सखाओं के साथ हल्द्वानी
चलने का फैसला करने के लिए एक दिन की मोहलत माँगी जिसे थोड़े ना-नुकुर के बाद स्वीकार
कर लिया गया. दरअसल पिछले तीन दिनों से जिस तरह का जीवन गिरधारी और परमौत जी रहे
थे, खुद उनकी अपनी देहें भी उनसे एक दिन की मोहलत मांग रही थीं.
पिछली रात के डिनर और उस के बाद की घटनाओं की
अप्रत्याशितता ने उन की नींद की ऐसी-तैसी कर दी थी. खड़ा-खड़ा बीबन पहले तो खाना खा
रहे मेहमानों की थालियों पर टॉर्च चमकाता रहा. बचेसिंह द्वारा एक बार झिड़के जाने
पर उसने टॉर्च बुझा दी और बाहर चला गया. परमौत उससे रुकने का आग्रह करना चाहता था
लेकिन बचेसिंह ने इशारे से कहा कि उसे चढ़ गयी है और उसका घटनास्थल से बाहर चला
जाना ही श्रेयस्कर है. खाना खाते हुए बचेसिंह
ने हल्द्वानी से आए मेहमानों को झिंगेड़ी में प्रचलित एकाधिक दन्तकथाएं सुनाईं जिनका
विषयसूत्र एक ही था - बीबन को दारू नहीं पचती. इस सीरीज की चौथी और महा-अझेल कथा
का वाचन हो रहा था जब बाहर से बीबन की क्रमशः ऊंची होती आवाज़ आनी शुरू हुई -
"साइमन कमीसन गो बैक! इन्द्रा गांदी जिंदाबाद! जन्ता पाल्टी जिन्दाबाद!
मात्मा गांदी कम बैक! ..."
खाना छोड़ तीनों खिड़की से बाहर देखने लगे.
पटांगण के पटालों पर चांदनी दमक रही थी और जॉन साइमन से लेकर इन्द्रा गांधी तक की जागर
लगाए बीबन एसडीएम मुल्क के पचास साल के इतिहास को लेफ़्ट राईट परेड करवा रहा था. झिंगेड़ी
की फिज़ा में क्रान्ति तैराकी कर रही थी. गिरधारी और परमौत को यह दृश्य बहुत लुभावना लगा. बचेसिंह वापस खाने की थाली पर लौट गया था. अचानक वह "बोतल भी उठा ले गया रे साले
बीबनौ ..." कहता हुआ दरवाज़े से बाहर लपका. जब तक परमौत और गिरधारी चौंक कर
पलटते, बचेसिंह पटांगण तक पहुँच गया था और बीबन की खोपड़ी पर एक रैपट खींच चुका था.
"थम!" कहकर बीबन ने अपनी परेड को विराम
दिया. बचेसिंह द्वारा किये गए कृत्य से वह ज़रा भी विचलित नहीं हुआ लगता था. इसके
पहले कि बचेसिंह अगला रैपट लगाता, वह उछलकर पटांगण की दीवार पर चढ़ गया और मुठ्ठी
का माइक बनाकर भाषण देने लगा - "फ्रेन्ड्स, रोमन्स एंड कंट्रीम्यन, दिस इज दी
डे ऑफ दी रिपब्लिक ऑफ ए इन्ड्या एंड लेप्टन जन्नल भी.पी. सिंग फ्रॉम दी आलइन्ड्या
रेडियो इज वेल्कमिंग यू इन झिंगेड़ी बेकौज साइमन इज गोइंग टू बागेस्वर एज अ सरभेंट
ऑफ दी इन्द्रा गांदी ... लेफ्फाईट लेफ्फाईट ल्याफ्ट ..." संक्षिप्त
प्रस्तावना के बाद अब वह दीवार पर ही परेड करने लगा.
बचेसिंह का उठा हुआ हाथ अब नीचे आ गया था और
वह भी परमौत और गिरधारी की तरह बीबन की पर्फौरमेन्स के मज़े लेने के मूड में था. एकाध
मिनट तक बीबन ने परेड की और बचेसिंह की तरफ से कोई कार्रवाई न होती देख सम्हाल कर
नीचे उतर गया. नीचे उतरते ही उसने सावधान की मुद्रा अख्तियार कर ली और ज़मीन से
निगाह चिपका कर बोला - "नाउ देयर इज ए टाइम ऑफ़ दी सैलेंस एज ऑफ टू मिनट फॉर
दी ड्यथ ऑफ मात्मा गांदी हू इज फ़ादर ऑफ नेशन."
बीबन ने दो मिनट का तो नहीं आधे मिनट का मौन
रखकर बाकायदा राष्ट्रपिता के लिए शोक प्रदर्शित किया और बचेसिंह के एक ही बार
"उप्पर चल के एक रोटी खा लेता यार बीबनौ ..." कहते ही भीगी बकरी की तरह
वापस कमरे में आ गया.
परमौत और गिरधारी ने जीवन में ऐसे एक से एक सांस्कृतिक
कार्यक्रम देख रखे थे और वे इन्हीं दुर्लभ क्षणों को हर महफ़िल का कुल हासिल मानते
थे. इन कार्यक्रमों की ख़ूबी यह होती थी कि एक बार शुरू हो जाने के बाद वे कब और
किस मरहले पर तमाम होंगे - इसका जवाब दुनिया का सबसे बड़ा नजूमी भी नहीं दे सकता
था. ये कार्यक्रम भविष्य की महफ़िलों के मनोरंजन के लिए खाद का काम भी करते थे
जिनमें इन कार्यक्रमों की एक-एक तफसील का कई-कई बात दोहराव किया जाना होता था. बीबन
के एकल कार्यक्रम के अगले चरण के दीदार की हसरत से सराबोर उनकी निगाहें चौकन्नी हो
गईं. बैठने से पहले, बाहर से लाई गयी खाली बोतल को किसी शील्ड की तरह प्रदर्शित
करते बचेसिंह ने सूजा हुआ मुंह बनाकर दोनों को इत्तला देते हुए शर्मिंदगी भरा
अफ़सोस ज़ाहिर किया कि बीबन ने बोतल में बचा हुआ पव्वे से अधिक माल अकेले निबटा दिया.
"कुत्तूं को घी जो क्या पचने वाला हुआ परमौद्दा
..." जैसा कोई वक्तव्य देकर बचेसिंह अपराधी को कुछ और लताड़ लगाने की नीयत
रखता था लेकिन बीबन भीतर आते ही अपने बिस्तर पर कटे पेड़ जैसा गिरा और सो गया. परमौत
और गिरधारी को दो बातों का अफ़सोस हुआ - बोतल निबट गयी थी और बीबन सो गया था.
बरतन वगैरह उठाकर बाहर रखने और मेजबानी के अन्य
कार्यों को त्वरित गति से समाप्त कर बचेसिंह ने पुनः क्षमायाचना की - "सारी
दावत बिगाड़ के रख दी साले ने परमौद्दा ... माफ करना हो सैप ... पी-ही के ऐसेई करने
वाला हुआ बीबन हर बार ..." कुत्तों को घी न पचने वाले मुहावरे को दोहराया
गया. जाने से पहले बचेसिंह ने मेहमानों को उनके बिस्तर तक छोड़ा और अगली सुबह चाय-नाश्ते
पर अपने घर मिलने की बात कही.
परमौत और गिरधारी ने थोड़ी देर बीबन की साइमन-परेड
की बाबत हल्का-फुल्का वार्तालाप किया और थकान और नशे के मिश्रण से किसी पल दोनों
की आँख लग गयी.
"व्हेन! व्हेन! ..." गिरधारी के
सपने में कोई अंग्रेज़ी में पूछ रहा था.
"व्हाट! व्हाट! ..." गिरधारी की अचानक
आँख खुली तो उसने पाया कि आवाज़ बगल के कमरे से आ रही थी. उसे यह समझने में थोड़ा वक़्त लगा कि परमौत उसकी बगल में सोया
हुआ है और वे बीबन के घर पर हैं. "व्हेन! व्हेन! ..." के दोबारा होने पर
गिरधारी को लगा वह नींद में बड़बड़ा रहा होगा. उसने करवट बदल कर सोने की कोशिश की.
खिड़की के खुले हुए पल्ले से भीतर आ रही चाँदनी के उजाले में उसने देखा कि परमौत का
मुंह खुला हुआ था और वह हल्के खर्राटे ले रहा था.
करवट बदलते ही बीबन के कमरे से माता-पिता का
स्मरण करती "ओइजा ... ओबा ..." की कराह जैसी निकली. आँखें बंद करने की
कोशिश करते गिरधारी को अहसास हुआ कि उनका मेज़बान उठ गया है और दरवाज़े की तलाश में
है. कुछ देर सांकल की खड़खड़ हुई और अंततः चरमराहट की विलंबित ध्वनि के
साथ दरवाज़ा खुला. पटांगण से बीबन के डगमग क़दमों की धीमी चाप आने लगी तो गिरधारी के
सोचा कि उसे किसी तरह की हाजत का निपटान करना होगा. उनींदे गिरधारी ने टटोलकर
सिरहाने रखी घड़ी में समय देखा. रेडियम लगी सुइयां बता रही थीं कि साढ़े बारह बज गया
था.
गिरधारी ने जम्हाई ली और असमय टूट गयी नींद को वापस लाने के प्रयास में
सन्नद्ध हो गया.
"व्हेन! व्हेन! ..." गिरधारी के
सपने में किसी ने फिर से पूछना शुरू किया.
"पैन्चो ..." धीमी आवाज़ में के उच्चार के साथ इस
बार न सिर्फ गिरधारी सपने से जागा बल्कि खीझ कर उठ खड़ा हुआ. वह बीबन के कमरे की
तरफ जा रहा था कि उसकी निगाह खुले दरवाज़े पर गिरी. बाहर से वापस आकर बीबन शायद
दरवाज़ा बंद करना भूल गया था. गिरधारी दो सीढ़ियां उतरकर दरवाज़ा बंद करने ही वाला था
कि उसने देखा कि पटांगण में टॉर्च जलाकर बैठा बीबन एसडीएम एक बड़े से कागज़ पर
निगाहें गड़ाए झुका बैठा था. अनुभवी गिरधारी ने अपने मन में बीबन के प्रति उभर रही
नापसंदगी को पार्श्व में धकेलकर सहानुभूति के लिए राह बनाई और दबे कदमों बीबन के
पास जाकर खड़ा हो गया.
पटाल पर धरा कागज़ किसी किस्म का नक्शा लग रहा
था. बीबन की बगल में उकडूं बैठते हुए गिरधारी ने धीमे से पूछा - "क्या चल रा
है विपिन बाबू?"
गिरधारी के आगमन से बीबन की एकाग्रता ज़रा भी
भंग नहीं हुई और उसने नक़्शे पर एक जगह अपनी उंगली स्थिर करते हुए बस "हूँ
..." की आवाज़ निकाली.
"कोई खजाना ढूंढ रहे हो बीबनदा सायद. ...
हैं? मल्लब ..."
परिचित नाम से आदरसहित पुकारे जाने का असर यह
हुआ कि बीबन ने आँख उठाकर गिरधारी को देखा और कहना शुरू किया - "झिंगेड़ी का
नक्सा है ... झिंगेड़ी का." अपनी स्थिर उंगली को एक बार उठाकर वापस नक़्शे पर रखते
हुए वह बोला - "ये हुआ हमारा मकान ... और ये ठैरे हमारे खेत वगैरौ ..."
श्रमपूर्वक बनाए गए नक़्शे में चिन्हित किये गए हिस्सों पर क्रमशः उंगली धरते हुए
बीबन ने अपने पैतृक खेत गिनाना शुरू किया - "नहीं बी होगी तीन शौ नाली जमीन
होगी बाबू के नाम पर कम शे कम ... थिरी हंड्रेड ... और मल्लब ... ये हुआ खड़कदा का
खेत ... यहाँ से आघे फिर हमारा खेत हुआ वो उद्धर गोलज्यू के थान तक ... फीर आघे घनुवा
पन्थ के खेत हुए ... उशके आघे फीर हमारेई हुए ..."
गिरधारी अचानक बिलकुल चौकस हो गया. बीबन की
एकचित्तता देखकर गिरधारी समझ गया कि सांस्कृतिक कार्यक्रम अभी समाप्त नहीं हुआ है
और थोड़े से धैर्य और मशक्कत से अर्थात बीबन की सायास जुगलबंदी करने के उपरान्त मौज
के नए आसमान खोले जा सकते हैं.
"मल्लब आप तो यहाँ के जमींदार टाइप हुए
यार बीबनदा ... क्या बात है ... गज्जब ..." - गिरधारी द्वारा दिए गए प्रोत्साहन
ने बीबन को थोड़ा सा कांफिडेंस दे दिया और वह "एक मिनट रुको जरा!" कहकर
डगमगाता हुआ निचली मंजिल के गोठ की तरफ चला गया. वापस आया तो उसके हाथ में एक सफ़ेद
ढेला था. उसने ढेले को नक़्शे पर रखा और गिरधारी को रहस्योद्घाटन करने के स्वर में बताने
लगा - "ये वाली खड़िया निकली ठैरी इस वाले खेत से ..." उसने एक खेत पर
उंगली रखी - "... और इसके बगल वाला ... ये खेत हुआ बचदा का ... उसके बाद आघे
के बीश-तीश हमारे हुए ... और ... अग्गर ... शब में खड़िया निकल गयी तो महीने के
पांच-सात हजार निकल जाने का काम हुआ ... मल्लब फाईब-सेभन थाउजेंड एभरी मंथ ... अब
दिक्कत ये आ रही हुई जो है कि पटवारी साला है अंग्रेजों का आदमी ... हम ठैरे गद्दर
पाल्टी वाले ... कल कोई साला जॉन-फॉन टाइप का अंग्रेज कलक्टर आ के कैता है कि मिश्टर
भीपीसिंग यू आर अंडर अरैस्ट तो मुझको तो हो जाने वाली हुई कालापानी ... मल्लब
आइसलैंड ऑफ दी अंडमान एंड निकोबार ..."
सीधे-सादे पहाड़ी खेतों में अंग्रेज़ कलेक्टर की
एंट्री से गिरधारी इतना उत्साहित हुआ कि इस बार उसने कहा - "एक मिनट!"
और भीतर चला गया जहां हल्द्वानी से सीखी डिज़ास्टर-मैनेजमेंट की कला के पहले पाठ के
तौर पर बागेश्वर से खरीदा गया इमरजेंसी कोटा झोले से बाहर निकाले जाने की पुकार
लगाने लगा था. नया कुबद्दर करने की प्रेरणा से उपजे उत्साह से पूरित हो वह अपने
झोले को खोलकर उसमें सबसे नीचे अड़ाकर रखे अद्धे को निकालने की कोशिश कर रहा था कि
खटर-पटर से परमौत की आँख खुल गयी. परमौत ने अचम्भे से उसे देखा तो गिरधारी ने संक्षेप
में बाहर चल रहे कार्यक्रम से अवगत कराया और साथ चलने की दावत दी.
पटांगण में अद्धा खोला जा चुका था, कांसे के
गिलासों में उसके भीतर का पदार्थ ढाला जा चुका था और इस आशातीत घटनाक्रम ने बीबन
के इतिहासकार को जगा दिया था - "... एक बार मिस्टर एठकिशन कमिस्नर नैनताल से
बागेस्वर आया हुआ दौरे पर तो मेरे बड़बाज्यू के बड़बाज्यू ने उशको और उशके पाटनर को कोटपीश में हरा
दिया हुआ ... मल्लब फुल डिफीट ऑफ दी इंग्लिस ... त्तो ... उशने क्या किया कि मेरे
बड़बाज्यू के बड़बाज्यू को बना दिया रायबहादुर और झिंगेड़ी की रियासत तोफे में दे दी
हुई. तब से हुए हम यहाँ के जिमीदार फैमली ... वो तो इन्द्रा गांदी ने इमर्जेंटी
लगा दी नईं तो हमारे यहाँ तो हाथी भी रहने
वाले हुए ..."
बीबन के दिमाग पर उसकी क्रमिक असफलताओं ने
गहरा असर किया था. अमूमन मितभाषी लेकिन पर्याप्त चढ़ जाने पर वाचाल हो जाने वाला, किसी
समय गाँव का पहला ग्रेजुएट बन चुका बेरोज़गार बीबन अंग्रेजों और इंदिरा गांधी को
अपनी सारी आपदाओं का ज़िम्मेदार मानता था. स्पष्ट शब्दों में कहा जाय तो ऐतिहासिक
कारणों से उसकी चवन्नी गिर चुकी थी जिसके मिल पाने की संभावनाएं नगण्य थीं. सो वह पूरी
शिद्दत से अपने मस्तिष्क के भीतर चल रही गड्डमड्ड को अनवरत शब्द देता जा रहा था और
इस बण्डलहांक को सुनने का लुत्फ़ उठाते गिरधारी और परमौत एक दूसरे को इशारे करते
हुए मौज ले रहे थे और बीच-बीच में "गजब दाज्यू गज्जब ..." कहते हुए बीबन
का उत्साह बढ़ाते चलते.
बीबन के पास देश, गाँव और ब्रह्माण्ड के समाजशास्त्र,
इतिहास और भूगोल को लेकर अनेक नवल विचार थे जिन्हें सुनने को पहली बार उसे ऐसे
तत्पर श्रोता मिले थे. इमरजेंसी कोटे का आधा हिस्सा बीबन को समर्पित हुआ. एटकिंसन
से लेकर हैनरी रैमजे और लाजपतराय से लेकर संजय गांधी तक तमाम चरित्र बीबन के बेमतलब
एकालाप का हिस्सा बनते रहे और उसकी जुबान क्रमशः लड़खड़ावस्था के क्रमिक स्तरों का
आरोहण करती गयी. आधे घंटे बाद कुछ भी नया न घटते देख और रात के वास्ते पर्याप्त
मनोरंजन प्राप्त कर चुके परमौत और गिरधारी चट से गए तो उन्होंने कार्यक्रम को
मुल्तवी करने की बात छेड़ी और जम्हाई लेते हुए उठने का उपक्रम चालू किया.
बीबन अब सिर्फ अंगरेजी बोल रहा था - "दी
लेप्टन जन्नल ऑफ दी गोरमेन्ट ऑफ इण्डिया इज ए नॉन-क्वाप्रेटिव सोल्जर इन दी भिलेज
ऑफ झिंगेड़ी बाय दी औडर इन दी रिपब्लिक डे परेड एज ए बागेस्वर ..."
परमौत और गिरधारी उठकर जाने को हुए तो एकालाप
पर विराम लगाते हुए बीबन ने उन पर एक तटस्थ निगाह फेरी और खुद भी खड़ा हो गया. उसके
चेहरे पर किसी संत का निष्कपट भाव था. "एक मिनट! वन मिनट ओनली शर!" कह
कर वह फिर से गोठ में घुस गया. इस बार उसके हाथ में कपड़े का एक थैला था - "आप
लोग इन्नी दूर शे झिंगेड़ी आए रहे ... कुछ तो तोफा आपको देना पड़ने वाला हुआ मल्लब
... आइये शर पिलीच!" वह घर की चारदीवार से बाहर निकल गया और अपनी टॉर्च उनकी
दिशा में चमकाने लगा. मरता क्या न करता की तर्ज़ पर परमौत और गिरधारी को झख मारकर
उसके पीछे जाना पड़ा. कुछ देर बाद वे झिंगेड़ी के एक बंजर खेत में खड़े थे. बीबन के
थैले में आटा भरा हुआ था जिससे चूने का काम लेते हुए तेज़-तेज़ उल्टा चलते हुए रायबहादुर
बीबन ने खेत में बाकायदा ज़मीन के एक टुकड़े को चार तरफ से मार्क किया और रात के अंतिम प्रहर के
चन्द्रमा को साक्षी बनाने की घोषणा के साथ हल्द्वानी से आये दो निर्धन लेकिन भले सन्यासियों
को उसका ऑनरेरी स्वामित्व प्रदान किया.
***
सुबह के दस बजे हुए थे. बीबन को सोया छोड़कर, बचेसिंह के यहाँ चाय पी चुकने के बाद फिलहाल आधे घंटे से गिरधारी और परमौत नब्बू
डीयर के साथ उसके घर के बाहर बैठे हुए थे. दोपहर बाद की पाली से छुट्टी लेकर गाँव
आ जाने और उन्हें आसपास के इलाके का भ्रमण करवाने का वादा कर बचेसिंह बागेश्वर चला गया था. नब्बू थोड़ा कम बीमार लगा रहा था
और उस का चेहरा पिछली शाम से थोड़ा सा भर गया सा दिख रहा था. इतनी लम्बी अनुपस्थिति के बाद अंतरंगतम
मित्रमंडली की संगत उसके लिए अमृत का काम कर रही थी.
इतने शॉर्ट नोटिस पर
हल्द्वानी चल सकने में असमर्थता व्यक्त करते हुए जब वह अपने घर की विवशताओं को तीसरी
बार गिना रहा था तो थालियों में रोटी सब्जी का नाश्ता लेकर बाहर आ रही उसकी माँ ने
भरी आँखों से गिरधारी से कहा - "हल्द्वानी जाके जरा ठीक से इलाज हो जाएगा
नबुवा का, बिस्जी! यहाँ क्या होता है! वैसाई हुआ हर दिन. जो कट गया वो कट गया समझो इष्टों की
किरपा से. हमारा तो वैसे भी बुढ़ापा हुआ. के न के कर ही लेंगे. तुम ले जाओ हो इसको
हल्द्वानी - सौ-पचास रुपे का जो भी खर्चा लगेगा वो मैं दे देने वाली हुई ..."
वह थालियाँ लिए-लिए आँगन में ही बैठ गयी और सुबकने रोने लगी - "गरीब हुए हम
लोग ... क्या कर सकने वाले हुए ... अब तुम लोग आए हुए रहे अपने दगड़ी-दोस्त के
देखने को ... नहीं तो कौन आ रहा हुआ यहाँ बज्जर-पड़े झिंगेड़ी में ... ले जाओ मेरे नबुवा
को अपने संग नहीं तो यहीं मर-हर जाएगा बिगैर दवाई-इलाज के ..." संकोच और ग्लानि
से भर रहा नब्बू डीयर अपनी माँ को हल्का झिड़क कर भीतर जाने को कहता इसके पहले ही
वह उठी, उन्हें थालियाँ थमाईं और अपने पिछले डायलॉग को दोहराते हुई घर के भीतर चली
गयी - " गरीब हुए हम लोग बेटा! ... क्या कर सकने वाले हुए ..."
इस करुणा-उपजाऊ वार्तालाप ने परमौत और गिरधारी
लम्बू को उतना गहरे और उस तरह प्रभावित नहीं किया जितना दूसरा कोई हो गया होता. वे
जानते थे कि नब्बू डीयर का परिवार गरीब है और झिंगेड़ी-बागेश्वर में उसका सलीके का इलाज
संभव नहीं. नब्बू उनका घना दोस्त था और मित्रधर्म का कर्तव्य निभाने का कोई पाठ
सिखाये जाने की उन्हें कोई दरकार नहीं थी. नब्बू डीयर को हल्द्वानी ले जाया जाना था - बस! इस बात को नब्बू भी जानता था और उसे
अपने दोस्तों पर गर्व था. उन्होंने चुपचाप रोटी खाना शुरू किया. सामने से अपना
भावहीन चेहरा लिए नंगे पाँव, सीधा कब्र से उठकर आ रहा लगता, अपने विचारों में अलोप
बीबन आता दिखाई दिया - उसके बाल उड़े हुए थे और उसकी अस्तव्यस्त वेशभूषा समेत उसके
मुंह और हाथों पर पर जहां-तहां पिछली रात का आटा शोभायमान था.
(जारी)
2 comments:
हमारे बीबन ने नारा लगाया था, 'साइमन गो बैक,वापस जाओ'
वाह बड़िया जा रहे हैं ।
Post a Comment