Saturday, August 19, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - उनतीस



बीबन को देख गिरधारी और परमौत को हैरत हुई कि आधे घंटे पहले जो इंसान मुंह पर रज़ाई डाले खर्राटे मार रहा था वह अचानक आटा पिसवाने कहाँ चला गया होगा. इसके पहले कि वे अपने मेज़बान का अभिवादन करते, तीनों पर निगाह डाले बगैर वह सीधा घर में घुस गया. "आ बीबनौ! आ च्यला! आ पोथी! देर जैसी कर दी कहा आज तू ने! कब से तेरी बाट चा रहे कका तेरे.... चल रोटी-होटी खा ले पहले." कहती नब्बू डीयर की माँ की आवाज़ में पगा लाड़ बता रहा था कि बीबन उस घर का अन्तरंग है और वहां उसका नियमित आना-जाना है.

"बाबू को इंजेक्सन लगाने आने वाले हुए रोज सुबे एड्डीएम साब ... यही ठैरे झिंगेड़ी के सीएमओ सैप!" नब्बू डीयर ने बीबन के एक और आयाम से अपने दोस्तों को परिचित कराते हुए कहा. गिरधारी लम्बू और परमौत को याद आया कि वे पिछली रात के कार्यक्रम के बारे में नब्बू को बताना भूल गए थे.

"तुमारे बीबनदा हुए तो गजब्बी यार नब्बू गुरु ..." गिरधारी बोलना शुरू कर ही रहा था कि नब्बू ने मुस्कराते हुए पूछा - "रात में कुछ जमीन-हमीन तुमारे नाम करी भी या ऐसेई ल्यफ्टराइट कराते रहे दाज्यू?"

अब तक बीबन के कपड़ों वगैरह पर लगे आटे के निशानों की गुत्थी को समझने का प्रयास कर रहे परमौत और गिरधारी, दोनों को एक साथ सब कुछ याद आ गया और उनकी हंसी फट पड़ी. उन्होंने दबी आवाज़ में पिछली रात के विवरण नब्बू को देने शुरू किये लेकिन उन्हें सुनते हुए नब्बू के चेहरे पर के भावों में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया. परमौत और गिरधारी लम्बू ने नब्बू की इस उत्साहीनता का सबब उसकी खराब तबीयत को माना और किस्से को अधिक लंबा नहीं खींचा. फिर भी उन्हें उम्मीद थी कि इस किस्सागोई के एवज़ में नब्बू की तरफ से कोई चुटीला कमेन्ट आएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कुछ पल खामोशी रही फिर अचानक उदास हो आए नब्बू ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा - "कब का ग्रेजुएट हुआ यार हमारा बीबनदा! कितना करा बिचारे ने पर साली नौकरी लगी ही नहीं कहीं! बस ऐसे ही पगली गया हुआ दो-तीन साल से. कब्ब से सड़ रहा हुआ यहीं झिंगेड़ी में. ये उसकी परेड-फरेड तो यहाँ के बच्चों तक को मालूम हुई. रोज़ रात का काम हुआ उसका. नींद जो क्या आती है बिचारे को, परमौती भाई. ऐसेई हुआ सब साला ... "

उनकी थालियाँ उठाकर गोठ की तरफ जाते हुए उसने पलटकर देखा और अपनी बात जारी रखी - "... मल्लब मुजको बी जो है आठ पास करने के बाद जिद्द करके बीबनदा ने ही भिजाया ठैरा हल्द्वानी. बाबू से कहने वाला हुआ कि कका पड़े-लिखे आदमी की ही कदर होने वाली हुई जमाने में. नहीं तो हमारे बाबू की न तो साली औकात हुई न वैसी मत्ति कि लौंडे को स्कूल-हिस्कूल कहाँ भेजो, क्या करो, क्या ना करो. है नी है! ..."

नब्बू वापस उनकी बगल में आकर बैठ चुका था - "पड़े-लिखे की ऐसी ही कुकुरगत हुई आजकल साली. नहीं तो बीबन जैसा एक्क आदमी नहीं हुआ ये पूरे इलाके में एक जमाने में यार."

बीबन की हालत से नब्बू सचमुच दुखी था और अपनी बात को अचानक विराम देता हुआ चुप हो गया. परमौत और गिरधारी भी सहमकर चुप हो गए. अनजाने ही दोनों की निगाहें एक साथ घर की बंद खिड़की पर लग गईं जिसके पीछे नब्बू डीयर के बीमार और अपंग पिता थे जिनसे अभी उनकी पहली मुलाक़ात होना थी, बात-बात पर आँखों में आंसू भर लाने वाली उसकी असमय बुढ़िया हो गयी दिखने वाली माँ थी और फिलहाल कम्पाउंडर बना हुआ बीबन था जिसे वे अब तक गाँव का एक दिलचस्प अलबत्ता पागल कैरेक्टर भर समझ रहे थे.

"कोई ढंग का इलाज क्यों नहीं कराया होना यार नबदा फिर ...?" भारी होती जा रही खामोशी को तोड़ते गिरधारी ने झिझकते हुए पूछा.

"अबे गिरधर गुरु, कौन करता इलाज? हैं? मल्लब किस-किस आदमी का इलाज कराएगा कोई? और कहाँ से कराएगा? बचदा कराएगा? मेरे बाबू कराएंगे? या फिर मैं कराता हूँ? ..."

"ऐसे जो क्या ..." गिरधारी अचकचा गया.

"ये साला अल्मोड़े से आगे जो है न ... मल्लब कोई सरकार-फरकार जो क्या बैठ रही हमारे ईजा-बाबू बन के कि जो साला बीमार होगा उसका इलाज कराएगी...! अगर बीबनदा के ईजा-बाबू जिन्दा होते भी ना तो बिचारे कहाँ से कराते यार इलाज? आब मेरे बाबू चार महीने से बिस्तरे में हग-मूत रहे हुए. कौन सा कोई डाक्टर आ रहा उनका इलाज करने को. हैं? एक-दो बार डोली-होली कर के बागेस्वर ले गए सरकारी अस्पताल में तो वहां जो है परमौती उस्ताज ... नहीं भी होंगे हमारे जैसे सौ आदमी और होंगे ... किसी की हड्डी टूट रही, किसी का पेट अमोरी रहा, किसी की आँख फूट रही, किसी को पैन्चो दस्त लग रहे ... कहाँ से होता है ढंग का इलाज ..."

परमौत का पाला न कभी गरीबी से पड़ा था न अस्पताल से. उसकी माँ उसके जन्म के बाद मर गयी थी जबकि बाबू को रात सोते में दिल का दौरा पड़ा था. अस्पताल से सम्बंधित उसकी सीमित स्मृतियाँ बस भाई-भाभी के बच्चों के जन्म के समय हल्द्वानी के इकलौते नर्सिंग होम में खाना पहुंचाने भर की थीं. घर पर किसी के भी बीमार होने की सूरत में डाक्टर जोशी दस मिनट में घर पहुंच जाया करते थे. नब्बू की बातें सुन कर उसने पहली बार बीमारों की तीमारदारी करने में होने वाले कष्ट की कल्पना करनी शुरू की और वह सिहर उठा. नब्बू जितनी ही गरीब पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाला गिरधारी नब्बू का दर्द पूरी तरह समझ पा रहा था.

"... ऐसेई मरने वाले हुए गाँव के लोग साले ... वो भी भुस्स पहाड़ी गाँव के लोग ... बीबनदा का इलाज कौन कराता है गिरधारी गुरु? यहाँ अपनी जान बचाना मुस्किल हो रहा साला. अबे मेरे को ही देख लो. इतने दिन हो गए अस्पताल गए हुए ... कहाँ से जाता हूँ? कैसे जाता हूँ? हल्द्वानी जो क्या हुआ जो चट्ट से रिक्सा करा और पौंच गए डाक्टर के पास. दस दफे सोचना पड़ने वाला हुआ यार. फिर बागेस्वर में डाक्टर मिल ही जाएगा इसकी क्या गारंटी हुई? आधे टाइम तो छुट्टी पर रहने वाले हुए साले ..."

"... अब तू मर जाता है भलै, नबदा!" माहौल में बढ़ती जा रही डरावनी मनहूसियत से भयाक्रांत होकर गिरधारी ने विषयांतर करने की नीयत से नब्बू डीयर की पीठ पर हल्की सी थाप मारते हुए मज़ाक किया.

नब्बू बात समाप्त करने के मूड में नहीं था - "अब देखो परमौती वस्ताज, ये जो हमारे गिरधारी गुरु कह रहे हुए कि बीबनदा का ढंग का इलाज क्यों नहीं कराते हो तो बात तो इनकी सही ठैरी एक तरह से मल्लब. लेकिन सवाल ये हुआ कि बीबनदा की जरूअत किसको हुई. या मेरे बाबू ने कौन सा दुनिया का काम सपाड़ रखा हुआ आज तक. त्तो ... उनकी भी जरूअत किसी को नहीं हुई ... तो इसका मल्लब ये हुआ कि जिसकी साली जरूअत ही नहीं हुई तो वो ज़िंदा क्यों रह रहा हुआ? मल्लब उसको जिन्दा रैने का कोई हक ही साला क्यों हुआ? ... है नईं है? ..."

परमौत को नब्बू के इन सटीक वक्तव्यों से हल्की असुविधा होने लगी थी. उसने भावुक होते हुए नब्बू का हाथ थाम लिया - "ऐसे जो क्या होने वाला हुआ यार नब्बू ... ऐसे जो क्या ..."

नब्बू खुद रुआंसा हो गया था - "लेकिन मुकेस गुरु क्या कैने वाले हुए परमौती वस्ताज कि जीना यहाँ और मरना यहाँ और जो है इसके सिवा जाना कहाँ ... तो यहीं जीना ठैरा और यहीं मरना भी ठैरा ... तो इसी चक्कर में सब लगे ठैरे ... आदमी जो हुआ ना ... मल्लब आदमी चीज ऐसी हुई कि साला जब तक मरेगा नहीं तब तक आदमी ही होने वाला हुआ ... कोई साला कुकुर-बिरालू जो क्या हो रहा हुआ ..." परमौत और गिरधारी पिछले मिनटों में नोटिस कर रहे थे कि हल्द्वानी से अपने गाँव वापस आने के बाद में महीनों में काइयां नब्बू में खासा बदलाव आ गया था और वह अनापेक्षित रूप से बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कर रहा था. वह किसी ज्ञानी संत की तरह प्रवचन दे रहा था और वे दोनों लाटे बनकर उसे सुनने को मजबूर बना दिए गए थे. अलबत्ता अभी-अभी नब्बू डीयर द्वारा मुकेश के गाने का ज़िक्र किये जाने से दोनों की देहों में एक मीठी झुरझुरी पैदा हुई जैसा सिर्फ गोदाम में हुआ करता था.

इन्हीं शोक-शिरोमणि के एक और गीत का ज़िक्र करते हुए नब्बू ने बात आगे बढ़ाई - "मुकेश गुरु ने ऐसेई माहौल के लिए कहा ठैरा ... आहा ..." वह अपनी पुरानी रौ में आ गया लगता था - "क्या कैने वाले हुए कि ... किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार. और किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार ... तो जीना इसी का नाम हुआ ... मल्लब ये हुआ कि डाक्टर-फाक्टर और सरकार-फरकार के चक्कर में पड़ने का काम जो क्या हुआ साला ... आदमी जो है, जैसा भी हुआ किसी न किसी के कुछ न कुछ काम का जरूर होने वाला हुआ ... कैने को हमारा बीबनदा हुआ पगलेट. डिमाग खराब हो गया ठैरा उसका - सब ऐसे ही बताने वाले हुए. लेकिन ये साला झिंगेड़ी और आसपास के दस गाँव में इंजेक्सन लगाना उसी को आने वाला हुआ. थर्मामीटर देखना उसको आने वाला हुआ. जर-बुखार की दवाई ऐसेई बता देने वाला हुआ कि एनासीन खा लो क्लोरोकुनीन खा लो मल्लब ... वैसे कहते हो तो पागल हुआ बीबनदा ... रात को ल्यफ्टराइट करने वाला हुआ. जमीन बांटने वाला हुआ सबको ... बस देने वाला हुआ ... लेने वाला किसी से कुच्छ नहीं हुआ ... मांगने वाला भी नईं हुआ. त्तो ... मुकेश गुरु जो कैने वाले ठैरे जीना जो हुआ इसका नाम हुआ ... है नी है? मेरा कहने का मल्लब हुआ कि आदमी पगलेट भी हुआ तो भगवान ने उसको भी कुछ ऐसा दे कर के दुनिया भेजा ठैरा जो उसको कुकुर-बिरालू से जादे बड़ा बनाने वाला हुआ ... अब पगलेट साला चाहे झिंगेड़ी में रह रहा हो चाहे हल्द्वानी में चाहे पैन्चो अमरीका में ..."

नब्बू डीयर की बात समाप्त हो गयी थी और उसने संभवतः जीवन में पहली बार किसी विषय को इतनी देर तक इतने सटीक और प्रभावी तरीके से जुबान दी थी. उसने परमौत और गिरधारी के मन में बीबन की इमेज की जायज़ ओवरहॉलिंग कर दी थी. तनिक हकबकाए हुए दोनों के भीतर नब्बू के लिए अथाह लाड़ और अपनापन उमड़ने लगा था.

"नबदा गुरु ऐसा है ... हम तो जो है यहाँ झिंगेड़ी आये रहे तेरे को देखने बस. बीबनदा के इलाज की बात वापिस जाके करेंगे. अभी तो बस ये है कि तू अपना झोला-झिमटा बाँध और चल ... आज रात बागेश्वर रुकते हैं. कोई होटल-फोटल कर लेंगे ... कल सूबेदार की गाड़ी लेके हल्द्वानी चलते हैं ... पहले तेरे को ठीक होना हुआ ... बाकी सब उसी के बाद ठीक होने वाला हुआ ... फिर तेरी ब्वारी भी मुझसे कह रही हुई कि जेठज्यू कब आएँगे हल्द्वानी मूँदिखाई का पेमेंट करने को ..." परमौत ने नब्बू की पसली को मोहब्बत से कौंचा तो माहौल एक झटके में रवां हो गया और नब्बू डीयर ने पुनः सनातन कमीनावस्था प्राप्त कर ली. अपना एक पुराना डायलॉग दुहराता हुआ वह बोला - 

"अबे कहाँ की ब्वारी बे खबीस परमौतिये! बस एक तुमी से पट रई बेटे लौंडिया! साले असली वाली फोटुक-होटुक कुछ जुगाड़ करी कि गिरधरुवे ने? या अभी भी वोई साले रात भर ..." पिरिया के मामले में परमौत इस से अधिक जलालत बर्दाश्त करने के मूड में नहीं था. उसने पैंट के जेब में खुंसाया हुआ पिरिया का रूमाल निकालकर नब्बू डीयर के सामने प्रस्तुत करते हुए किंचित गौरव के साथ कहा - "ब्वारी का रूमाल जब आ गया तो साली फोटो का क्या करना है यार माय डीयर नब्बू हौकलेट!"

"दिखा, दिखा" कहता नब्बू उसे झपटने को हुआ तो परमौत ने रूमाल वापस जेब में घुसा लिया.

नब्बू ने आस-पास चोरों की तरह देखते हुए कहा - "कुछ गेम बना लौंडिया के संग या ऐसेई बस कैरमबोट पे पौडर जैसा डाल रा अबी भी?"

गिरधारी फोटो जुगाड़ करने की अपनी कोशिशों और  परमौत के पिरिया को मोपेड पर बिठाकर हल्द्वानी की बाज़ार का चक्कर लगा आने के किस्से को बढ़ा-चढ़ाकर सुनाने की प्रस्तावना बना ही रहा था कि बीबन बाहर निकला. तीनों ने अपनी खुसरफुसर बंद कर दी. बीबन ने उन पर एक बेपरवाह सी निगाह डाली और पटांगण के एक कोने पर धरी बाल्टी से पानी लेकर हाथ-मुंह धोने लगा. नब्बू डीयर ने कृतज्ञ स्वर में पूछा - "हो गया हो बीबनदा? अब कितने इंजेक्सन लगाने और रह गए?"

कुल्ला करते-करते ही बीबन ने तीन उंगलियाँ उठाकर उत्तर दिया और काफी देर तक किसी बिल्ली की सी तन्मयता के साथ अपना चेहरा साफ़ करता रहा.

(जारी)

4 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

रोचक। बढ़िया।

सुशील कुमार जोशी said...

बढ़िया । रोचक।

Taintedmoksh said...

From comic to poignant, the transition has been extraordinary...

Unknown said...

हल्द्वानी के किस्से - 5 - तीस मिल नही रहा