इस कँपकँपाने वाली ठण्डी में
- अष्टभुजा शुक्ल
बर्रै
या बिच्छू
सब
नदारद हैं
लेकिन
झनझना रही हैं अँगुलियाँ
पानी
में हाथ डालने का मन नहीं करता
मन
करता है कि आग में खड़ा हो जाऊँ
इस
कँपकँपी ठण्डी में
मुँह
से
शब्दों
की जगह
सिर्फ़
भाप निकल रही है
मुट्ठियाँ
बँधी हैं
किसी
पर छोड़ दूँ इन्हें
तो
वह भी
न
हिलेगा न डुलेगा
ऐसी
सुन्न कर देने वाली ठण्डी है
कुहरा
है ऐसा
कि
सफ़ेद अन्धेरा है
जिसमें
सब कुछ गायब है
अपना
ही बायाँ हाथ
दाहिने
को नहीं पहिचान पाता
पुराना
अस्थमा उभर आया है—
जानलेवा
!
खँखार
रहा हूँ
और
थूक रहा हूँ
यह
सूखी खाँसी नहीं है
खूब
बलगम भरा है भीतर
एक
बूढ़े देश का
चाहता
हूँ
कि
जिस पर थूकूँ
ठीक
उसी पर पड़े बलगम
कमज़ोर
आँखों से
ज़ोर
लगाकर देखता हूँ
इस
कँपकँपाने वाली ठण्डी
और
सब कुछ
सफ़ेद
कर देने वाले
कुहरे
में
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