मंटो
की ख्वाहिश
-
वुसतुल्लाह ख़ान
बरखुरदार
खुश रहो,
बहुत
शुक्रिया कि तुमने मुझे सौंवी सालगिरह पर याद रखा. कुछ देर पहले ही इफ़्तिख़ार
आरिफ़ यह बताने आया था कि उसने पाकिस्तानी सरकार को लिखित सिफारिश की है कि मुझे
भले दें ना दें मगर वसी शाह, सालेह
जाफर और सआदत हसन मंटो को ज़रूर लाइफ़ टाइम अचीवमेंट एवार्ड से से नवाज दें.
मैंने
उनके इस एहसान का शुक्रिया अदा करके बात सुनी अनसुनी कर दीं.
तुमने
पूछा है कि दिन कैसे गुजर रहे हैं तो मियां बरखुरदार मुझ जैसे टुच्चे लेखक के दिन
कैसे गुजर सकते हैं? कुछ
करने को है नहीं, न
सोचने को है. जितना कुछ शुरू के 42 वर्षों में कर लिया उसका एक तिहाई भी बाद के 67
साल में नहीं हो पाया.
आज
सौ बरस का होने पर यह सोच रहा हूँ कि क्या यह वही मंटो है जो एक सिगरेट की राख
झाड़ने से पहले एक कहानी झाड़ कर उठ खड़ा होता था. जिसका कोई भी रेडियो प्ले, स्क्रीनप्ले या कैरी केचर
आधी बोतल की मार था.
मगर
आज मेरी जिंदगी में अगर कोई लफ्ज बचा है तो वो है - काश. काश मेरी सफिया से शादी न
हुई होती. हो भी जाती तो काश वो पहले लाहौर पहुंच कर मुझे वहाँ आने पर मजबूर न
करती. मजबूर कर भी लेती तो मेरी बात मान कर मुंबई दोबारा जाने के लिए राजी हो
जाती.
लेकिन
जब न चाहते हुए एक देश के दो टुकड़े हो जाएं और मियां बीवी भी यह तय नहीं कर पाए
कि उन्हें रहना कहाँ है और इस दौरान नुज़हत,
निगहत
और नुसरत भी हो जाएं तो काश का लफ्ज़ भी उस मुक्के में बदल जाता है जो हारने के
बाद अपने ही मुँह पर मार लेना चाहिए.
लेकिन
यह भी तो सोचो कि सफिया न होती तो मंटो कैसे होता. कोई और सफिया तो दिखाओ जो मुझ
जैसे आग के गोले को अपनी हथेलियों में छुपा ले. कितना कुछ सहन करने वाली औरत थी.
कहाँ ताने और नशे से चूर पच्चीस रुपए कमाने वाला एक कहानीकार और कहां सफिया.
यह
दस रुपए आपकी बोतल के, यह
पांच रुपए आपके आने जाने के और यह दस ... इसमें घर का खर्च चल जाएगा. आप बिल्कुल
परेशान ना हों, मैं
हूँ न.
लेकिन
मैं आज तक इस सवाल के भंवर में हूँ कि सफिया मुझे पाकिस्तान आखिर क्यों लाई. मेरा
यहां क्या काम था? भला
चमड़े के बाजार में इत्र बेचने और नेत्रहीन समाज में रौशनी बेचना संभव है क्या?
चालीस
और पचास के दशक में तो मैंने समाज के साथ और सामाजिक ठेकेदारों ने मेरे साथ जो
किया सो किया लेकिन अय्यूब खां के जमाने में तो अल्ताफ़ गौहर और
कुदरतुल्लाह शहाब के चाटुकार प्रकाशकों ने तो मेरी तमाम किताबें बाजार से हटवा दीं.
मगर इस दौरान बांग्ला पत्रिकाओं में मेरी कहानियों के अनुवाद खूब छपे. उस वक़्त तो
मैं समझ नहीं पाया कि बंगालियों को मेरी कहानियों में ऐसा क्या नजर आ गया मगर साल
1971 में ये भी मेरी समझ में आ गया.
जब
दौर बदला तो मौलाना कौसर नियाजी की मेहरबानी से पेट की आग बुझाने का इंतजाम तो हो
गया लेकिन दिमाग की प्यास फिर भी ना बुझ सकी. लेकिन हसरत मोहानी के बाद ये दूसरे
मौलाना हैं जो मुझे जीवन में अच्छे लगे.
एक
बात मैंने आज तक किसी को नहीं बताई तुम्हें पहली बार बता रहा हूँ.
हुआ
यूं कि एक बार मौलाना जब मुझसे देर रात मिलने आए (वह हमेशा रात ही में मिलने आते
थे) तो मैंने उनसे कहा कि करने को कुछ नहीं है. कम से कम कोई साहित्यिक पर्चा ही
संपादित कर लूं तो कुछ संतुष्टि हो जाएगी. मौलाना ने पहले तो मुझे टकटकी बांधकर
मिनट भर देखा. फिर हंस पड़े जैसे मैंने कोई लतीफ़ा सुना दिया हो. कहने लगे मंटो साहब
मौलवी लोग पहले ही हमारे खून के प्यासे हैं. ऐसी ख़तरनाक फरमाइशें ना करें.
उनके
जाने के बाद मैंने एक कहानी लिखी 'मुनाफिकस्तान'. मगर पत्रिका के संपादक ने
(उनका नाम लेना उचित नहीं) कहानी छापने के बजाय मौलाना को पोस्ट कर दी. उसके बाद
संपादक और मौलाना से मरते दम तक मुलाकात नहीं हुई.
1970
में दो त्रासदी हुईं. मेरी सफिया का इस दुनिया से जाना और ज़िया उल हक का आना. एक
ने मुझे बिल्कुल अकेला कर दिया और दूसरे ने उस तन्हाई को और बढ़ा दिया.
लेकिन
मियां बरखुरदार वर्ष 1970 मेरी ढलती जिंदगी के सीने पर लगा ऐसा पत्थर है जिसका बोझ
कब्र के सिवा कोई हल्का नहीं कर सकता.
मैं
आज 35 साल बाद भी यह तय नहीं कर पाया कि दोनों में से कौन सी त्रासदी अधिक संगीन
थी.
जब
1983 में एक सैन्य अदालत ने मेरी एक कहानी 'एक
भेंगे की सरगुज़श्त' पर
पांच कोड़ों की सज़ा सुनाई उसके बाद से तुम तो जानते ही हो कि मैंने ऐलान कर दिया
कि अब लिखने पढ़ने को जी नहीं चाहता.
लेकिन
चुपके-चुपके लिख-लिख कर दराज में रखता जाता हूँ. लेकिन सुनाने या प्रकाशित कराने
की इच्छा मर चुकी.
मगर
आजकल यह चिंता सताए जा रही है कि इस पुलिंदे का क्या करूँ, किसके सुपुर्द करूँ क्योंकि
मैं जहां रहता हूं वहां तो सिर्फ कागज के लिफाफे बनाने का रिवाज है.
बरखुरदार, सब कुछ देखते ही देखते कैसा
बदल गया. इस्मत जब भी पाकिस्तान आती थी ज़रूर
मिलती थी. फिर वो भी चल बसी.
मुझे
यकीन है कि उसे बुला कर ऊपरवाला भी पछता रहा होगा. और अली सरदार जाफ़री ... हाय
क्या आदमी था. अब तो गुमान होता है कि सभी चले जाएंगे.
रह
जाएगा तो एक लाल बैग और दूसरा सआदत हसन मंटो.
तीन
साल से तीन कहानियों पर काम कर रहा हूँ. एक कहानी गायब लोगों पर आधारित है और
मैंने उसका शीर्षक 'साये
का साया' सोच रखा है.
एक
कहानी आत्मघाती हमले में दोनों टाँगें गंवाने वाले ढाई साल के एक बच्चे की जिंदगी
के ईर्द गिर्द घूमती है. इसका शीर्षक मैंने 'बदसूरत
खूबसूरती' सोचा है.
तीसरी
कहानी एक ऐसी औरत के बारे में है जिसका 1947 में बतौर लड़की, 1971 में बतौर एक अलगाववादी
की पत्नी और 1985 में अपने पोते के पाप की सजा के तौर पर बलात्कार हुआ. इसका
शीर्षक मैं 'हैट्रिक' रखना चाहता हूँ.
चौथी
कहानी अभी केवल मेरे ज़ेहन में है. यह कब्र खोलकर महिलाओं के शव निकाल कर 'काले जादू' का कारोबार करने वालों के
बारे में है. लेकिन मैं अब किसी नंगी लाश की चर्चा तो दूर, उसके बारे में सोचते हुए भी
डरने लगा हूँ.
शायद
इस गुमान का कारण यह है कि अब जो हालात मेरे सामने हैं उनसे निपटना तो दूर उन्हें
समझना ही मुझ जैसों के बस से बाहर है.
निगहत, नुजहत, नुसरत और उनके बच्चे मेरा
बहुत खयाल रखते हैं. बस उस सवाल पर कभी कभी उनसे कड़वा हो जाता है कि बाबा आप
हमारे साथ क्यों नहीं रहते. उन्हें कैसे कहूँ कि बाबा तो अपने साथ नहीं रह पा रहे
किसी और के साथ क्या रहेंगे.
हाँ
कभी कभी अदनान नाम का एक नौजवान मेरे लिए कुछ शराब ले आता है.
पिछले
साल जब मैं 99 साल का हुआ तो अदनान मुझे 2005 में मेरे जन्मदिन पर छपने वाला
सरकारी डाक टिकट फ्रेम करवा कर और एक मोबाइल फोन तोहफे में दे गया.
फ्रेम
तो मैंने लटका दिया लेकिन मोबाइल फोन वैसे का वैसा डिब्बे में बंद है . भला फोन
मेरे किस काम का? मैं
किसे फोन करूँ? साथ
के दोस्त दुश्मन सभी तो मर गए. एक दिन अदनान कह रहा था कि उसने मेरी वेबसाइट बना
दी है. एक दिन कह रहा था कि फेसबुक पर मेरा पेज बना दिया है. मुझे तो उसकी बातें
पल्ले नहीं पड़तीं, बस
हूँ हाँ करता रहता हूँ.
अकेलापन
और बढ़ती उम्र वैसे भी इंसान को बुजदिल बना देती है. कभी कभी साहित्य से शौक रखने
वाले कुछ सनकी बच्चे कहीं से पता खोजते हुए मुझ तक पहुंच जाते हैं. मगर सबका यही
सवाल कि आज का नौजवान सआदत हसन मंटो कैसे बन सकता है?
मैं
उनसे कहता हूं कि शर्म करो और शुक्र करो तुम में से कोई मंटो नहीं, क्या नसीहत देने के लिए एक
काफी नहीं.
मैं
नहीं चाहता कि उनकी हिम्मत टूटे इसलिए उनसे ये भी नहीं कह सकता कि मंटो के चक्कर
में न पड़ो. इस समाज में रहना है तो डॉक्टर नहीं कसाई बनो, बाग़ी नहीं दलाल बनो, दिल को ताला लगा दो, दिमाग में भूसा भर लो और
भेजा फ़्राई पेट भर के खाओ. शराब पीनी है तो ट्रांसपेरेन्ट पियो और मिनरल वाटर की
बोतल में पिओ.
मगर
ये साले मंटो बनना चाहते हैं!!!
देखते नहीं कि मैं ही वह मनहूस हूँ जिसने अपनी जीवन में ही इस धरती और समाज को 'टोबा टेक सिंह' बनते देख लिया बल्कि इस टोबा टेक सिंह में नया कानून तो दूर जंगल का कानून तक नहीं.
देखते नहीं कि मैं ही वह मनहूस हूँ जिसने अपनी जीवन में ही इस धरती और समाज को 'टोबा टेक सिंह' बनते देख लिया बल्कि इस टोबा टेक सिंह में नया कानून तो दूर जंगल का कानून तक नहीं.
सड़क
पर चलते आदमी को पता ही नहीं चलता कि कब 'ठंडा
गोश्त' बन गया. आपने किसी से
धार्मिक और राजनीतिक मतभेद जाहिर किया नहीं कि आपकी सलवार उतरी, भले उसका रंग कैसा ही हो.
वह
भी क्या जमाना था कि मंटो तीस मिनट में कहानी लिख मारता था. आज यह स्थिति है कि
तीन साल से तीन कहानियों पर काम कर रहा हूँ. लेकिन तीनों की तीनों अभी तक पूरी
नहीं हो सकीं.
बरखुरदार
अब कब लाहौर आना होगा. इस दफ़ा लक्ष्मी मैंशन की तरफ मत जाना. उसे लालची प्लाजों
ने घेर लिया है. सीधे कल्मा चौक आ जाना जहां लोग मेरे घर का पता बता देंगें. घर
क्या है. एक बंगले के पिछवाड़े में बने दो कमरों में रहता हूँ.
अब
तो बस एक ही ख्वाहिश है कि 101 वें जन्मदिन ऐसी जगह मनाऊँ जहाँ मेरे सिवा कोई ना
हो.
केवल
तुम जैसों का,
सआदत
हसन मंटो
(http://www.bbc.co.uk से साभार)
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