फोटो: साभार जितेन्द्र सिंह |
(पिछली क़िस्त से आगे)
“शेरसिंह
लमगड़िया हुआ मैं. सूबेदार रिटायर.”
बचेसिंह
के साथ आसपास के गाँवों का भ्रमण करने निकले परमौत और गिरधारी की मुलाक़ात झिंगेड़ी
के अगले ही गाँव में दुकान चलाने वाले सज्जन से हो रही थी. हल्द्वानी से आये इन
दोनों महामनाओं ने नब्बू डीयर को अपने साथ चलने के लिए एक और दिन की मोहलत और दे
दी थी और फिलहाल बचेसिंह द्वारा पहले से ही तयशुदा कार्यक्रम जारी था. धूप इतनी
तेज़ थी कि गिरधारी ने अपना काला चश्मा लगा लिया था. यह काला चश्मा उसके मरहूम
दादाजी को हल्द्वानी में किसी ज़माने में आयोजित सरकारी मोतियाबिंद निवारण कैम्प
में मिला था और गिरधारी को उत्तराधिकार में हासिल हुआ था. उसकी इस हरकत को देख परमौत
थोड़ा सा मुदित हुआ क्योंकि गिरधारी उसे पहनने के उपरान्त पहले से भी ज़्यादा बौड़म
दिखाई देता था. गिरधारी भी इस तथ्य से अपरिचित नहीं था लेकिन उसका तर्क यह होता था
कि अगर कोई चीज़ अपना काम सही से कर रही हो तो इस बात से कोई फरक नहीं पड़ता कि आदमी
उसका इस्तेमाल करते समय चाहे हॉकलेट नज़र आए चाहे राजेस्खन्ना.
फिलहाल
शेरसिंह लमगड़िया की दुकान उनका पहल स्टॉपेज थी जहां बचेसिंह ने दोनों का परिचय
अभी-अभी कराया था. शेरसिंह लमगड़िया लम्बे कद का एक गठीला बूढ़ा था जिसकी दिनचर्या
का अधिकांश हिस्सा अपनी राजस्थानी शैली की मूंछों की देखभाल के अलावा बुरी तरह घिस
चुके अपने सीमित फौजकालीन किस्से सुनाने में गुजरता था. गाँव की सीमा पर लगी सड़क
पर स्थित उसकी दुकान कई मायनों में महत्वपूर्ण थी – उस में पोस्टऑफिस था, वहां चाय
मिलती थी और इसके अलावा रोजमर्रा की आवश्यकता की तमाम डुप्लीकेट वस्तुओं के अलावा दूने दाम
पर आर्मी की घोड़ा रम भी उपलब्ध रहती थी. इस वक़्त दुकान खाली थी और आरसी-कंघी की मदद से मूंछों
का संवार हो रहा था.
बाहर
धरी लकड़ी की मरियल जुगाड़ बेंच पर यथासंभव खुद को एडजस्ट करते गिरधारी और परमौत बैठ
चुके थे और अपनी मूंछ को कंघी से सहलाते हुए मुच्छड़ बूढ़े ने अपने नाम को रिपीट
किया – “... शेरसिंह लमगड़िया.”
लमगड़िया
शब्द सुनते ही परमौत को अपने साथ पढ़ने वाला स्कूल का एक साथी भूपेन्द्र सिंह लमगड़िया
याद आ गया. वह बोल पड़ा –
“मल्लब
लमगड़ा के हुए आप?”
फ़ौजी
दुकानदार ने आरसी पर निगाहें टिकाये-टिकाये ही खिल्ली उड़ाने वाला भाव चहरे पर लाते
हुए तुरंत उत्तर दिया और बचेसिंह से रस्मी प्रतिप्रश्न किया –
“अब
लमगड़िया हुए तो लमगड़ा के ही हुए ... कौन सा साला इंग्लैण्ड-अमरीका में हो रहे ...
क्यों बचिया!”
बचेसिंह
पास के जंगलों से काटा गया घास का गठ्ठर अपने सिर पर लादे, एक टहनी की मदद से अपने
टीनएजर दिख रहे चंचल बछड़े को हंकाती घर ले रही एक सुंदर स्त्री को ताड़ रहा था और
उसने शेरसिंह की बात नहीं सुनी.
“वो
बात सही हुई आपकी ... बिलकुल सही हुई ...” तनिक झेंप कर परमौत ने कहा और डायलाग
शुरू करने की मुद्रा में गला खंखारा – “मेरे साथ एक पढ़ता था आपके यहाँ का लड़का. भुप्पी
मल्लब भूपेन्दर. मल्लब भूपेन्दर सिंह लमगड़िया. आप जानते होंगे शायद?”
“न्ना!”
“मल्लब
वो भी आपके ही वहां का हुआ लमगड़े का. आप का ही रिश्तेदार रहा होगा कोई मेरे ख़याल
से ...”
“अब
लौंडे-लबारों को जानने की उम्र जो क्या हुई मेरी ... हैं? ...” शेरसिंह ने परमौत
को दोबारा खारिज किया.
“वो
... उसके पिताजी जंगलात में थे मेरे ख़याल से ... फॉरेस्ट गार्ड टाइप कुछ ...”
आरसी-कंघी
नीचे रख दी गयी थी. और शेरसिंह लमगड़िया ने किंचित दिलचस्पी के साथ परमौत और
मोतियाबिंदी गॉगल धारे गिरधारी लम्बू पर अनुभवी निगाह डाली.
“अरे
कितने ही हुए हल्द्वानी में हमारे यहाँ के ... किस-किस को जो पहचानते हो अब!”
दीगर
था कि लमगड़ा नामक जिस टुइयां सी वीरभूमि के ज़िक्र पर समूचा वार्तालाप घिसट रहा था, उसमें
रहने वाले लमगड़िया परिवारों की गिनती एकाध दर्ज़न से ऊपर नहीं जा सकनी थी. शेरसिंह
की टेक थी कि वह किसी भूपेन्दर सिंह लमगड़िया को नहीं पहचानता और न ही उसके बाप को
जो फॉरेस्ट गार्ड जैसी दुकड़िया नौकरी करता रहा था.
शेरसिंह
की हठधर्मी से परमौत थोड़ा सा उखड़ गया और बोला – “क्या यार चचा ... ज़रा सा तो हुआ लमगड़ा.
मल्लब आपका ही कोई भतीजा-रिश्तेदार होगा भुप्पी ... है कि नहीं! ...”
“हाँ
हाँ ... मेरे बाबू भी जाते रहते थे वहां पहले.” - यह गिरधारी था – “ये जलना और सौरफटक के बीच पड़ने वाला हुआ लमगड़ा ...”
शेरसिंह
नाराज़ हो गया लगता था. उसने अपने उपकरण उठा लिए और मूंछों के गुणवत्ता-संवर्धन
कार्यक्रम में संलग्न होता हुआ ‘तुमसे कौन बात करे’ शैली में बोला –
“अरे
होगा यार कोई फॉरेस्ट-हॉरेस्ट गार्ड लमगड़िया ... कोई होगा तुम्हारा भुप्पी-फुप्पी ...
कितने ही हुए ... अब लगा लो अकेले नागा रेजीमेंट में ही नहीं भी होंगे सात-आठ सौ लमगड़िये
होंगे. सन बासठ्ठी में मेरे कमान्डेंट सैप भी लमगड़िया ही हुए ...”
शेरसिंह
के इस बण्डल वक्तव्य से जरा भी प्रभावित न होते हुए परमौत ने उठने का उपक्रम करते
हुए एक बार फिर से कहा – “आपकी ही रिश्तेदारी का कोई होगा वैसे भुप्पी ... पक्का
बता रहा हूँ आपको सूबेदार साब ...”
शेरसिंह
इस दफा थोड़ा सा नाराज हो गया लगता था. इस बात को ताड़कर दोनों बेंच से उठ गए और
बचेसिंह की तरफ देखने लगे. बचेसिंह उन्हें ही देख रहा था.
“चलें
बचदा अब ...” गिरधारी ने कहा.
“अरे
किस-किस को जो याद रखते हो यार. जहाँ देखो वहां ठैरे लमगड़ा वाले ... दुनिया भर में
हुए लमगड़िया लोग ...” शेरसिंह बड़बड़ाता जा रहा था.
आगे
के रास्ते के लिए शेरसिंह दुकानदार की बातचीत ने अच्छी खासी सामग्री उपलब्ध करा दी थी.
बचेसिंह ने अगले गाँव तक पहुँचते-पहुँचते शेरसिंह के चरित्र का उम्दा पोस्टमार्टम
किया. उसने बताया कि शेरसिंह एक झगड़ालू इन्सान के तौर पर समूचे इलाके में कुख्यात है
और चीज़ों को महंगा बेचने की उसकी आदत के बावजूद लोग उसे सहन करते हैं क्योंकि आसपास
के दस-बारह गाँवों में उसकी अकेली दुकान है. इसके अलावा यह भी खुलासा किया गया कि
शेरसिंह को अपने ऐसे पड़ोसियों की ज़मीनें दबा लेने का कुटैव भी लगा हुआ है जो नौकरी
वगैरह के सिलसिले में एकाध पीढ़ियों से मैदानी इलाकों में जा बसे हैं और जिनका गाँव
आना चार-छः साल में हो पाता है. शेरसिंह से विवाद किया जाय तो वह पहले तो अपनी
लाइसेंसी बन्दूक से आतंक फैलाने की कोशिश करता है और अगर उससे काम न बने तो
बागेश्वर जाकर कचहरी में केस ठोक आता है कि बेटा अब लड़ते रहो मुक़दमा.
पिछले
दो दिनों से गाँव के जीवन की दिलचस्प और आँखें खोल देने वाली तफसीलों ने परमौत को
बेचैन कर दिया था. इसके पहले उसे लगता था कि सारी परेशानियां हल्द्वानी जैसे नगरों
में रहनेवालों को होती होंगी लेकिन यहाँ आकर वह देख रहा था कि हर किसी के पास ऐसी समस्याओं
और तकलीफों की पोटली थी जिसे थोड़ी सी भी सहानुभूति दिखाए जाते ही खोल देने का
रिवाज़ था. ये तकलीफें बहुत छोटी थीं लेकिन उनके समाधान न तो कहीं दिखाई देते थे न
ही उन्हें खोजने की इच्छाशक्ति किसी के भीतर नज़र आती थी. यह दूसरा ही कोई पहाड़ था
जो पहाड़ की उस छवि से कहीं अलहदा और कहीं अधिक खौफनाक था जो उसने अपने भीतर बना रखी
थी.
वे
एक तनिक खड़ी चढ़ाई को पार कर खुले में पहुंचे ही थे कि परमौत ने अचानक अपनी निगाह सामने
की तरफ की. चटख नीले आसमान के नीचे हिमालय की धवल श्रृंखला पसरी हुई थी. इस अनुपम
दृश्य ने उसकी आँखों को अकल्पनीय ठंडक पहुंचाई. उसे ठिठका देख पीछे से आ रहे बचेसिंह
और गिरधारी भी थम गए. गिरधारी अचानक जैसे किसी मन्त्र से बंध गया. उसने अपना लद्धड़ चश्मा
उतार कर जेब में डाला. दोनों काफी देर तक चुपचाप अपलक प्रकृति के चमत्कारी दृश्य को
देखते रहे. बचेसिंह को बागेश्वर से सौदा-सुल्फा लेकर आ रहे दोएक परिचित मिल गए थे
और वे मिलकर बीड़ी धूंसने में व्यस्त हो गए थे.
“गजब्बी
यार परमौद्दा ... अहा क्या लाइफ हुई साली पहाड़ की यार ...”
गिरधारी
के इस वक्तव्य ने परमौत के भीतर शेरसिंह के प्रति उपज रही खीझ को थोड़ा सा भड़का
दिया.
“अबे
घंटा लाइफ हुई! गिरधारी बेटे तेरे कुछ समझ में आता भी है या भूसा जैसा भर के ला
रहा है दिमाग में. ये साली कोई लाइफ दिख रही है तुझ को? हैं? जिसको देखो साला डाड़ मार
रहा है – ये नहीं है, वो नहीं है, डाक्टर नहीं है, दुकान नहीं है, नौकरी नहीं है,
खाना नहीं है, स्कूल नहीं है ... हट पैन्चो! ये कोई लाइफ हुई साली! ...”
परमौत
अपने धत-पुराण को आगे बढ़ाता उसके पहले ही गिरधारी बोल पड़ा – “कह तो तू ठीक रहा हुआ
यार परमौद्दा लेकिन ऐसा हवा-पानी हल्द्वानी में जो क्या मिल सकने वाला हुआ. हैं?
ठीक हुआ गरीब हुए यहाँ के लोग जरा. और इतने गरीब हुए कि मेरे जैसा दलिद्दर भी अपने
को सेठजी जैसा चिता रहा हुआ अपने आप को लेकिन ... और ये देख” उसने हिमालय की तरफ
इशारा करते हुए जोड़ा – “...शिबजी के ऐसे दरसन तो साले पहाड़ में ही हो सकने वाले
हुए. मल्लब ...”
“हवा-पानी-हिमालय
से पेट जो क्या भरने वाला हुआ गिरधारी गुरु! ...”
एक
लम्बी सांस लेकर परमौत ने अपना वाक्य दोहराया – “हवा-पानी-हिमालय से किस्सी का बी पेट
जो क्या भरने वाला हुआ गिरधारी गुरु!”
बचेसिंह
अपने परिचितों को उनके समीप ला चुका था. उनकी भाव-मुद्राओं से ऐसा लग जाता था कि वे
इन हल्द्वानी-निवासियों को बड़ा धन्नासेठ समझ रहे थे.
“गोपालदा
कह रहे हैं एक-एक चाय लगा लेते हैं इनके क्वाटर में कर के. बस ये नीचे हुआ इनका घर
...” कहते हुए बचेसिंह ने सौएक मीटर नीचे दिखाई दे रहे घरों के समूह की तरफ इशारा
किया.
ऐसा
कोई भी प्रस्ताव दिए जाने की स्थिति आने पर परमौत को अपनी कलाईघड़ी पर निगाह डालने
की नई-नई आदत लगी थी. उसने वही किया.
“बारह
पच्चीस!” उसने जैसे अपने आप से कहा. फिर वह समुचित सम्मान के साथ बचेसिंह और उसके
परिचितों से मुखातिब होकर बोला – “चाय की तो जब कहते हो यार बचदा ... हम्मेसा रेडी
हुए हम ... हिटो.”
झिंगेड़ी
जैसे ही पटांगणों वाले मकानों वाला गाँव था गोपालसिंह का. दरवाज़े की ओट से
आगंतुकों को सकुचाई सी देख रही पत्नी को छः-सात लोगों के लिए चाय बनाने को कहकर
गोपालसिंह पटांगण में बिखरे चौके, घास-लकड़ी इत्यादि के बंडलों और बोरियों वगैरह को
समेटता हुआ, अपना संकोच छिपाने का प्रयास करता हुआ कहने लगा – “गाँव हुआ यहाँ साहब
... ऐसे ही रहने वाला हुआ सब ... खाली हुई जिन्दगी यहाँ की. अब जैसा भी हुआ फिर
...”
बढ़िया
जमावड़ा लग चुका था. गिरधारी लम्बू, परमौत, बचेसिंह और गोपालसिंह के अलावा उनके साथ
आये लोगों में गाँव के इकलौते स्कूल का इकलौता मास्टर हरीश और बागेश्वर के आगे
कहीं किसी गाँव के प्राथमिक सेवा केंद्र में वार्डबॉय की नौकरी करने वाला जमुनादत्त
जोशी शामिल थे. गाँव में रहनेवाले दो-तीन अन्य सज्जन दर्शक-श्रोता के रूप में पटांगण
की चारदीवारी पर पहले से स्थापित थे और फिलहाल कौतुहलवश काला चश्मा पहने गिरधारी
के लम्बत्व और और परमौत की देसी टाइप की हिन्दी पर समुचित हैरत कर रहे थे.
बचेसिंह
ने पहले नब्बू डीयर की बीमारी का आधिकारिक बुलेटिन जारी किया उसके बाद उसके फालिज-खाए
पिता का. अगला वक्तव्य इन दोनों पुरुषों की टहल में लगी नब्बू डीयर की माँ को लेकर
था जिसके बाद समवेत रूप से “हे भगवान ... हे ईश्वर ... बेचारे” अर्थात शिबौशिब-केन्द्रित
अनेक भाव अलग-अलग कंठों से प्रस्फुटित हुए. माहौल अधिक मनहूस बनता इसके पहले ही चाय आ
गयी.
(जारी)
3 comments:
बढ़िया चल रही है रेल छुक छुक...
. . समुचित हैरत.
बहुत बढ़िया।
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