स्पेशल चाइल्ड हैं भारत और पाकिस्तान
- वुसतुल्लाह ख़ान
जब भी विभाजन का राउंड फिगर आता है- जैसे, 40, 50, 60, 70 तो हमारे अंदर का
इतिहासकार जाग उठता है.
सबसे पहले उन बूढ़ों की खोज लगाने की होड़
शुरू हो जाती है जिन्होंने विभाजन ख़ुद देखा या भोगा हो ताकि उनकी यादें रिकॉर्ड
करके ताज़े हरे या गेरुए गिफ़्ट पैक में बांध के नई खोज़ की सुनहरी फीते लपेट के
पेश किया जा सके.
मगर जैसे-जैसे समय गुजरता जा रहा है, ऐसे बूढ़े कम होते जा रहे
हैं और जो हैं भी उनकी उम्र 1947 में ज़्यादा से ज़्यादा 10-15 बरस होगी. बहुत
लोगों को बस इतना याद है कि अब्बा या दादा ने एक दिन कहा कि चलो और हम फिर सब निकल
खड़े हुए.
ट्रेन में नरसंहार हुआ था कि नहीं? मुझे तो याद नहीं है पर
अम्मा बताती हैं कि उन्होंने मुझे और ख़ुद को लाशों के बीच छुपा लिया था. अब मुझ
जैसा पत्रकार ज़ोर लगा देता है- और बताइए और क्या याद है? थोड़ा और सोचिए.
हां,
ये
याद है कि जिन्ना साहब एकाध बार हमारे घर आए थे और मेरा गाल पकड़कर खींचा था.
गांधी जी को भी एक बार दूर से देखा था. और ... और कुछ याद है? नहीं और तो नहीं कुछ, बस फिर हम यहां गए और अब्बा
ने स्कूल में दाख़िला करवा दिया.
जब पांच वर्ष बाद विभाजन की 75वीं सालगिरह
आएगी तो ऐसे बूढ़ों का मिलना और मुश्किल हो जाएगा. फिर नए पत्रकार को इस तरह के
सवालों से काम चलाना पड़ेगा- अच्छा तो अब्बा ने देहांत से पहले और क्या-क्या बताया
था? क्या-क्या हुआ था उस समय?
मैं विभाजन भोगने वाले जिस व्यक्ति को जानता
हूं उनका सात साल पहले इंतक़ाल हो गया. वो मेरे वालिद थे. मगर उनका न सियासत से
कोई लेना-देना था और न ही समाज सेवा से. बस उन्होंने ये बताया कि बात-बात पे अब्बा
मियां यानी मेरे दादा की झिड़कियों और मार से तंग आके एक दिन टॉक से अकेले दिल्ली
आ गए.
एक दिन ऐसे ही सड़क पर लोग घूम रहे थे कि
भगदड़ मच गई. क्यों मची ये भी पता नहीं चला. शायद निज़ामुद्दीन स्टेशन था. वो एक
ट्रेन में बैठ गए और ट्रेन चल पड़ी. ट्रेन कहां जा रही थी ये भी नहीं मालूम. जब
बीकानेर आया तो सब उतर गए.
मेरे वालिद भी उतर गए. फिर सब एक और ट्रेन में
चढ़ गए. मेरे वालिद भी चढ़ गए. फिर पता चला कि पाकिस्तान आ गया. कराची में ट्रेन
के डिब्बे ख़ाली हुए तो मेरे वालिद भी उतर गए और कराची की सड़कों पर उसी तरह
लूर-लूर घूमने लगे जैसे दिल्ली में घूम रहे थे.
मेरे वालिद जैसे लाखों लोग थे जिन्हें नहीं
मालूम था कि वो लाहौर, गुजरावाला, कराची, दिल्ली, जमशेदपुर या भोपाल क्यों
छोड़ रहे हैं. बस बाक़ी जा रहे थे तो वो भी चल पड़े. आज भी यह सब कुछ तो हो रहा
है.
चंद को छोड़ के हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में
करोड़ों नहीं जानते कि दोनों देश 70 साल बाद भी क्यों लड़ रहे हैं. बच्चे तो 18
साल की उम्र में बालिग हो जाते हैं पर देशों के बालिग होने की उम्र क्या है?
मुझे तो लगता है कि हम दोनों पीढ़ी-दर-पीढ़ी
आपसी शादियों और नफ़रतों की परंपरा और पॉलिटिकल जिनैटिक गबड़हूत के सबब उस दर्जे
पर पहुंच गए हैं कि स्पेशल चाइल्ड कहलाए जाने के लायक हैं. 70 वर्ष के शरीर में
चार साल के बच्चे का दिमाग़. यही होता है न स्पेशल चाइल्ड?
(http://www.bbc.com से साभार)
4 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 109वां शहादत दिवस - कनाईलाल दत्त - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 15 नवम्बर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर
बहुत सही फरमाया है आपने, अब तक तो समझ आ जानी चाहिए थी..मेरे माता-पिता भी कारवां में शामिल होकर पैदल आये थे पठानकोट से, बहुत दर्दभरी कहानियाँ सुनायीं हैं उन्होंने, बंटवारे का दर्द अब भी दिलों में है शायद वही बड़ा होने नहीं दे रहा दोनों देशों को.
Post a Comment