Thursday, February 15, 2018

हमने पकड़ी पत्रकारिता की वह अंगुली - 2


हेमवतीनंदन बहुगुणा के साथ अशोक जी
मई 2017 की एक दोपहर जब में यह लिखने बैठा हूं तो 21 सितम्बर 1977 को यानी चालीस वर्ष पहले बनायी मेरी एक खबर की जीर्ण-शीर्ण कॉपी मेरे सामने खुली है, जिस पर अशोक जी कलम की लाल स्याही अब भी चमक रही है. समाचार एजेंसियों के तार पढ़ने के बाद मैंने खबर लिखी थी-

“मद्रास, 21 सितम्बर (स)- प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने आज यहां गरीब और पिछड़े लोगों की उन्नति के लिए जनता सरकार और अन्नाद्रमुक सरकार के समान सोच पर खुशी व्यक्त की. प्रधानमंत्री श्री देसाई पुलिस कर्मचारियों के लिए बनाई गई आवास कॉलोनी के उद्घाटन समारोह में बोल रहे थे.

“उन्होंने कहा कि यद्यपि केंद्र तथा तमिलनाडु में भिन्न-भिन्न पार्टीयों की सरकारें हैं, लेकिन समान नीतियां होने के कारण आम आदमी की समस्याओं को दूर करने में किसी तरह की दिक्कात पैदा नहीं होगी. दोनों पार्टीयां गांधी जी के सिद्धांतों में आस्था रखती हैं.

“प्रधानमंत्री ने कहा कि जनता के लिए पुलिस भय का कारण नहीं होनी चाहिए. पुलिस वालों को चाहिए कि वे जनता का विश्वास प्राप्त करें. उन्होंने आगे कहा कि जब तक समाज पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो जाता, तब तक असामाजिक तत्वों के प्रति कड़ा रुख अपनाना पड़ेगा.

“इस समारोह की अध्यक्षता मुख्यमंत्री एम जी रामचंद्रन कर रहे थे.”

मेरी कॉपी के उन्हीं  छोटे पर्चों पर यहां-वहां काट-छांट और जोड़ से अशोक जी ने जो खबर मेरे सामने तैयार की थी वह ऐसी बनी-

“मद्रास, 21 सितम्बर (स)- प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने आज यहां इस पर खुशी जाहिर की कि गरीब और पिछड़े लोगों की उन्नति के लिए जनता सरकार और अन्नाद्रमुक सरकार की एक सी सोच है. प्रधानमंत्री श्री देसाई पुलिस के लिए बनायी गई अन्नामलाई नगर की 60 लाख रु की बस्ती का उद्घाटन कर रहे थे. समारोह के अध्यक्ष तमिलनाडु के मुख्यमंत्री श्री जी रामचंद्रन थे.

“उन्होंने कहा कि यद्यपि केंद्र तथा तमिलनाडु में भिन्न पार्टियों की सरकारें हैं, लेकिन जन साधारण की भलाई में दोनों सहमत हैं. दोनों की गांधी जी के सिद्धांतों में आस्था है.

“प्रधानमंत्री ने कहा कि पुलिस को अपराधों की जांच में मारपीट न करनी चाहिए. उन्हें शांति प्रिय नागरिकों की रक्षा करनी चाहिए और समाज विरोधियों पर अंकुश रखना चाहिए. यदि समाज के शत्रुओं की बढ़ती होगी, जैसी पहले हो रही थी, तो हमें बरबादी का सामना करना होगा.”

इसी कॉपी के साथ उसी दिन रॉयटर’ (पीटीआई) से अनूदित खबर की भी मेरी कॉपी संलग्न है- “वाशिंगटन-21 सितम्बर (रायटर)- सैक्रीन के प्रयोग पर कम से कम 18 महीनों के लिए प्रतिबंध लगाये जाने के प्रस्ताव को स्थगित करने के लिए वाणिज्य समिति के प्रतिनिधियों के सदन ने एक बिल पारित करके सीनेट (फुल हाउस) को भेज दिया है.

“पिछले सप्ताह सीनेट ने ऐसा ही एक बिल आठ के मुकाबले 87 मतों से पारित कर दिया था. डाइबेटिक्स, डाइटर्स तथा डाइट फूड इण्डस्ट्री की ओर से इसका विरोध किया गया. उनका कहना था कि चीनी का दूसरा कोई स्वीकृत पर्याय नहीं है. इन विरोधों के कारण सदन का प्रतिबंध स्थगित करना पड़ा.

“दोनों बिलों में मुख्य अंतर यह है कि सीनेट द्वारा पारित बिल के अनुसार सैक्रीन युक्त पदार्थों में एक चेतावनी लगी होनी चाहिए, जबकि समिति के अनुसार यह चेतावनी वस्तुओं की बजाय उन दुकानों पर लगी होनी चाहिए, जहां सैक्रीन वस्तुएं बेची जाती हों.”

उसी कागज पर अशोक के चुस्त सम्पादन-संशोधन के बाद यही खबर यूं पढ़ी जा रही है- “ वाशिंगटन-21 सितम्बर (रायटर)- सैक्रीन के प्रयोग पर कम से कम 18 महीनों के लिए प्रस्तावित प्रतिबंध स्थगित करने के विधेयक को प्रतिनिधि सभा की वाणिज्य समिति ने पास करके सीनेट को भेज दिया है.

“पिछले सप्ताह सीनेट ने ऐसा ही बिल आठ के मुकाबले 87 मतों से पास किया था.  मधुमेह के रोगियों, वजन घटाने वालों तथा पथ्य उद्योग की ओर से इसका विरोध किया गया. उनका कहना था कि सैक्रीन के अलावा चीनी का दूसरा कोई पर्याय नहीं है. इस विरोध के कारण प्रतिबंध स्थगित करना पड़ा.

“सीनेट द्वारा स्वीकृत बिल के अनुसार सैक्रीन युक्त पदार्थों में, उससे हानि की चेतावनी लगी होनी चाहिए, जबकि समिति के अनुसार यह चेतावनी वस्तुओं के बजाय उन दुकानों पर लगी होनी चाहिए, जहां सैक्रीन की वस्तुएं बेची जाती हों.”

कहने की जरूरत नहीं कि अशोक जी के सम्पादन में दोनों खबरें न केवल स्पष्ट हो गयी हैं, बल्कि सरल और बोलचाल के शब्दों ने भाषा को भी अनूदित की बजाय मौलिक बना दिया है. मुझसे छूट गये मूल खबर के कुछ तथ्य उन्होंने जोड़ दिये हैं. कई बार जब हम जल्दबाजी में होते तो समझ में न आने वाली बातें छोड़ देते या गोल-मोल लिख देते. अशोक जी की पैनी नजर सबसे पहले वहीं जाती और लाल कलम उसी जगह टिकती.

1977 से जो नयी टीम वे जोड़ रहे थे, उसमें से लगभग हर एक युवा को वे ऐसे ही मांज रहे थे. कभी लेख अनुवाद करने को पकड़ा देते, कभी कुछ लिख लाने को कहते, कभी डेस्क ड्यूटी के बावजूद रिपोर्टिंग के लिए रवाना कर देते.

***

1986 में स्वतंत्र भारतके एग्रो कम्पनी के हाथों बिक जाने के बाद विधान सभा मार्ग वाला दफ्तर खाली करने के दिन अशोक जी के हाथों की लिखी जो पर्चियां मैंने बटोर कर सम्भाल ली थीं, उनमें से कुछ का यहां उल्लेख स्पष्ट कर देगा कि अपने अखबार की भाषा और तथ्यों पर उनकी कितनी पैनी दृष्टि रहती थी, कि वे किस ढंग से सम्पादकीय विभाग को निर्देशित करते रहते थे. इन पर्चों में किसी में तारीख और वर्ष पड़े हैं, किसी में नहीं. हर नोट में अपने हस्ताक्षर करना और ज्यादातर में सबसे नोट करने को लिखना नहीं भूले हैं-

“कंबोडिया को कांबुजलिखें. शुरू में ब्रैकेट में (कंबोडिया) भी लिख दें. अंग्रेजी में स्पेलिंग कांबुजिएआयी है, जो वास्तव में कांबुजहै”

“जल स्तर बढ़ने के बजाय कृपया केवल, जल बढ़ने, बाढ़ आई. Flood के लिए बाढ़, बहिया. रवि राय, सिद्धार्थ शंकर राय, सत्यजित राय लिखें. Ray के लिए रेनहीं रायलिखें. विवाह समाचार में चि., आयु. आदि विशेषण न लगाएं.  सब लोग देखें व नोट करें.”

20 फरवरी 1976 का यह नोट एक वरिष्ठ सम्पादकीय साथी के नाम से है- “19 फरवरी के स्वतंत्र भारतमें आई एन एस उदयगिरिशीर्षक समाचार आपका किया हुआ है. इसमें आपने आई एन एस उदयगिरि को मालवाही पोत लिखा है. सम्भवत: यह फ्रिगेट शब्द का अनुवाद है. फ्रिगेट मालवाही नहीं, जंगी जहाज होता है. बाद के पैराग्राफ में इसका जो विवरण है, उससे भी आपको यह समझ में आ जाना चाहिए था कि यह जंगी जहाज है. आपके जैसे पुराने सहकारी सम्पादक से अंग्रेजी की ऐसी भद्दी भूल की अपेक्षा नहीं की जाती, खास कर ऐसे शब्द की जो प्रतिदिन के प्रयोग का हो.”

बिना तारीख के एक नोट में निर्देश है- “केसरी दाल नहीं, खेसारी लिखें. काला बाजार के बजाय पहले से चोर बाजार प्रचलित है, अब चोर बाजार ही लिखें. माह नहीं, मास.”

11 जनवरी 1978 को सम्पादकीयको सम्बोधित नोट- “आज शाह आयोग की रिपोर्ट में यह पंक्ति गई है कि इसकी कारवाई फौजदारी नहीं बल्कि दीवानी मुकदमे के समान है. यह गलत है. होना चाहिए फौजदारी और दीवानी के समान नहीं है. डाक में सही गया है. यद्यपि यह हिंदुस्थान समाचार की रिपोर्ट है, किंतु इसका सावधानी से एडिट होना चाहिए. यदि अंग्रेजी तार और डाक की अपनी खबर देख ली गई होती तो यह गम्भीर भूल न होती.”

 13 जनवरी 1978 का नोट- “पूरे पेज का बैनर शीर्षक केवल अति महत्त्व के समाचारों के लिए सुरक्षित रखना चाहिए. आज के अंक में प्र मं की प्रेस कांफ्रेंस पर उक्त बैनर उचित न था.”

इसी तारीख का एक और पर्चा है- “कई बार अनावश्यक रूप से नेताशब्द का प्रयोग होता है, जैसे जनता पार्टी के नेता, अमुक छात्र नेता. नेता के बजाय यदि पदाधिकारी हो तो पद का अन्यथा केवल छात्र या पार्टी का उल्लेख होना चाहिए.”
17 नवम्बर 1976 का निर्देश-“कलकत्ता में नागरी प्रचारिणी सभा के समारोह और हिंदी साहित्य सम्मेलन की खबरें कृपया मुझे दिखा कर दी जाएं. रत्नाकर पाण्डे और सुधाकर पाण्डे के प्रोपेगैण्डा से हमें होशियार रहना चाहिए.”

20 अप्रैल की तारीख (सन दर्ज नहीं) में –“अपने पत्र में जालिया नटवरलालशीर्षक कई बार देखने में आया. शीर्षक या समाचार में जालिया, खूनी, या चोर जैसे शब्द नहीं देने चाहिए. सजा न होने तक ये मुजरिम या अभियुक्त हैं. कृपया ध्यान रखें.”

22 अक्टूबर, 1976- “हुआ कुओ फेंग के संक्षिप्त में फेंग नहीं, ‘हुआलिखना चाहिए. चीनी नाम का प्रथम ही लिखा जाता है- यथा, माओ, चाओ.”

“पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि नहींशीर्षक रेखांकित नोट भी शायद उसी 22 अक्टूबर का है- “केवल अंत्येष्टि काफी है, पार्थिव शरीर की ही अंत्येष्टि होती है, सूक्ष्म की नहीं.”

आठ जून, 1976- आज सबेरे गवर्नरों की नियुक्ति की खबर नहीं है. तार पर रात 11 बजे का समय पड़ा है. ऐसी खबर, खासकर छोटी, 11 बजे के बाद भी ली जानी चाहिए. कानपुर में शम्भू बंगाली के गोली से मारे जाने की खबर प्रथम पेज पर जानी चाहिए. पृ 8 पर भी यह डबल कालम पहली खबर होनी चाहिए थी.”

17 अगस्त 1978 का टाइप किया हुआ हस्ताक्षरित नोट- “राज्य सभा में हिंदी थोपने के प्रयास की तीखी आलोचना. पृ 2 पर हेडिंग. इस प्रकार के शीर्षक ठीक नहीं. इससे ध्वनि निकलती है कि हम यह मानते हैं कि हिंदी थोपी जा रही है. होना चाहिए- हिंदी थोपने का आरोप, या हिंदी का विरोध. वाक्य का गठन भी ठीक नहीं, ‘राज्य सभा में’, ‘प्रयास की के बाद आना चाहिए. वर्ना लगता है कि राज्य सभा में हिंदी थोपी जा रही है.”


एक सम्पादक की पत्रकारिता, खबरों के चयन, प्रस्तुतीकरण, भाषा, शब्द, और देश-दुनिया के प्रति सजगता, सामाजिक सतर्कता एवं चिंता का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है? ये चिंताएं और सतर्कताएं आज कहां हैं? वे क्यों गायब हो गईं?

(जारी)

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुन्दर। आज कहाँ पहुँच गयी है पत्रकारिता?