Friday, February 16, 2018

हमने पकड़ी पत्रकारिता की वह अंगुली - 3


सम्पादक की कलम
सन 1865 में एक अंग्रेज व्यापारी जॉर्ज एलन ने इलाहाबाद से अंग्रेजी अखबार द पायनियर शुरू किया था. प्रसिद्ध लेखक रुडयार्ड किप्लिंग ने अपनी युवावस्था में इसमें काम किया. बाद में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बने विंस्टन चर्चिल कभी इसके युद्ध सम्वाददाता रहे थे. जुलाई, 1933 में द पायनियरभारतीय उद्यमियों के एक सिण्डिकेट के हाथों बिक गया और लखनऊ से छपने लगा. इसके संचालक मण्डल में मौरावां के कुंवर गुरुनारायण, लाला हरीराम सेठ, कोटरा के राजा विश्वेश्वर दयाल, कोयल के राजा युवराजदत्त सिंह, प्रयागपुर के राजा वीरेंद्रविक्रम सिंह जैसे हिंदी प्रेमी शामिल थे. इन हिंदी प्रेमियों ने द पायनियरके साथ आजादी की पहली सुबह से एक हिंदी अखबार शुरू करने की ठानी. ऐसे अखबार का नाम स्वतंत्र भारतसे सुंदर एवं सटीक और क्या हो सकता था.

यह नाम रखने में एक दिक्कत थी कि सम्पादकाचार्य अम्बिका प्रसाद बाजपेयी कलकत्ता से स्वतंत्रनाम से अखबार निकालते थे. संयोग से उन दिनों वह बंद था. बाजपेयी जी ने अनुमति दे दी. सम्पादक की तलाश अशोक जी के नाम पर पूरी हुई, जो तब वाराणसी में बाबू विष्णुराव पराड़कर और कमलापति त्रिपाठी के साथ संसारपत्र में काम कर रहे थे. संसार पहले दैनिक और साप्ताहिक था. अशोक जी इनके साथ ही प्रकाशित होने वाले ग्राम संसारके सम्पादक भी थे. पराड़कर जी काशी के बलदेव प्रसाद गुप्त के प्रसिद्ध अखबार आजके सम्पादक हुआ करते थे. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलनमें आज बंद हो गया तो गुप्त जी ने 1943 में संसारशुरू कराया था. गुप्त जी से अशोकजी की रिश्तेदारी थी और वही उन्हें संसारमें लाये थे. 1944 में  कुछ समय के लिए अशोक जी दैनिक अधिकारका सम्पादन करने लखनऊ भी आये थे.

बनारस के एक सम्पन्न अग्रवाल परिवार में जन्मे अशोकनाथ, गांधी जी के प्रभाव में आकर बचपन में सिर्फ अशोक और बाद में अशोक जी बन गये थे. काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बी ए और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इतिहास में एम ए करने के बाद वे पीएचडी करके अध्यापन को पेशा बनाना चाहते थे. उन्होंने हरिश्चंद्र हाईस्कूल, काशी में पढ़ाने के साथ शोध कार्य भी शुरू कर दिया था लेकिन भविष्य उनके लिए दूसरी ही भूमिका तैयार कर रहा था. काशी के कुछ मित्रों ने, जिनमें बेधड़क बनारसी जैसे हास्य कवि भी थे, ‘तरंगनाम से हास्य-पत्रिका निकालने की ठानी और अशोकजी को भी उसके सम्पादन में शामिल कर लिया. फिर तो पीएचडी और अध्यापकी धरी रह गयी. अध्यापकी छोड़ने का एक कारण उनकी गले की बीमारी भी थी, जिसके इलाज में डॉक्टरों ने कम बोलने वाला पेशा अपनाने की सलाह दी थी. शैक्षिक जगत के नुकसान का तो पता नहीं, लेकिन हिंदी पत्रकारिता को एक समर्पित सेवक एवं प्रवर्तक अवश्य मिला.

अशोकजी ने स्वयं लिखा है कि “पायनियरके पहले भारतीय सम्पादक सुरेंद्रनाथ घोष थे. स्वतंत्र भारतके सम्पादक के लिए मेरा नाम उन्होंने ही कुंवर गुरुनारायण के सामने रखा था और प्रत्येक कदम पर उनका स्नेहपूर्ण पथ-प्रदर्शन स्वतंत्र भारतको मिला. पायनियरमें सम्पादकीय स्वतंत्रता और निष्पक्षता की जो उदात्त परम्परा थी, वह स्वतंत्र भारत को दान में मिली.’’

पंद्रह अगस्त, 1947 को देश की स्वतंत्रता की पहली प्रात: वेला में स्वतंत्र भारतका पहला अंक निकालना कितना रोमांचक और हर्षोल्लास का अवसर रहा होगा. और भी रोमांचित हो जाता हूं यह सोच कर कि सम्पादक अशोक जी तब 31 वर्ष के रहे होंगे. अगस्त 1977 में जब पहली बार उनके सामने खड़ा था तो मैं 21 वर्ष का था और 61 साल के अशोक जी को देख रहा था. हिंदी पत्रकारिता के 30 साल के ऊबड़-खाबड़ सफर ने उनसे खूब वसूली कर ली थी.

कैसी रही होगी अशोक जी की पहली सम्पादकीय टीम! हमें बताया गया कि कुल छह लोग थे और शायद कोई भी अनुभवी न था. उनमें से दो धुरंधरों से बाद में मिलने का सौभाग्य मिला- उपेंद्र बाजपेयी और अखिलेश मिश्र. उपेंद्र जी अम्बिका प्रसाद बाजपेयी के सुपुत्र थे जो स्वतंत्र भारतके बाद दिल्ली जाकर हिंदुस्तान टाइम्समें बरसों-बरस राजनीतिक सम्वाददाता और विश्लेषक रहे. श्रमजीवी पत्रकार यूनियन में सक्रिय और मीडिया सेण्टर के संथापकों में रहे. अखिलेश मिश्र प्रखर विचारक, अपनी भाषा-बोली-मुहावरे के योद्धा, जनता के खांटी पत्रकार और सम्पादकीय सरोकारों के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे. उन्होंने प्रचुर मात्रा में सार्थक लेखन किया. उन्हें जानने के लिए उनकी एक ही किताब मिशन से मीडिया’ (सम्पादन-वन्दना मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) काफी होगी.

एक और हस्ती से मिलने और थोड़ा जानने का मौका मिला- एस एन निगम, जो मुंशी जी के नाम से बेहतर जाने जाते रहे. ठीक मालूम नहीं कि मुंशी जी स्वतंत्र भारतकी शुरुआती टीम में थे या बाद में शामिल हुए. 1977-78 में जब हम उनसे मिले तब वे महानगर के अपने घर में थियोसॉफिकल सोसायटी चलाते थे जिसका विशाल पुस्तकालय हमें आकर्षित और आतंकित भी करता था. वे स्वतंत्र भारतके समाचार सम्पादक थे जब दैनिक जागरण ने अपना अंग्रेजी दैनिक डेली नेशनशुरू करने के लिए उन्हें सम्पादक के रूप में कानपुर बुलाया. जागरण के सम्पादकीय साथियों ने जब उन्हें वहां के हालात बताये तो वे मालिकों से यह कह कर लखनऊ लौट आए कि पहले पत्रकारों की स्थितियां ठीक करिए. देश-सेवा में बाधा न हो इसलिए सन्तान नहीं पैदा करने की शपथ ली और निभायी. स्वतंत्रता सेनानी को मिलने वाली पेंशन लेने से इनकार कर दिया था. उनकी पत्नी सावित्री निगम एलआईसी का काम करके खर्च निकालती थीं. एक बार किसी शुभेच्छु, नगर महापालिका कर्मचारी ने उनका गृह-कर कम कर दिया तो लड़ने चले गये थे. मेडिकल कॉलेज में जब उनकी मृत्यु हुई तो मैंने उनकी वृद्ध पत्नी को मुंशी जी के नेत्रदान के संकल्प को पूरा कराने के लिए दौड़ते-गिड़गिड़ाते देखा था.

हमने इन विद्वान पत्रकारों और दुर्लभ गुणी मनुष्यों को उनकी वृद्धावस्था में देखा यद्यपि उनकी प्रखरता शायद ही मद्धिम पड़ी हो. वे खूब पढ़ने-लिखने वाले, देश-दुनिया के हालात से वाकिफ, अपनी सांस्कृतिक जड़ों से सिंचित, सामाजिक-राजनैतिक हालात से चिंतित, निडर एवं स्पष्ट वक्ता और अपने जीवन-मूल्यों से प्रतिबद्ध पत्रकार थे. एक बार मुंजी जी के घर की छत पर बैठे हुए मैंने कपूरथला चौराहे की दिशा बिल्कुल गलत इंगित कर दी थी. मुंशी जी ने सही किया तो मैं कह बैठा- मुझे दिशा-भ्रम हो गया.उन्होंने फौरन टोका था- आपको दिशा-ज्ञान है? भ्रम उसे हो सकता है जिसे ज्ञान हो.

एक दिन किसी अखबार के बैनर शीर्षक में किसी लम्बी यात्रा के लिए महायात्राशब्द देख कर अखिलेश जी नये पत्रकारों की अज्ञानता पर बहुत देर तक आवेश में बोलते रहे थे- इन्हें पता ही नहीं कि महा उपसर्ग का अर्थ क्या होता है. महायात्रा माने अंतिम यात्रा, शव यात्रा.आज के बहुत सारे हिंदी पत्रकारों को उपसर्गऔर प्रत्यय भी मालूम न होगा कि क्या होता है.

तो, ऐसे पत्रकारों की टीम का नेतृत्व किया था अशोक जी ने. क्या माहौल रहता होगा, कैसे विचार-विमर्श और तर्क-वितर्क होते होंगे. सम्पादकीय लिखते हुए, शीर्षक बनाते समय बहस होती होगी और कभी तकरार भी. 15 अगस्त, 1947 के पहले अंक का सम्पादकीय क्या हो, इस पर प्रबंधन की राय बनी कि द पायनियर के लिए अंग्रेजी में लिखा गया सम्पादकीय हिंदी में अनुवाद करके दे दिया जाए. अशोकजी इससे सहमत नहीं हुए. उन्होंने स्वतंत्र भारतके लिए अपना अलग सम्पादकीय लिखा-

“मुंह में हंसी और हृदय में रुदन लेकर हम आज स्वतंत्रता का स्वागत कर रहे हैं. सदियों से अवरुद्ध स्वाधीनता-मंदिर के द्वार खुले भी तो इष्ट देवता की मूर्ति खण्डित पड़ी है. हमें मंदिर खुलने का आनंद है, पर मूर्ति खण्डित होने का शोक भी कम नहीं है..... हम चाहते हैं आनंद में मत्त होना, उल्लास में डूब जाना और उमंगों में बहना, पर लाहौर की ज्वालाएं, और कलकत्ते-अमृतसर के आर्त्तनाद हमें ऐसा करने नहीं देते...”

छोटे आकार के, पांच कॉलम वाले छह पृष्ठों के स्वतंत्र भारतके पहले पन्ने पर तिरंगा थामे प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू की फोटो थी, राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में हुई संविधान सभा की बैठक की खबर थी और संयुक्त प्रांत (तब का उत्तर प्रदेश) की पहली गवर्नर सरोजिनी नायडू  के शपथ ग्रहण की तस्वीर भी प्रकाशित हुई थी.

अशोकजी ने स्वतंत्र भारत को समाचार पत्र के अलावा लखनऊ का साहित्यिक-सांस्कृतिक अड्डा भी बनाया और बहुत सारे लेखकों, विद्वानों, कलाकारों को उससे जोड़ा. उस समय लखनऊ में इस अड्डे की जरूरत भी थी. दुलारे लाल भार्गव जी की ख्यातिनाम पत्रिका सुधाबंद हो चुकी थी और माधुरी’ (1922-50) का स्वर्णिम समय बीत चुका था. यशपाल का विप्लव’ (नवम्बर 1938- अप्रैल, 1949) भी सरकारी कोप के व्यवधान झेलता अपने अंतिम वर्षों की ओर बढ़ रहा था. कम्युनिस्ट पार्टी का दैनिकअधिकारबंद था. स्वतंत्र भारतजल्दी ही स्थापित-सम्मानित पत्र बन गया. एक महीने ही में विक्री का आंकड़ा पांच हजार के पार हो गया था.

सन 1953 में अशोकजी केंद्र सरकार के सूचना विभाग में सूचना अधिकारी बन कर चले गये तो अपने योग्य सहयोगी योगेंद्रपति त्रिपाठी को स्वतंत्र भारतका सम्पादक बना गये, जिनसे उनकी भेंट 1944 में दैनिक अधिकारमें हो चुकी थी और जिन्हें वे स्वतंत्र भारतमें ले आये थे. हमारे वरिष्ठ साथी त्रिपाठी जी का नाम बहुत श्रद्धा और सम्मान से लेते थे. कहते कि उन्होंने अखबार को अशोकजी से भी बेहतर ढंग से चलाया और विकसित किया. 1971 में त्रिपाठी जी की मृत्यु हो गयी. तब मालिकों के आग्रह पर अशोकजी 1971 के अंत में पुन: स्वतंत्र भारतके सम्पादक होकर लखनऊ आ गये. त्रिपाठी जी के बड़े पुत्र शचींद्र त्रिपाठी स्वतंत्र भारत में हमारे वरिष्ठ थे जो बाद में नवभारत टाइम्स, बम्बई चले गये और उसके स्थानीय सम्पादक होकर रिटायर हुए.

***

25 जून, 1975 की रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने बढ़ते राजनैतिक विरोध को कुचलने और अपनी सत्ता बचाने के लिए देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रायबरेली से उनका निर्वाचन अवैध ठहरा दिया था. विरोधी नेता गिरफ्तार कर जेल में डाले गये और अखबारों पर सेंसर लगा दिया गया. अखबारों में कौन-सी खबरें नहीं छपेंगी या किस तरह छपेंगी, यह देखने के लिए सूचना विभाग और पत्र सूचना कार्यालय के अधिकारियों को सेंसर-अधिकारी के रूप में तैनात किया गया था.

स्वतंत्र भारतके सम्पादकीय निर्देश रजिस्टर के जो कुछ पेज मेरे पास सुरक्षित हैं, उनमें से कुछ सेंसर-अधिकारियों के निर्देश भी हैं. सेंसर अधिकारी नियमित फोन करके सम्पादक, समाचार सम्पादक या समकक्ष वरिष्ठ पत्रकार को कुछ निर्देश लिखवाते थे, जो जाहिर है उन्हें दिल्ली से मिलते होंगे. फोन सुनने वाला इन निर्देशों को सेंसर-अधिकारी के हवाले से लिख कर सभी के ध्यानार्थ रजिस्टर में नत्थी कर देता. इन पर अमल करना अनिवार्य था अन्यथा गिरफ्तारी से लेकर प्रेस-बंदी तक हो सकती थी. इनमें से कुछ आदेशों पर नजर डालने से पता चलेगा कि इमरजेंसी में अखबारों पर किस तरह का अंकुश था.

“सेंसर अधिकारी, एम आर अवस्थी का फोन, नौ अक्टूबर 1976 को-

1-भारत और अन्य किसी देश के बीच शस्त्रास्त्र अथवा रक्षा समझौते की सूचना तथा उस पर कोई टिप्पणी प्रकाशित न की जाए.

2-बस्ती जिले में बीडीओ तथा एडीओ की हत्या का समाचार न छापा जाए.”

20 जुलाई 1976 को अशोक जी के हस्तलेख और हस्ताक्षर से जारी नोट- “नसबंदी में मृत्यु या अन्य धांधली की खबरें न दी जाएं. प्राप्त होने पर इन्हें समाचार सम्पादक श्री दीक्षित या मुझे दिया जाए.”

बिना तारीख का एक हस्तलिखित नोट- “गुजरात हाईकोर्ट के जजों के तबादले सम्बंधी बहस का कोई समाचार बिना सेंसर कराए नहीं जा सकता.”

10 दिसम्बर 1976 को समाचार सम्पादक के हस्ताक्षर से जारी सेंसर-आदेश- “14 दिसम्बर को संजय गांधी का जन्म-दिवस है. इस संदर्भ में किसी भी कांग्रेसी नेता का संदेश नहीं छपेगा. सूचना विभाग से टेलीफोन पर सूचना मिली.”

17 दिसम्बर 1976 को समाचार सम्पादक के नाम से जारी अंग्रेजी में टाइप, सूचना विभाग से आया सेंसर-आदेश- “ रंगभेद विरोधी दक्षिण अफ्रीकी-भारतीय परिषद के चेयरमैन श्री ए एन मुल्ला का कोई भाषण या वक्तव्य आपके क्षेत्र के किसी भी अखबार में नहीं जाने दिया जाए.”

11 जुलाई, 1976  का टाइप किया हुआ अहस्ताक्षरित नोट- “सूचना विभाग में सेंसर के श्री वाजपेई ने फोन किया था कि सेंसर आदेशानुसार परिवार नियोजन, शिक्षा शुल्क में वृद्धि तथा सिंचाई दरों में वृद्धि के विरुद्ध किसी प्रकार का समाचार न छापा जाए. इसके अतिरिक्त, छात्र-आंदोलन की खबरें भी नहीं छपेंगी.”

28 दिसम्बर (सन दर्ज नहीं) को समाचार सम्पादक के हस्ताक्षर से जारी अंग्रेजी में टाइप किया हुआ “सेंसर-निर्देश- कांग्रेस, यूथ कांग्रेस और अखिल भारतीय कांग्रेस के भीतर अथवा आपस में विवाद और गुटबाजी के बारे में कोई भी खबर, रिपोर्ट और टिप्पणी कतई नहीं (किल्ड) दी जाए. यह विशेष रूप से केरल, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा कांग्रेस की खबरों पर लागू होगा.”

25 अक्टूबर (सन दर्ज नहीं) का अंग्रेजी में हस्तलिखित नोट- “सेंसर ऑफिस से श्री पाठक का निर्देश- यह फैसला हुआ है कि 29 अक्टूबर से होने वाले चौथे एशियाई बैडमिण्टन टूर्नामेण्ट में चीन की बैडमिण्टन टीम की भागीदारी भारतीय अखबारों में बहुत दबा दी जाए.”  

सभी अखबारों को सेंसर-आदेशों का पालन करना पड़ा था. विरोध के प्रतीक-रूप में कतिपय अखबारों ने एकाधिक बार अपने सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ी. कुछ छोटे लेकिन न झुकने वाले पत्रों ने प्रकाशन स्थगित किया या सरकार ने ही उन्हें बंद कर सम्पादकों-पत्रकारों को जेल में डाल दिया था.

ज्यादातर अखबारों की तरह स्वतंत्र भारतने भी आपातकाल या प्रेस-सेंसरशिप का चुपचाप पालन किया. हमारे वरिष्ठ साथी बताते थे कि 25 जून की 1975 की रात आपातकाल लागू होने के बाद जब अगले दिन सेंसर और जिला प्रशासन के अधिकारियों ने प्रेस आकर निर्देश जारी करने शुरू किये और जांच-पड़ताल करने लगे तो अशोक जी को सूचना दी गयी. वे फौरन दफ्तर आये और तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा को फोन करके इस पर विरोध जताया था. उसके बाद बहुगुणा जी उनसे मिलने भी आये थे, हालांकि वे कुछ कर नहीं सकते थे.  यह मुलाकात सिर्फ औपचारिकता रही होगी. आपातकाल के दौरान प्रेस सेंसरशिप और बहुत से दमन-अत्याचार के लिए इंदिरा गांधी, उनके बेटे संजय और उनकी चौकड़ी जिम्मेदार थी.

आपातकाल हटने के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस (इ) की बहुत बुरी पराजय हुई. मोरारजी देसाई के नेतृत्त्व में केंन्द्र की सरकार के सभी मंत्रियों को जयप्रकाश नारायण ने राजघाट पर ईमानदारी और शुचिता की शपथ दिलाई. इसे दूसरी आजादी कहा गया. देश भर में बदलाव और उत्साह का माहौल था. लेकिन बहुत जल्दी जनता पार्टी में झगड़े शुरू हो गये.

एक दिन अचानक हमें पता चला कि स्वतंत्र भारत सम्पादकीय में दो नियुक्तियां हो गयी हैं. गुपचुप बताया गया कि आरएसएस के लोग हैं. अन्य अखबारों में भी ऐसे पत्रकारों की भर्ती की खबरें आने लगीं. लालकृष्ण आडवाणी केंद्र में सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे ही. संघ की सदस्यता और सक्रियता जनता पार्टी में बड़े झगड़े का करण भी बनी. खैर.


दफ्तर और बाहर भी हम युवकों की टीम एक साथ मिल-बैठ कर खाती-पीती थी. ताहिरअब्बास को हमारे साथ खाते-पीते देख कर नये आये एक संघीपत्रकार ने हमें किनारे ले जाकर कहा- “आप लोग ब्राह्मण होकर मलेच्छ के साथ कैसे खा लेते हैं.” सयाने थे, इसलिए हमने उन्हें मारा तो नहीं लेकिन इतना परेशान किया कि वे दो-तीन महीने में ही भाग खड़े हुए. 

(जारी)  

3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर । अगली किस्त का इन्तजार।

Unknown said...

मुझे भी। नवीन जी at his best

Unknown said...

मुझे भी। नवीन जी at his best