Tuesday, March 6, 2018

एक हरा-भरा फुटबॉल का मैदान अब एक जुआघर है


ओह अगरतला 
-कृष्ण कल्पित

1.

एक वंचित राजकुमार के गाँव का नाम है अगरतला

सचिन देब बर्मन भाग गया
पहले कलकत्ता फिर बम्बई
सारे मछुआरे चले गये उसके साथ
सारा संगीत
संगे-मरमर से बने हुये
वे सुचिक्कन श्वेत राज-महल
जलाशयों से और आदिवासियों की झोपड़ियों से घिरे हुये

बोडतल्ला (चोर) बाज़ार का नाम है अगरतला के जहाँ त्रिपुरा के मुख्यमंत्री नृपेन चक्रबर्ती सुबह-सुबह रिक्शा में बैठकर मछली ख़रीदने और बाज़ार करने आते थे कोई भूमि-सुधार नहीं, ईमानदारी ही ख्याति रही उनकी अंत तक
1997 में गया था मैं अगरतला और जब 1999 में लौटा तो माणिक सरकार वहाँ का मुख्यमंत्री था

कितना पानी बह गया हाबड़ा नदी में
जो अगरतला को काटती है
जिस पर एक पुल है
जिसमें हर रोज़ कोई लाश मिलती थी 1998 में
त्रिपुरा आतंक से ढकी हुई घाटी का नाम है
जिसकी राजधानी अगरतला है

त्रिपुरा के राजा ने पहचानी थी
किशोर रवींद्र की प्रतिभा
दिया था वज़ीफ़ा विदेश-यात्रा का

97 में साइकिल पर चल कर आता था माणिक सरकार दूरदर्शन के दफ़्तर वहीं केंटीन में खा लेता था खाना जिसे शायद वह सिगरेट पीने के लिये खाता होगा उसकी सरलता, सादगी, ईमानदारी के किस्से जनमानस में आज तक प्रसिद्ध हैं लेकिन उससे कोई नहीं पूछता कि तुमने 20 बरसों में क्या किया वही तस्करी, वही आतंक, वही हत्यायें, वही दमन, वही ग़रीबी क्या किया तुमने

तुम्हारे सामने कोकबरोक जैसी ज़िंदा ज़बान को ख़ामोश किया जाता रहा

प्रिय माणक सरकार,
लो सिगरेट पिओ और मेरी बात सुनो कॉमरेड,
मुख्यमंत्री मदर टेरेसा नहीं होता

ओह, वे कूपियों की झिल-मिल रोशनी से चमकते बाज़ार
वे तड़पती हुई मछलियाँ

आज 20 बरस बाद याद आया अगरतला
जो कभी अगर के अनगिनत वृक्षों से घिरा हुआ था
जिसकी धूम से कभी समूचा आर्यावृत धूमायित रहता था !

2.

अगरतला अब एक टूटी हुई बाँसुरी है

एक हरा-भरा फुटबॉल का मैदान
अब एक जुआघर है

उजड़ा हुआ एक चाय-बाग़ान

नाथ-पंथियों की प्राचीन रमण-स्थली
हिंदुत्व की नयी प्रयोगशाला

उड़ीसा और बंगाल से पहले
यह ताबूत की अनन्तिम कील है

जिस विजन-पथ से चोरी-छुपे तुम आती थी मिलने
त्रिपुर-सुंदरी,
वह अब लुटेरों की राह है !

3.

रेलगाड़ी पहुँची अगरतला
मेरे लौट आने के बाद

ढाका और अगरतला के बीच जो चलती थी
वह बस बन्द हो गयी होगी

चोर बाज़ार के नुक्कड़ पर बिकता
वह ज़हीन गाँजा
और सौ-सौ रुपये में बिकती
बांग्लादेश से तस्करी के जरिये आई सूती कमीज़ें

मंदिरों में नहीं
इलेक्शन-बूथों के सामने औरतों की अति लंबी कतारें

नदियों को और सुंदर बनाती हुईं नावें
ले चल पार
मेरे साजन हैं उस पार

जिस साल मैं लौटकर आया त्रिपुरा से
उस समय अगरतला में एक सोनमछरी पैदा हुई थी

बाँस और बाँसुरियों के देश में

अनन्नास अब तक रस से भर गये होंगे !

4 comments:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जाकी रही भावना जैसी.... : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

penultimate said...

Things are always more complicated than we perceive them to be. Very well written fabbro.

Sahitya Desh said...

बहुत खूब...दर्द और सौन्दर्य का संगम।

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुन्दर