महेंद्र की दो मैथिली कविताएं
वरिष्ठ कवि महेंद्र मूल रूप से बिहार के सुपौल से हैं. वे कविके अलावा कथाकार और आलोचक भी हैं. भू.ना. विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर केन्द्र, सहरसा में मैथिली के विभागाध्यक्ष भी रहे हैं. साहित्य अकादेमी से प्रकाशित मोनोग्राफ शैलेन्द्र मोहन झा के अलावा उनकी कई कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुकी है.
1. इसी पते पर
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मुख्य सड़क की दाहिनी तरफ
झुका हुआ है बिजली का खम्भा
मेरी गली का पता
वहीं है टंगा
गर्म और ठंढे तार के
खतरे से बचने के लिए
आँख से ऊपर देखकर चलना पड़ता है
मुख्य सड़क की दाहिनी ओर
झुके बिजली के खम्भे से सटे
पूरब की ओर
देसी दारू की है दुकान
जहां हिलता-डुलता रहता है
मेरी गली का पता
दारुबाज
गोल घेरे में करते रहते हैं गाली-गलौज
और गली को भूलकर नगरपालिका की नाली में
गिरे रहते हैं मस्त होकर
सूअर और भैंस की तरह
मुख्य सड़क की दाहिनी ओर
झुके बिजली के खम्भे से सटे
पश्चिम ओर
बजाज मोटर साइकिल का वर्कशॉप है
वहीं है मेरी गली का पता
जहां ठीक होता है
युवावर्ग के बाइक-स्कूटर का क्लच और तार
एक लीटर में अधिक माइलेज के जुगाड़ में
साफ होता रहता है इंजन
ठीक होता रहता है
किक पॉइंट, लाइट और ब्रेक
जहां यूँ ही पड़ा होता है प्लास्टिक का कप भी
यहाँ-वहां बेतरतीब खड़ी रहती हैं मोटर साइकिलें
मेरी गली का पता
खो चुका है मेरे नाम की रूपरेखा
पूछना पड़ता है लोगों को बेकार लोगों से
मोहल्ला और चिह्नित गांव
खोज रहा हूँ अपनी स्थायी पते की चिट्ठी
झूलते बिजली-तार के नीचे
मोटर साइकिल की गूंजती आवाज में खोए
देसी दारू के गंध के बीच दिग्भ्रमित
तुलसी के पौधे और सहजन की लत्ती
खोज रहा हूँ जड़ को, निहारने में है निस्तेज
यह है अस्थायी पता
लोगों के लिए हो चुका है बहाना
डाकिये के लिए सुगम हो गया है
चिट्ठी और दूसरे सामान को गुमाना
अकेले नहीं, तूफानी रात के समुद्री जहाज जैसा
खो गया है मेरा पता
हो सकता है अब इसका कोई ठिकाना न हो.
मैं कुंद हो गया हूँ
नाम मेरा खो गया है
जन-अरण्य सघन-घन नंदन में अकेले
लाख प्रयास करूं
दोनों हाथ लकड़ी से
अब बाहर नहीं आती आवाज
मेरे पैर श्लथ
अपने पता की खोज में
खोज रहा है अपना नाम, अपना लोक
अपनी गली में धूमिल चिन्ह
उपलाते हुए कीड़े जैसे भटकते
भटक गया मेरा मन-प्राण
किस पते पर?
हो सकता है इसी पते पर...
अनुवादक: विनीत उत्पल
2. आस्था-अनास्थाक बीच कुंठा
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सबसे तेज दौड़ता है मन
जिसे न हाथ है और न पैर
और जिसके पास हाथ भी है और पैर भी
उसका मन नहीं है वैसा
जैसा रात को है हजार, लाख, करोड़ आँखें
दिन को तो वह एक ही है और उसी पर
सम्पूर्ण युग को जीतते हुए धरती के सभी प्राणी को
अंतरिक्ष तक ज्ञान-प्रकाश देते हैं और
अनावश्यक समय में सापेक्षित बुझ जाता है.
चिमनी का धुंआ ऊपर उठता है आग की लौ पर
स्वप्नमणिक सम्पूर्ण आस्था रखते हैं
और उसके नीचे बहुतेरी प्रवृत्ति कटते हैं
ठण्ड की रात गर्मी के दिन
मांस के बदले में अन्न या कुछ रेजगारी
-स्वादिष्ट लगता है
आगमित पीढी से विदा होकर
दो में से (स्वर्ग या नरक के)
किसी एक दरवाजे में समाहित होते हुए
हाथ हिला देता है.
और मैं या आप या कोई और
परंपराओं में विश्वास करते हुए-
अपनत्व के गंध से बचाते हुए
लहठी से हुए नोछार (घाव) के ऊपर सूखी खैठीं (त्वचा) को हटा देते हैं-
लेकिन सुबह में दूब की नोक पर पड़ी वेदना से भरे ओस कण
सूर्य की लालिमा से सूख जाते हैं और साँझ की प्रतीक्षा में सहेज लेती है
सम्पूर्ण वयस की घटना को, घटना के साथ घटना पुरुष को-
पात्र को, कुपात्र को
और गंगा के मर्यादित हिलकोर में अलक्षित शीतलता
स्नेह की टुकड़ी से साथ
अंत्येष्टि-स्थल की सारी राख को पखारते
मन को, आंख को, आग की लौ को
और नोछार की वेदना की अहर्निशता को
अंत तक भुलाते हुए
बंद हो जाता है...
अनुवादक: विनीत उत्पल
1 comment:
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ११ जून २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
निमंत्रण
विशेष : 'सोमवार' ११ जून २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक परिचय श्रृंखला में आपका परिचय आदरणीया शुभा मेहता जी से करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
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