Friday, August 3, 2018

पर ढंग के तीन मृत्युलेख भी न छपे अख़बारों में


हमारे समय के बड़े कवि की ताज़ा कविताओं की सीरीज़ – 3 

नया रिपोर्टर
-असद ज़ैदी  

एक दिन में दो हास्य कवियों का निधन!
अब इस पर रोना भी हँसने जैसा ही होगा.
रोज़ी रोटी तो उनकी खूब चली कविता से
पर ढंग के तीन मृत्युलेख भी न छपे अबारों में.

संस्कृति सम्पादक कुछ संवेदनशील टाइप के थे
इंदिरा गाँधी का ज़माना था
कहा दोनों के घर जाकर कुछ रिपोर्ट बना लाओ.

पहले हास्य कवि की विधवा से मैंने पूछा—
कैसे बने मुकुट जी हास्यकविबोलीहम बहुत निर्धन थे
धर्मयुग के पारिश्रमिक से महीने में तीन दिन का आटा
न आता था. हम रेडियो पर हास्य कवियों को
सुना करते थे. एक दिन हमनें इनसे कहा—
आप भी यह रास्ता पकड़ लो 
आमदनी का कुछ ज़रिया निकल आएगा,
रेडियो-टी वी पे आओगे तो कवि-सम्मेलनों में भी
बुलावे आने लगेंगे. इन्हें कुछ सद्-बुद्धि आई
भगवान ने हमारी सुन ली.
भगवान ने सुनी कि मुकुट जी ने आपकी सुन ली?
मैंने पूछा तो उसने ज़रा सर हिलाया और चुपचाप मुस्कुराई.
अच्छा ये बताइयेमैंने पूछाआपके पति के जीवन का
सबसे अच्छा क्षण कौन सा था?
उसने कहा—रघुवीर सहाय को इनकी भाषा पसन्द थी
एक बार फोन करके कहा—मुकुट बिहारी तुम्हारी
तहरीर इतनी अच्छी हैबोल इतने सुघड़पर विषय बड़े लचर...
ये बोले—रघुवीर जी आपको मैं क्या बताऊँ...
रघुवीर जी ने कहा—कुछ मत कहो,
हाँ यह बताओ शांति कैसी हैं?
बस भैयाऐसी ही मामूली सी बातें हैं
जिन्हें ये मूल्यवान समझते थे.

अब क्या करेंगी मैंने पूछा.
बोली—कुछ नहीं. बच्चों के बच्चे हैंउन्हीं से दिल लगाउँगी.

दूसरे कवि—अनोखेलाल 'ख़फ़ा’—की विधवा
स्वर्णलता से मैंने पूछा आपके अपने पति के बारे में
वास्तविक विचार क्या हैंउसने मुझे घूरकर देखा
पूछा—किस अबार से आये हो किस स्कूल के पढ़े हो?
तुम्हारी उम्र कितनी हैअपना नाम बताओ—पूरा!
मैंने कहा—सॉरी मैम! मैं नया हूँ अभी सीख रहा हूँ...
मैम फिर से रि-स्टार्ट करते हैं...
बोली—तुम्हें कैसे पता मैं टीचर हूँ मैंने कहा—मैम मुझे बिल्कुल नहीं पता!
तब उसने कहा चलो तुम्हें कुछ बताती हूँ.

इनका नाम अनोखेलाल 'ख़फ़ा’ नहीं सोहनलाल काबरा था
शादी के दो साल के भीतर ही दफ्तर में झगड़ा किया और नौकरी छोड़ दी
आवारागर्दी करने लगे और हास्य कविता का चस्का लगा लिया
तंग आकर मैं स्कूल की नौकरी करने लगी ये घर छोड़के जाने लगे
मैंने कहा जाते क्यों हो क्या मैं तुम्हें काटने दौड़ती हूँ?
तुम करो हास्य कवितामैं रोक रही हूँ क्यापर यह 
सोहनलाल काबरा नाम इस लाइन में चलने वाला नहीं.

अपनी बात के असर का पता मुझे यूँ चला कि एक साल के बाद
मेरे स्कूल ने मशहूर हास्यकवि अनोखेलाल 'ख़फ़ा’ को 
मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया और मैंने देखा ये तो अपने श्रीमान हैं
मुझे हैरान देखकर घबराएबोले—मुझे क्या पता था तुम यहाँ पर हो!
अब क्या बताऊँ पीठ पीछे सब स्कूल में मुझे मिसेज़ काबरा नहीं
मिसेज़ ख़फ़ा कहने लगे!

मैंने कहा—मैम यह क़िस्सा तो आपके शादीशुदा जीवन का रूपक हुआ!
रूपक?” अरे वाहशाबास!—वह बोली—कहाँ से सीख आए तुम यह सब!
खैर, ‘ख़फ़ा’ साहब की एक राबी बताती हूँ.
यूँ तो सफल थेपैसा भी बहुत बटोर लाते पर ये जो चाहते थे
होते होते रह जाता था मैंने एक बार कह दिया तो दुखी हुए
पद्मश्री मिलते मिलते रह गया
राज्यसभा में पहुँचते पहुँचते रह गए 
पिता भी बनते बनते रह गए
हमारी बेटी भी गोद ली हुई है बेटा भी 
अब तो हमारी एक नवासी है एक नवासा एक पोता भी
घर अपना है मेरी पेंशन भी होगी पर हाँ ख़फ़ा चले गए
और मुझे लगा मैम की आँखों में आँसू आया चाहते हैं.

4.4.2018

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