हमारे
समय के बड़े कवि की ताज़ा कविताओं की सीरीज़ – 3
नया रिपोर्टर
-असद ज़ैदी
एक दिन में दो हास्य
कवियों का निधन!
अब इस पर रोना भी हँसने
जैसा ही होगा.
रोज़ी रोटी तो उनकी खूब
चली कविता से
पर ढंग के तीन मृत्युलेख
भी न छपे अख़बारों में.
संस्कृति सम्पादक कुछ
संवेदनशील टाइप के थे
इंदिरा गाँधी का ज़माना था
कहा दोनों के घर जाकर कुछ
रिपोर्ट बना लाओ.
पहले हास्य कवि की विधवा
से मैंने पूछा—
कैसे बने मुकुट जी
हास्यकवि? बोली, हम बहुत निर्धन थे
धर्मयुग के पारिश्रमिक से
महीने में तीन दिन का आटा
न आता था. हम रेडियो पर
हास्य कवियों को
सुना करते थे. एक दिन
हमनें इनसे कहा—
आप भी यह रास्ता पकड़ लो
आमदनी का कुछ ज़रिया निकल
आएगा,
रेडियो-टी वी पे आओगे तो
कवि-सम्मेलनों में भी
बुलावे आने लगेंगे.
इन्हें कुछ सद्-बुद्धि आई
भगवान ने हमारी सुन ली.
—भगवान ने सुनी कि मुकुट जी ने आपकी सुन ली?
मैंने पूछा तो उसने ज़रा
सर हिलाया और चुपचाप मुस्कुराई.
अच्छा ये बताइये, मैंने पूछा, आपके पति के जीवन का
सबसे अच्छा क्षण कौन सा
था?
उसने कहा—रघुवीर सहाय को
इनकी भाषा पसन्द थी
एक बार फोन करके कहा—मुकुट बिहारी
तुम्हारी
तहरीर इतनी अच्छी है, बोल इतने सुघड़, पर विषय बड़े लचर...
ये बोले—रघुवीर जी आपको
मैं क्या बताऊँ...
रघुवीर जी ने कहा—कुछ मत
कहो,
हाँ यह बताओ शांति कैसी
हैं?
बस भैया, ऐसी ही मामूली सी बातें हैं
जिन्हें ये मूल्यवान
समझते थे.
अब क्या करेंगी मैंने
पूछा.
बोली—कुछ नहीं. बच्चों के
बच्चे हैं, उन्हीं से दिल लगाउँगी.
दूसरे कवि—अनोखेलाल 'ख़फ़ा’—की विधवा
स्वर्णलता से मैंने पूछा
आपके अपने पति के बारे में
वास्तविक विचार क्या हैं? उसने मुझे घूरकर देखा
पूछा—किस अख़बार से आये हो किस स्कूल के पढ़े हो?
तुम्हारी उम्र कितनी है? अपना नाम बताओ—पूरा!
मैंने कहा—सॉरी मै’म! मैं नया हूँ अभी सीख रहा हूँ...
मै’म फिर से रि-स्टार्ट करते हैं...
बोली—तुम्हें कैसे पता
मैं टीचर हूँ मैंने कहा—मै’म मुझे बिल्कुल नहीं पता!
तब उसने कहा चलो तुम्हें
कुछ बताती हूँ.
इनका नाम अनोखेलाल 'ख़फ़ा’ नहीं सोहनलाल काबरा था
शादी के दो साल के भीतर
ही दफ्तर में झगड़ा किया और नौकरी छोड़ दी
आवारागर्दी करने लगे और
हास्य कविता का चस्का लगा लिया
तंग आकर मैं स्कूल की
नौकरी करने लगी ये घर छोड़के जाने लगे
मैंने कहा जाते क्यों हो
क्या मैं तुम्हें काटने दौड़ती हूँ?
तुम करो हास्य कविता, मैं रोक रही हूँ क्या? पर यह
सोहनलाल काबरा नाम इस
लाइन में चलने वाला नहीं.
अपनी बात के असर का पता
मुझे यूँ चला कि एक साल के बाद
मेरे स्कूल ने मशहूर
हास्यकवि अनोखेलाल 'ख़फ़ा’ को
मुख्य अतिथि के रूप में
बुलाया और मैंने देखा ये तो अपने श्रीमान हैं
मुझे हैरान देखकर घबराए, बोले—मुझे क्या पता था तुम यहाँ पर हो!
अब क्या बताऊँ पीठ पीछे
सब स्कूल में मुझे मिसेज़ काबरा नहीं
मिसेज़ ख़फ़ा कहने लगे!
मैंने कहा—मै’म यह क़िस्सा तो आपके शादीशुदा जीवन का रूपक हुआ!
“रूपक?” अरे वाह, शाबास!—वह बोली—कहाँ से सीख आए तुम यह सब!
खैर,
‘ख़फ़ा’ साहब की एक ख़राबी बताती हूँ.
यूँ तो सफल थे, पैसा भी बहुत बटोर लाते पर ये जो चाहते थे
होते होते रह जाता था
मैंने एक बार कह दिया तो दुखी हुए
पद्मश्री मिलते मिलते रह
गया
राज्यसभा में पहुँचते
पहुँचते रह गए
पिता भी बनते बनते रह गए
हमारी बेटी भी गोद ली हुई
है बेटा भी
अब तो हमारी एक नवासी है
एक नवासा एक पोता भी
घर अपना है मेरी पेंशन भी
होगी पर हाँ ख़फ़ा चले गए
और मुझे लगा मै’म की आँखों में आँसू आया चाहते हैं.
4.4.2018
1 comment:
बहुत खूब। सलाम।
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