इस दुनिया में इतने दुख हैं परेशानियां हैं जिन्हें देख कर लगता है कि इसे सिरे से बदलने की जरूरत है। लेकिन हम जानते हैं ये नामुमकिन है (क्रांतिकारी साथियों से गुज़ारिश है कि इस पक्तिं में निराशावाद न ढूंढें, यह मात्र एक व्यावहारिक सच है)। तो फिर क्या किया जाए? अफसोस करें अपनी बेचारगी पर या तोहमत लगाएं दूसरों पर कि वो कुछ नहीं कर रहे हैं?
मेरा मानना है कि तमाम दिक्कतों के बावजूद जिन्दगी इतनी खूबसूरत है कि हर वक्त इसमें खामियां निकाल कर दुखी होना अपने होने के साथ नाइंसाफी है। पूरी दुनिया बदलने की जगह जितना हमारे बस में है उसे ही सुधारा जाए तो शायद हम एक खुश जिंदगी जीने के बाद एक संतुष्ट इंसान की तरह मर पाएं।
हाल ही में ग्रेग मार्टसन और डेविड ओलिवर रेलिन की किताब थ्री कप्स ऑफ टी पढ़ कर मुझे दुनिया को रहने लायक बनाने की अपनी उपरोक्त थ्योरी पर विश्वास और भी मजबूत हुआ। यह किताब कहानी नहीं है बल्कि एक अमेरिकी ग्रेग मार्टसन द्वारा पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कठिन भौगोलिक स्थितियों वाले सीमांत इलाकों में प्राथमिक शिक्षा के लिए गए असाधारण प्रयासों का दिलचस्प और प्रेरणास्पद ब्यौरा है।
मिशनरी माता-पिता की संतान ग्रेग मार्टसन का बचपन तंजानिया में बीता। अमेरिका लौटने के बाद उन्होंने काम के लिए चिकित्सा क्षेत्र चुना और कुछ साल फौज में भी बिताए। लेकिन उनका मन रमता था पहाङों की ऊँचाईयाँ फतह करने में।
अपनी विक्षिप्त बहन क्रिस्टा के मौत के बाद ग्रेग ने मन बनाया कि हिमालय की के-२ चोटी को फतह कर शायद वह अपनी प्रिय बहन को श्रद्धांजलि दे पाएंगे। इसी उद्देश्य से १९९३ में उन्होंने के-२ आरोहण शुरू किया लेकिन कुछ कारणों से उनका यह अभियान नाकामयाब रहा। निराश ग्रेग लौटते हुए रास्ता भटक कर कोरफी नाम के एक गांव में पहुंचते हैं जो विकास के लिहाज से बहुत पिछङा हुआ है। और यहीं से शुरू होता है उनका नया और सार्थक अभियान। पाकिस्तान के सीमावर्ती बाल्टी क्षेत्र के इस गाँव के लोगों का निश्चल अपनापन उन्हें वहाँ के लिए कुछ करने को प्रेरित करता है और वह वहाँ एक स्कूल बनाने का वादा करते हैं। कोरफी गांव की दूरुह भौगोलिक परिस्थितियों और ग्रेग की अपनी आर्थिक हालत को देखते हुए वहाँ स्कूल बना पाना असंभव न भी सही मुश्किल जरूर था।
ग्रेग मार्टसन कैसे उन मुश्किलों से पार पा कर न केवल कोरफी में बल्कि उस कठिन इलाके के और भी गांवों में भी स्कूल खोल पाने में सफल रहे, थ्री कप्स आफ टी उसी की कहानी है। शिक्षा के क्षेत्र में उनका यह अभियान पाकिस्तान व अफगानिस्तान के उन इलाकों के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य पर कैसा सकारात्मक असर डाल रहा है, यह उसकी कहानी है।
ग्रेग मार्टसन का काम अब भी जारी है। सच्ची परिस्थितियों के बीच सकारात्मक सोच के साथ किए जा रहे कामों, ग्रेग मार्टसन की व्यक्तिगत जिंदगी और अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उनके संघर्षों का पूरा वर्णन इतना रोचक है कि मेरे लिए इसे एक बार शुरू करने के बाद पूरा किए बिना रख पाना मुश्किल था।
किताब पढने के बाद लगता है कि अगर चाह हो तो राह निकल ही आती है, बात बस इतनी सी है कि आपकी चाह में शिद्दत कितनी है।
3 comments:
बढ़िया लिखा है आपने दीपा। आगे भी ऐसे ही लिखते रहना। रियाज़ बना रहेगा।
आप उदास होने की बात करते हैं हमारे एक भाई ने तो मन को मोबाइल बना डाला है और गैरजरुरी चीजें इरेज कर लेंगे, ऐसे में जिंदगी बदसूरत कहां रह जाएगी। अच्छा सोचती हैं आप लेकिन ये आप अपने को ही समझा रही थी न, उपदेश तो नहीं था न बड़ा डर लगता है उससे।...
दीपा जी अच्छा काम ! मैं भी पढना चाहूंगा ये किताब !
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