दरअसल पाब्लो नेरुदा का वास्तविक नाम रिकार्दो एलिएसेर नेफ्ताली रेयेस बासोअल्तो था। नेरुदा नाम उन्होने चेक लेखक यान नेरुदा से लिया था।
राजेश जोशी का शानदार आलेख पढ़ने के बाद मुझे पिछले साल नवम्बर की अपनी प्राग यात्रा याद हो आई।
तस्वीरें पलट रहा था तो प्राग की एक तस्वीर पर निगाह रूक गयी। जब आप चार्ल्स ब्रिज से माला स्त्राना की तरफ जाते हैं तो इस होटल पर एकबारगी तो निगाह नहीं पड़ती पर जब पड़ती है तो अच्छा लगता है। प्राग के अपने संस्मरण फिर कभी लिखूंगा, फिलहाल इसे एक detail भर मानें आप। तस्वीर मेरे आग्रह पर मेरे मित्र वेर्नर ने खींची थी।
साथ ही, लगे हाथों नेरुदा की पद्य आत्मकथा 'ईस्ला नेग्रा' के एक अंश का अनुवाद पेश कर रह हूँ :
उनके बग़ैर जहाज़ लड़खड़ा रहे थे
मीनारों ने कुछ नहीं किया अपना भय छिपाने को
यात्री उलझा हुआ था अपने ही पैरों पर –
उफ़ यह मानवता‚ खोती हुई अपनी दिशा!
मृत व्यक्ति चीखता है सारा कुछ यहीं छोड़ जाने पर‚
लालच की क्रूरता के लिए छोड़ जाने पर‚
जबकि हमारा नियंत्रण ढंका हुआ है एक गुस्से से
ताकि हम वापस पा सकें तर्क का रास्ता।
आज फिर यहां हूं मैं कामरेड‚
फल से भी अधिक मीठे एक स्वप्न के साथ
जो बंधा हुआ है तुम से‚ तुम्हारे भाग्य से‚ तुम्हारी यंत्रणा से।
मैंने पीछा छुड़ाना है गर्व से‚ एकाकीपन से‚ जंगलीपन से‚
एक साधारण जमीन पर तय करनी है अपनी प्रतिबद्धता‚
और वापस लौटना है मानवीय कर्तव्यों के लिए एक शरणस्थल की तरफ़।
मैं जानता हूं कि मैं ला सकता हूं विशुद्ध आनन्द
उन भलों लिए जो फंसे हुए हैं शब्दों के बीच
लड़खड़ाते हुए नर्क के नकली प्रवेशद्वारों पर‚
लेकिन वह काम है उसका जिसकी सारी वासनाएं पूरी हो चुकीं।
मेरी कविता अब भी एक रास्ता है बारिश के बीच
जिस पर चलते हैं नंगे पांव स्कूल जाते हुए बच्चे।
और सिर्फ ख़ामोशी में होती है मेरी पराजय।
अगर वे मुझे एक गिटार देंगे
तो मैं गाऊंगा कड़वी चीज़ों के बारे में।
( अनुवाद मेरा है।)
3 comments:
neruda ko padane ki liye shukria...pichale dino jab dilli me tha to pablo neruda ke bare me kaphi kuch pada tha....
राजेश ने `प्राग´ लिखा और अशोक ने बिना किसी भूमिका के `प्राहा´। एक ही शहर के दो उच्चारण, वह भी कबाड़खाने में, बात कुछ हजम नहीं हुई। अशोक ने लिखा है, तो प्राग का नाम शुद्ध नाम यकीनन प्राहा ही होगा लेकिन हिन्दुस्तान में, और खास तौर पर हिन्दी में, अगर बरसों से प्राग ही कहा जाता रहा है तो मेरा गयाल है शुद्ध का आग्रह छोड़ देना चाहिए। यह अटपटा तो लगता ही है और कभी-कभी यह भ्रम भी पैदा करता है कि लेखक कहीं कुछ जताना तो नहीं चाहता। अंग्रेजी सहित विदेशी भाषाओं के कई शब्द हिन्दी में भिन्न उच्चारण के साथ रूढ़ हो चुके हैं। उन्हें उनके मूल उच्चारण में बोलने की जिद मेरे खयाल से ठीक नहीं। अंग्रेजी भी हिन्दी के कई शब्दों को भ्रष्ट उच्चारण के साथ समेटती है और हम बिना किसी ऐतराज के अपने ही उन शब्दों को गलत बोलते हैं। मसलन, दिल्ली को डेलही, बम्बई (मुंबई) को बॉम्बे, कलकत्ता को कैल्काटा, गंगा को गेंजेज, योग को योगा आदि इत्यादि। विदेशी शब्दों के मूल उच्चारण (खास तौर पर ऐसे जो हिन्दी में थोड़ा फर्क ढंग से बोले जाते हैं) का सिलसिला चल पड़ा तो हम भटक जाएंगे। खास तौर पर अग्रेजी से इतर भाषाओं का उच्चारण तो हमारे लिए और भी भयंकर है। इस सिलसिले में हाल का एक किस्सा सुनिए:
पिछले कुछ दिनों से म्यांमार में सैनिक तानशाही की खिलाफत जोर पकड़ रही है। अंग्रेजी के अखबार सैनिक तानाशाही को JUNTA लिखते हैं। देखा-देखी कई हिंदी अखबारों ने सैनिक जुंटा लिखना शुरू किया। एक दिन हमारे अखबार में भी हेडिंग में जुंटा शब्द छप गया। अगले दिन संपादकीय समीक्षा में बताया गया कि इस शब्द का उच्चारण जुंटा नहीं, हुंटा है। दरअसल यह शब्द अंग्रेजी का नहीं है। मैंने इंटरनेट डिक्शनरी में इसका उच्चारण सुना तो पाया कि सचमुच हुंटा ही सही उच्चारण है। लेकिन हिन्दी की अखबारी बिरादरी इसे लंबे समय से जुंटा लिखती है और पाठकों का बड़ा हिस्सा भी यही समझता है। मुझे लगता है अंग्रेजी के सामान्य उच्चारण के अनुसार और हिन्दुस्तानी अंग्रेजी के हिसाब से जुंटा कहा जाय तो क्या बुराई है।
बहरहाल यह मेरा विनम्र निवेदन है, इसे आलोचना की तरह नहीं लिया जाना चाहिए। जल्द ही कबाड़खाने का हिस्सा बनने जा रहे कारपोरेट कबाड़ी दिनेश सेमवाल प्राग की कुछ सुंदर तस्वीरें यहां चेपेंगे। वह पिछले हफ्ते चेक रिपब्लिक की यात्रा से लौटे हैं।
आशुतोष बाबू आपकी बात सही है। गलती मेरी है। आगे से प्राग ही लिखा जाएगा। in fact अभी एडिट कर देता हूँ। वैसे मुझे पर्सनली प्राहा अच्छा लगता है लेकिन फ्री में जादे कन्फूजन किरेट करना सई न है। दिनेश सेमवाल को बुलावा भेज दिया गया है। इस प्रकार एक कार्पोरेट कबाड़ी के आ जाने से यहाँ एक और आयाम जुड़ेगा।
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