मेरे ख़्याल से पेसोआ की अगली कविता से पहले मुझे आप लोगों को बताना
चाहिए कि बदरी काका ने जीवनभर अविवाहित रहने का फैसला क्यों लिया।
अथ बदरी काका पुराण खण्ड दो
... जैसा पहले मैंने बताया था बदरी काका की आयु के बारे में कोई निश्चित अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। लेकिन विद्व्ज्जनों का मानना है कि उनके विवाह से सम्बंधित इकलौता प्रामाणिक विवरण १९३० के दशक के उत्तरार्ध में पाया जाता है।
तब पर्यटन हेतु पहाडों में या तो बंगाली आया करते थे या गुजराती सेठ। बंगालियों के आने का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति या आध्यात्मिक विकास हुआ करता था। गुजराती लोगों के आने का तब कोई निश्चित प्रयोजन किसी को ज्ञात नहीं था।
खैर। उस दिन लोधिया की चुंगी के पास बदरी काका को अपने एक पुराने मित्र के आने का इंतज़ार करते हुए कई लोगों ने देखा था। यह अलग बात है कि काका का दोस्त सुबह दस बजे ही आ गया था और उनके रानीधारा वाले डेरे में उनके आने की राह देख रहा था। काका एक खोखे में बैठे उस गुजराती सेठ पर निगाहें लगाए थे जो तीन दिन से अपनी महंगी गाडी को स्टार्ट नही कर पा रहा था।
अल्मोड़ा में आने वाली वह पहली मोटरकार थी। शुरू में तो लोगों ने बहुत अविश्वास और हैरत के साथ मोटर को देखा पर तीन दिनों तक उसे लोधिया के पास लगातार खडा देखते देखते उनकी हैरत ख़त्म हो गई थी। लोग तो यहाँ तक कहने लगे थे कि इस से तो अच्छा खच्चर हुआ जिसे कम से कम बीमार हो जाने पर बदला तो जा सकता है और काम के हर्जे से बचा जा सकता है। फिलहाल लगातार तीसरे दिन गाडी स्टार्ट करने की जुगत में लगे गुजराती सेठ को जब पहली बार बदरी काका ने आपनी सहायता देने का प्रस्ताव दिया तो सेठ ने एक बार उन्हें इस बुरी तरह झिड़का कि काका जैसा आदमी भी अपना धैर्य खोने ही वाला था। लेकिन कूर्मांचल प्रदेश के गौरव अल्मोड़ा नगर से कोई आदमी बेसहारा निकल जाये यह काका की बर्दाश्त से बाहर था।
काका खोखे में बैठे रहे और सेठ लगातार मोटर पर लगा रहा।
आख़िर शाम ढलने को हुई। निराशा सेठ के चेहरे पर छपी हुई थी। काका एक बार फिर उस के पास गए और बोले:
"सर आप चाहें तो एक बार में देखूं बोनट के भीतर?"
एक गंवार दिख रहे आदमी के मुँह से बोनट शब्द सुन कर सेठ जी को थोडा अचरज हुआ। 'चलो देखते हैं' वाला भाव चेहरे पर ला कर उसने काका को इस की इजाज़त दे दी।
बोनट उठा कर काका ने किसी विशेषज्ञ की तरह भीतर देखा और सेठ से पेंचकस माँगा।
बदरी काका ने इंजन के बाँई तरफ एक पेंच को जरा सा घुमाया और सेठ जी से कहा: "अब ज़रा स्टार्ट कर के देखिए।"
और लीजिये गाडी स्टार्ट हो गई।
गाँव की किम्वदंतियों में यह बात स्थापित है कि उस के बाद गुजराती सेठ करीब दस मिनट तक काका के पैरों से नही हटा।
वह काका से कहता रहा : "मुझे माफ़ कर दीजिए। मुझे माफ़ कर दीजिए।"
आख़िर मजबूर हो कर काका ने उसे माफ़ कर दिया। उन्हें घर जाने की देर हो रही थी और उनका दोस्त सुबह से भूखा था।
लेकिन बात ऐसे खतम होने वाली नहीं थी। सेठ चाहता था कि काका उस के साथ गुजरात चलें। "बदरी जी एक बार बस एक बार मेरे साथ चलिए। आपको पता नहीं आप जैसे महापुरुष की तलाश में मैं कितने सालों से भटक रहा हूँ।"
बदरी काका को झूठ बोलना पड़ा कि उन्हें घर जा कर माँ की देख रेख करनी है। सेठ को तात्कालिक टामा पिलाने की नीयत से काका ने एक दो झूठ और बोले और कहा अगर सेठ जी को उनकी इतनी ही ज़रूरत है तो वह ठीक एक साल बाद अल्मोड़ा आ जाएँ। तब वे चल देंगे।
यह बात काका ही नही सारा शहर जानता था कि इस तरह के अमीर लोगों के वायदे कभी सच नही होते।
लेकिन ठीक ३६५ दिन बाद गुजराती सेठ अल्मोड़ा में था।
वादा किया था तो निभाना भी था ही। सेठ काका को अपनी गाडी में बिठा कर ले चला। कहते हैं कि गोपाल का बाप उन्हें छोड़ने गरमपानी तक गया था।
अब रास्ते में काका को याद आया कि यात्रा का उद्देश्य तो उन्होने पूछा ही नहीं।
शेष अगली किस्त में समापन के साथ ...
अथ बदरी काका पुराण खण्ड दो
... जैसा पहले मैंने बताया था बदरी काका की आयु के बारे में कोई निश्चित अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। लेकिन विद्व्ज्जनों का मानना है कि उनके विवाह से सम्बंधित इकलौता प्रामाणिक विवरण १९३० के दशक के उत्तरार्ध में पाया जाता है।
तब पर्यटन हेतु पहाडों में या तो बंगाली आया करते थे या गुजराती सेठ। बंगालियों के आने का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति या आध्यात्मिक विकास हुआ करता था। गुजराती लोगों के आने का तब कोई निश्चित प्रयोजन किसी को ज्ञात नहीं था।
खैर। उस दिन लोधिया की चुंगी के पास बदरी काका को अपने एक पुराने मित्र के आने का इंतज़ार करते हुए कई लोगों ने देखा था। यह अलग बात है कि काका का दोस्त सुबह दस बजे ही आ गया था और उनके रानीधारा वाले डेरे में उनके आने की राह देख रहा था। काका एक खोखे में बैठे उस गुजराती सेठ पर निगाहें लगाए थे जो तीन दिन से अपनी महंगी गाडी को स्टार्ट नही कर पा रहा था।
अल्मोड़ा में आने वाली वह पहली मोटरकार थी। शुरू में तो लोगों ने बहुत अविश्वास और हैरत के साथ मोटर को देखा पर तीन दिनों तक उसे लोधिया के पास लगातार खडा देखते देखते उनकी हैरत ख़त्म हो गई थी। लोग तो यहाँ तक कहने लगे थे कि इस से तो अच्छा खच्चर हुआ जिसे कम से कम बीमार हो जाने पर बदला तो जा सकता है और काम के हर्जे से बचा जा सकता है। फिलहाल लगातार तीसरे दिन गाडी स्टार्ट करने की जुगत में लगे गुजराती सेठ को जब पहली बार बदरी काका ने आपनी सहायता देने का प्रस्ताव दिया तो सेठ ने एक बार उन्हें इस बुरी तरह झिड़का कि काका जैसा आदमी भी अपना धैर्य खोने ही वाला था। लेकिन कूर्मांचल प्रदेश के गौरव अल्मोड़ा नगर से कोई आदमी बेसहारा निकल जाये यह काका की बर्दाश्त से बाहर था।
काका खोखे में बैठे रहे और सेठ लगातार मोटर पर लगा रहा।
आख़िर शाम ढलने को हुई। निराशा सेठ के चेहरे पर छपी हुई थी। काका एक बार फिर उस के पास गए और बोले:
"सर आप चाहें तो एक बार में देखूं बोनट के भीतर?"
एक गंवार दिख रहे आदमी के मुँह से बोनट शब्द सुन कर सेठ जी को थोडा अचरज हुआ। 'चलो देखते हैं' वाला भाव चेहरे पर ला कर उसने काका को इस की इजाज़त दे दी।
बोनट उठा कर काका ने किसी विशेषज्ञ की तरह भीतर देखा और सेठ से पेंचकस माँगा।
बदरी काका ने इंजन के बाँई तरफ एक पेंच को जरा सा घुमाया और सेठ जी से कहा: "अब ज़रा स्टार्ट कर के देखिए।"
और लीजिये गाडी स्टार्ट हो गई।
गाँव की किम्वदंतियों में यह बात स्थापित है कि उस के बाद गुजराती सेठ करीब दस मिनट तक काका के पैरों से नही हटा।
वह काका से कहता रहा : "मुझे माफ़ कर दीजिए। मुझे माफ़ कर दीजिए।"
आख़िर मजबूर हो कर काका ने उसे माफ़ कर दिया। उन्हें घर जाने की देर हो रही थी और उनका दोस्त सुबह से भूखा था।
लेकिन बात ऐसे खतम होने वाली नहीं थी। सेठ चाहता था कि काका उस के साथ गुजरात चलें। "बदरी जी एक बार बस एक बार मेरे साथ चलिए। आपको पता नहीं आप जैसे महापुरुष की तलाश में मैं कितने सालों से भटक रहा हूँ।"
बदरी काका को झूठ बोलना पड़ा कि उन्हें घर जा कर माँ की देख रेख करनी है। सेठ को तात्कालिक टामा पिलाने की नीयत से काका ने एक दो झूठ और बोले और कहा अगर सेठ जी को उनकी इतनी ही ज़रूरत है तो वह ठीक एक साल बाद अल्मोड़ा आ जाएँ। तब वे चल देंगे।
यह बात काका ही नही सारा शहर जानता था कि इस तरह के अमीर लोगों के वायदे कभी सच नही होते।
लेकिन ठीक ३६५ दिन बाद गुजराती सेठ अल्मोड़ा में था।
वादा किया था तो निभाना भी था ही। सेठ काका को अपनी गाडी में बिठा कर ले चला। कहते हैं कि गोपाल का बाप उन्हें छोड़ने गरमपानी तक गया था।
अब रास्ते में काका को याद आया कि यात्रा का उद्देश्य तो उन्होने पूछा ही नहीं।
शेष अगली किस्त में समापन के साथ ...
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