Saturday, December 15, 2007

कमर आजाद हाशमी: सफदर हाशमी की बहादुर अम्मा जी

चार पांच साल पहले मरहूम सफदर हाशमी की बहन सबीहा जी और उनकी अम्मा जी रानीखेत में बच्चों के साथ पेंटिंग की एक वर्कशाप के सिलसिले में करीब माह भर रहे थे। इत्ताफकन वे मेरे दोस्त अक्षय शाह के घर के पीछे बनी उसी काटेज में रह रहे थे जहाँ मैं खुद करीब आठ माह काट चुका था। रानीखेत जाना हुआ तो अक्षय के घर ही रुका। वहां रात को खाने के बाद सबीहा जी और अम्मा जी से काफी देर तक गुफ्तगू करने का सौभाग्य मिला। अम्मा जी की शख्सियत में विकट हिम्मत और बहादुरी है। और उनकी राजनैतिक सजगता और निष्ठा पानी की तरह साफ और स्पष्ट है। सुबह उन्होने मेरे इसरार पर सफदर पर लिखी अपनी किताब की एक प्रति भेंट की।

दुनिया में कितनी माएँ होंगीं जो कत्ल कर दिए अपने जवाहरात सरीखे बेटे की जीवनी लिख सकेंगी? कमर आजाद हाशमी नाम की इस बहादुर माँ ने किसी वैरागी की निगाह से इस किताब में सफदर के बहाने पूरे एक युग का बयान किया है। 'सहमत' द्वारा प्रकाशित इस नायाब किताब को पढ़ कर आप की आँखें भी नम होंगी, आपको गुस्सा भी आएगा लेकिन सब से ऊपर आप अम्माजी से मिलने को लालायित हो उठेंगे।

'पांचवां चिराग' नाम की इस किताब की प्रस्तावना एक अनूठा दस्तावेज़ है। पढिये और उस के बाद संभव हो तो कहीं से यह किताब खोज कर पढ़ डालिए। बहुत सारी चीजों के जवाब अपने आपको मिल जायेंगे।

सफ़ेद-ओ-सियाह में फैली हुई ये दास्ताँ, जिसका कुछ हिस्सा हमारी नस्ल पर बीता और कुछ मौजूदा नौजवान नस्ल पर, एक दफा फिर एक नए जाविये और नए मकसद से बयान करने की कोशिश है। ये काम 'मुश्किल अगर नहीं तो आसान भी नहीं' के जुमले में आता है।

ये सफर तय करने के सिलसिले में जिन नौजवान बांहों और ज़हनों का सहारा लिया, वो अनगिनत हैं। इतना ज़रूर कहूंगी कि इस पूरे अरसे एक आँखमिचौली की-सी कैफियत से दोचार रही हूँ। अभी जो गम ज़ाती था, चश्मेज़दन में तमाम आलम का हिस्सा बन जाता था। और तन्हाई में फिर ये दावा झूठा और बेमानी लगने लगता था। अपनी ज़ात, जिसे पूरी कूव्वत से निहाखानों में धकेलने की कोशिश जारी रही है, डूबते हुए इंसान की तरह बार-बार अपना चेहरा दिखाती रही है। 'आ जाओ मैंने दर्द से बाजू छुडा लिया' के दावे बातिल और मेमसरफ हो जाते हैं। ये एक फरेब से ज्यादा कुछ नहीं। कोशिश तो बहुत की लेकिन ग़ालिब का -सा जिगर कहाँ से लाऊँ, जिसने कहा था 'बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे'।

अपनी तस्सल्ली के लिए दिल ने ये मुगालता दिया की हर जिंदगी ग़मों से चूर देखी और सब को ही दुःख झेलते पाया। फिर अगर ऐसा है तो दांत भींच कर अपने रास्ते पर जाओ, जैसा और अनगिनत लोगों ने किया है। आहे-सर्द भर कर खामोश हो जाओ या एह्तिजाज़ का रास्ता लो और गम-ओ-गुस्से का इजहार करो। पर मैंने जो निहाखाना-ए-याददाश्त से निकल कर ये यादें कागज़ पर बिखेर दी हैं, जो चाहे इस दर्द में हिस्सा बटा ले, जो नोक-ए-कलम से टपक पड़ा और कतरा-ए-खूं की तरह जम कर सियाह हो गया।

सिर्फ चंद बातें बारह-ए-रास्त कहना चाहती हूँ। तकसीम-ए-हिंद के जो वाकियात दर्ज हुए हैं। उनमें कुदरती तौर पर वो ही हालत और वाकियात ज्यादा सफाई और तफसील से लिखे गए हैं, जो आपबीती का हिस्सा हैं। जो इस दायरे में नहीं आ पाए, उनका सिर्फ ज़िक्र है, पूरी शिद्दत से उनका इजहार नहीं हो पाया है। अगरचे मैंने दर्द और गम में कहीं तफरीक करने की कोशिश नहीं की है। मैं सदी के इस अलामिये को एक पूरे ज़माने पा अलामिया तसव्वुर करती हूँ। जब इस बर्ग-ए-सगीर के इंसान बिला तफरीक-ए- मज़हब दुबारा बर्बरीयत के अंधे गारों में पहुंच गए थे और हज़ारों साल की सीखी हुई तहजीब को मिट्टी में मिला दिया गया था, सालेह अक्दार टूट फूट गईं और जिंदगी खला के उस दौर में आ गई जिस से हम आज तक छुटकारा हासिल नहीं कर पाए हैं।

साथ ही ये मफरूज़ा गलत होगा के अब उजाला नहीं फूटेगा। सिर्फ निगाह के जाविये का फर्क है। जिंदगी में आज भी दोस्ती, मोहब्बत और खुशियों के जजीरे हैं। कौन जानता है के कब ये मिल कर एक नया बर्रे-आज़म तैयार कर देंगे जो हज़ारों साल से इंसान का एक ख्वाब है और उम्मीद को जिंदा रखे हुए है:

खोल आँख, ज़मीन देख, फलक देख, फिजा देख
मशरिक से उभरते सूरज को ज़रा देख!

... तमाम उन साथियों और सफदर के दोस्तों और बच्चों का शुक्रिया जिन्होंने सफदर के बारे में अपने खयालात का इजहार कर मेरी मालूमात में इजाफा किया। दससल इस दास्ताँ को लिखना मेरे लिए सफदर को नए सिरे से समझने का एक ज़रिया भी बन पाया है।


(सफ़ेद-ओ-सियाह: सफ़ेद और काला, जाविया: कोण, ज़ुमरे: पृष्ठभूमि, कैफियत: दशा, ज़ाती: व्यक्तिगत, निहाखाना: अंतर्मन, बातिल: झूठ, बेमसरफ: बेकार, एह्तिजाज़: प्रतिरोध, बराह-ए-रास्त: सीधे, तकसीम-ए-हिंद: भारत का विभाजन, तफरीक: भेद, तसव्वुर: कल्पना, बर्ग-ए-सगीर: उपमहाद्वीप, तफरीक-ए-मजहब: धर्म का भेद, बर्बरीयत: जंगलीपन, सालेह अक्दार: सही मूल्य, खला: शून्य, मफरूजा: माना हुआ, ज़जीरे: द्वीप, बर्रे-आज़म: महाद्वीप, फलक: आसमान)

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

aj ki peedhi ko safdar ke baare me batane ke liye ye zaroori hai ke un par aur likha jaye balki film bhi banni chahiye. par kise fursat hai bhai! apne unki mata ji ka likha hum tak pahunchaya to apke prati shradha si paida ho rahi hai ab kis muh se apse maykashi ka zikra karunga main!