Wednesday, January 2, 2008

हिन्दी ब्लाग का उद्भव (और विकास) - कुछ इतिहास , कुछ झक्कास

नामकरण :

बुझी को राख कहते हैं , जली को आग कहते हैं।
जहाँ से उठता ही रहे धुआँ,उसे तो ब्लाग कहते हैं।।

नाम-स्मरणः

पहिला सुमिरन अशोक का जो मेरा उस्ताद।
उन्नें मुझको राय दी सीखें ब्लागोत्पाद ।
मेरे ज्ञान के खेत में डाला पानी -खाद ,
हे कबाड़श्री धन्य हो धन्य-धन्य उस्ताद ।
नाम तिहारा लेय के लिक्खूं ब्लाग-प्रसंग,
पहिले माफी माँग लूँ यदि होवे कोई तंग ।

उपोदघात/प्रस्तावना/विषय प्रवेशः

यह एक कहानी है।बात बहुत पुरानी है.इतनी पुरानी कि बेचारा पुरानापन शरमा जाये और बेशरम नयेपन को शरम ना आये.मुझे तो बताना है इतिहास.कोई राज है इसमें खास.माई-बाप यह आप का करम है कि बन्दे की बकवास को झेलने जा रहे हैं.खैर ,अब हम हिन्दी ब्लाग का उद्भव (और विकास) नामक अध्याय ठेलने जा रहे हैं.सो एडवांस में थैंक्यू ,धन्यवाद और हे बहन! हे भाई! पुराने साल की विदाई और नये साल की बधाई!


खण्डः एक-

बताने वाले बताते हैं कि हिन्दी ब्लाग का बीज तो आज से कई हजार साल पहले ही पड़ गया था और यह संयोगवश हो गया था, अनायास।क्यों न हो दुनिया के ज्यादतर अन्वेषण-आविष्कार संयोगवश ही तो हुए हैं.भले ही बाद में किसी ने उसका श्रेय ही नहीं बल्कि उसके नाम पर पुरस्कार भी झटक लिया हो.इस संयोग के निमित्त बने थे श्री मुखारविन्द खांण्डेय नामधारी एक जीवधारी जो आजकल विश्व के कुछ कुष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में दिव्य पुरुष के रूप में याद किये जाते हैं.उनकी स्मृति में जगह्-जगह मेले-ठेले-उत्सव आदि भी होते रहते हैं.आप ने देखे होंगे शायद!

अथ संयोग कथा :

एक बार प्रलय हुई।समूची पृथ्वी पर हाहाकार मच गया.सबकुझ समाप्त.सबकुझ खतम.सबकुझ खल्लास.बस बचा रह गया एक अनाम-बेनाम नगर जिसका नाम बाद में खैनीताल पड़ा.वह बचा शायद इसलिये कि वहां के निवासी बड़े ही पुण्यात्मा टाइप के लोग थे क्योंकि इस नगर का नाम खैनी यानी सुर्ती यानी चैतन्य चूर्ण के नाम पर पड़ा था.इस नगर के संस्थापक (प्रातः स्मरणीय) डी.बी. भाई खैनी खाते ही नहीं बल्कि उसके गुण भी गया करते थे,वह भी एक अबूझ सी भाषा में जिसका अर्थ या अनर्थ न समझते हुये लोग समझदारों की तरह मुंडी हिलाया करते थे.जब(प्रातः स्मरणीय) डी.बी. भाई अपना 'खैनियोपाख्यानचरित्सागर' नामक अखंड काव्य पूरा कर चुके तो उन्हें इस नश्वर संसार की नश्वरता का बोध हुआ और वे एक दिन अंतर्ध्यान हो गये.उड़ती-उड़ाती खबरों से पता चला कि (प्रातः स्मरणीय) डी.बी. भाई किल्मोड़ा वाले बद्री काका के साथ देशाटन पर चले गये हैं.तब उनके शिष्यों-प्रशंसकों ने मिलकर नगर का नाम खैनीताल करवा दिया और दे-दिवाकर नामांतरण से संबंधित महकमे से इस पर स्वीकृति की मुहर भी लगवा ली.अगर मेरी बात पर विश्वास न हो तो 'बुग्याल' वाले बड़्बाज्यू या' विलायती रेडियो'वाले राजेश जोशी दद्दा से तसदीक करवा सकते हैं कि मैं झूठ बोल्या?

खण्डः दो -

तो हे पाठक प्रवर! इसी विख्यात-कुख्यात खैनीताल नामक नगर में 'ब्रुकबिल खतरावास' नामक एक अजायबघर था (वह अब नहीं है लेकिन इतिहास और स्मृतियों के कबाड़खाने में तो है ही और रहेगा भी.) जिसमें तरह-तरह के जीवित जीव-जंतु रहा करते थे जिनमें से कुछ तो 'जीवित जीवाष्म' की श्रेणी में गिने जाने लायक हो गये थे. खतरावास के बाशिंदे निरंतर खतरे झेलते रहते थे,वे एक हद तक इसमें विशेषज्ञता प्राप्त कर चुके थे क्योंकि उनका 'वास' बहुत ही जीर्ण दशा में था.वह किसी जमाने में वह अस्तबल रह चुका था और अब उसमें प्रखर मेधावी 'खर' रहा करते थे और ऊपर से एक बवाल यह भी था कि नगर की सबसे ऊंची पहाड़ी 'टाइना टीक' से बड़े-बड़े बोल्डर लुढकते रहते थे और खतरावासी एस्बेस्टस की भयंकर ठंडी छतों के नीचे लेट-बैठकर करवट लिए, तसव्वुरे जानां किये हुए अपने शोल्डर बचाया करते थे. और हां, खतरावासी पढने-लिखने का काम भी करते थे.दरअसल उनका मुख्य काम वही था,वे उसी के लिये अलग-अलग जगहों से भेजे गये थे किन्तु प्राथमिकताओं की सूची में पढने-लिखने की एंट्री सबसे आखीर में दर्ज थी.

ब्रुकबिल खतरावास के खास और (क्रिकेट) खेले - ( दिल पे चोट) खाये खिलाड़ी थे श्री मुखारविन्द खांण्डेय (जिन्हें आगे 'मुखी भाई' कहा जायेगा)।वे ,यानी मुखी भाई रसायन विज्ञान में रस ले-ले कर पेंच.डी. उपाधि प्राप्त करने के उद्देश्य से शोध कर रहे थे जो आज तक पूरी नहीं हुई है और तमाशा यह देखो कि 'इनवरसिट्टी' वाले एडवांस मे डिग्री छाप के उनके पीछे-पीछे कई हजार सालों से डोल रहे हैं कि डाक्साब! ले लो ,ले ही लो.लेकिन डाक्साब मानें तब ना ! वे केवल अपने दिल की मानते हैं और उनका दिल उनके पास है नहीं. कहते हैं- धरे रहो,धरे रहो.अगली प्रलय के बाद लेंगे.

तो हे पाठक प्रवर! हिन्दी ब्लाग के उद्भव का श्रेय इन्हीं मुखी भाई को जाता है।उन्होंने आज से कई हजार वर्ष पहले खैनीताल के खतरावास मे क्रोध में आकर इन पंक्तियों के लेखक के समक्ष श्राप देते हुए भविष्यवाणी कर दी थी कि कलयुग में हिन्दी पत्रकारिता का ब्लागावतार होगा होगा और नौ दो ग्यारह होते हुए पतली गली तथा धाकड़ मोहल्ले से लेकर कबाड़खाने तक इसकी व्याप्ति होगी. सचमुच महापुरुषों की वाणी कभी वृथा नहीं जाती.


अथ श्राप कथा :

विस्तार के भय से इतना भर बताता हूं कि मुखी भाई को प्रेम हो गया था ।यह उस युग में बहुत कामन चीज थी,आज का कुछ कह नहीं सकते।सुना है कि कवियों-कलाकारों को अब भी होता है.मुखी भाई अपनी प्रेम कथा को अमर होते देखना चाहते थे.उनकी इच्छा थी कि उनकी प्रेमकथा को लेकर एक खंडकाव्य तो जरूर लिखा जाना चाहिए ताकि उनकी और उनकी रूपसी प्रेयसी (जो उस खतरावास मे वास करती थी जिसकी टीन की छतों पर रात के अंधेरे में मुहब्बत के भूखे भाई लोग अपना कलेजा निकाल कर फेंका करते थे लेकिन किसी चमत्कार के कारण वे छत तक पहुंचते-पहुंचते पत्थरों में तब्दील हो जाया करते थे ! ऐसा सुना था.) की कथा पाठ्यक्रमों का हिस्सा बन सकें और विद्यार्थी सिर खपायें.इन पंक्तियों का लेखक तब भी कुछ लिखता था,उसके यार दोस्त भी लिक्खाड़ थे.मुखी भाई की इच्छा थी कि मैं उनकी प्रेमकथा को लिपिबद्ध करूं.ऐसा अनुरोध वे कई सालों तक करते रहे और मैं अपनी व्यस्तता या असमर्थता का बहाना बनाकर टालता रहा तब तक जब तक कि उनकी उसी रूपसी प्रेयसी से शादी की नौबत नहीं आ गई.शादी वाले दिन जब वे घोड़ी पर सवार होकर मानो कोई जंग जीतने जा रहे थे तो अपने मुखारविंद पर लटक रहे सेहरे को तनिक खिसका कर पूरे तपोबल को पुंजीभूत करते हुए उन्होंने हाथ उठाकर श्राप दिया था -'सुन ऐ लेखक-वेखक के बच्चे !आज तो मेरी प्रेमकथा का अंत होने जा रहा है और तूने उसे लिखा नहीं किंतु एक दिन ऐसा भी आएगा जब कौआ मोती खाएगा तब कलयुग में मेरा ब्लागावतार होगा और तेरे जैसे लेखक-वेखक कलम छोड़कर कंप्यूटर पकड़ेंगे और बेटा तू तो उसी ब्लाग के किसी कबाड़खाने में बैठकर मेरी प्रेमकथा लिखेगा.' ऐसी श्रापमय भविष्यवाणी कर मुखी भाई घोड़ी समेत अंतर्ध्यान हो गये.पता नहीं खाटिमपुर के झिल्लमिल्ल विहार के मकान नंबर ए-०३ में श्री मुखारविन्द खांण्डेय नाम से रहने वाले मास्साब कौन हैं. इस बारे में उनकी पत्नी और बच्चे भी मौन हैं.


तो हे पाठक प्रवर ! यह तो हुई श्रापकथा यानी ब्लाग कथा । प्रेमकथा फिर कभी ।

6 comments:

Rajesh Joshi said...

करना हो तो कर दे मुकद्दमा लेकिन क्या ये वो ही अरविंद पांडे हैं जो पश्चिमी संगीत की तर्ज पर नैनी...नैनीताल... गाया करते थे और गिटार की अनुपस्थिति में अपने दो हाथों से ही हवा में गिटार बजाने का उपक्रम करते थे?

वो शामें और वो रातें मुझे अब भी याद है जब इश्क के किस्से तलताल से मलताल और फिर मलताल से तलताल का चक्कर लगाकर वापिस ब्रुकहिल पहुँच जाते थे.

एक खतरावासी नावेद ज़िया (भूपाल भाकुनी के अंगरक्षक ठैरे बल.)टकराए कुछ महीने पहले... वो भी कहाँ? लखनऊ की टूटीफूटी रेसिडेंसी में जहाँ अँगरेज़ों के छक्के छूटे थे.

हे परवरदिगार !! कैसे कैसे मरहलों से गुज़ारता है तू अपनी ख़ल्क को.

अजित वडनेरकर said...

गहन खैनी-खिलाड़ी संदर्भों से अंजान ये कबाड़ी भी इसे पढ़ कर
आनंदविभोर हुआ। खैनीताल के ठहरे पानी में पनपे हैं आप मगर लेखनी में कैसी रवानी पाई है... मुझ अंधे को सब कुछ समझ आ गया। सब कुछ ....एकदम सब कुछ ....

Prem said...

Excellent

काकेश said...

सबी कूछ तो समझ में आ गया बल लेकिन हम तो तब किल्मोड़ा में थे हिसालू और काफल खाकर ढिटालू की बन्दूक से कैसे कोई मछरिया फांसते...लेकिन खैनी बाबा का किस्सा मजेदार रहा...और ये राजेश दाज्यू तो लगता है सबी कूछ जानते हैं हो.. तनि खुल के बतायें बी.बी.सी. (बुद्धि बर्धक चूर्ण) के बारे में..

मुनीश ( munish ) said...

kay adaa , kya andaaz hai!!
ye likhaiyya to parindo me baaz hai!! thnx.

दीपा पाठक said...

वाह मज़ा आ गया पढ कर खैनीताल के खतरावास का किस्सा। बहुत ही दिलचस्प शैली है बंधु आपकी। किस्से में जिन लोगों का ज्रिक है उन्हें नहीं पहचानती लेकिन लङकियों के हॉस्टल की छतों पर पत्थर फेंकने की परंपरा का निबाह अब तक होता है। आपका ब्लॉग पढ कर मेरे ग्यानचक्षु खुले और पता चला कि वे पत्थर दरअसल आशिकों के कलेजे हुआ करते थे। मुखी भाई की प्रेमकथा का इंतजार रहेगा।