Sunday, January 27, 2008

पहाड़ी जाड़े की सौगात: सना हुआ नींबू

साल शुरू होने पर टूटे-बिखरे इरफ़ान और मुनीश दिल्ली से दो-चार दिनों के लिए पहाड़ों की तरफ़ आए थे। उन दिनों का वर्णन इरफ़ान अपने ब्लाग पर कर चुके हैं। इस पोस्ट में उन्होंने सने हुए नींबू के चटखारों का ज़िक्र किया था। इस अनुपम व्यंजन का आस्वादन करने के बाद विशेषत: मुनीश लगातार इस को याद करते हुए टेलीफ़ोन और एसएमएस द्वारा मुझे बार - बार सने हुए नींबू को बनाने की विधि कबाड़खाने में प्रस्तुत करने का प्रेमपूर्ण आदेश देते रहे हैं। आप भी आनन्द लें:

वांछित सामग्री:

बड़े पहाड़ी नींबू - २
पहाड़ी माल्टे - २
पहाड़ी मूली - १
दही - १/२ किलो
हरे धनिये और हरी मिर्च से बना मसालेदार नमक
भांग के भुने बीजों का चूरन

कतला हुआ गुड़ - ५० ग्राम

पहाड़ी नींबू करीब करीब बड़े दशहरी आम जितने बड़े होते हैं। माल्टे, मुसम्मी और संतरे के बीच का एक बेहद रसीला फल होता है। ताज़ी पहाड़ी मूली में ज़रा भी तीखापन नहीं होता। भांग के बीजों में नशे जैसी कोई बात नहीं होती और कुमाऊं-गढ़्वाल में जाड़ों में बनने वाले तमामतर व्यंजनों में इस का इस्तेमाल होता है।

बनाने का तरीका:

नीबू और माल्टे छील कर छोटे-छोटे टुकड़े कर लें। मूली के भी लम्बाई में टुकड़े कर लें। एक बड़ी परात में ऊपर लिखी सारी सामग्री मिलाकर सान लें। बस स्वाद के हिसाब से मीठा-नमकीन देख लें।

खाने की विधि:

आमतौर पर यह काम-काज से निबटने के बाद घरेलू महिलाओं द्वारा थोक में खाया जाता है। पुरुषों को करीब करीब भीख में मिलने वाले सान की मात्रा महिलाओं के मूड पर निर्भर करती है। इसे सर्दियों के गुलाबी सूरज में खाया जाए, ऐसा पुराने पाकशास्त्रियों का मत है।


इसे खाते वक्त महिला-मंडली में एक या दो अनुपस्थित महिलाओं का रोल सबसे महत्व का माना जाता है। इन्हीं अनुपस्थित वीरांगनाओं की निन्दा इस अलौकिक व्यंजन के स्वाद का सीक्रेट नुस्खा है।

9 comments:

Unknown said...

This reminds of Laura Esquivel. Can you also post the recipe of Darim's chutney!

Tarun said...

अशोक जी, पुराने दिन याद दिला दिये आपने, जब जाड़ों में धूप में बैठकर ये सना हुआ नीबू खाते थे। एक बार फिर मुँह में पानी आ गया।

अजित वडनेरकर said...

अद्भुत है यह पोस्ट । कबाड़खाने में पाकशाला भी खुल गई। गौर करें कि पाकशाला में कबाड़ कोई महिला या रसोईया पसंद नहीं करेगा। अलबत्ता कबाड़खाना में सब जाइज़ है। खास तौर पर प्रसंस्कृत पदार्थों की पाक विधियां । अचार, मुरब्बे को मैं शुरू से कबाड़ में ही गिनता रहा हूं। सालों साल चल जाते हैं । मैने तो पुराने अचार सचमुच ही कबाड़खाने में भी रखे देखे हैं। रसोई मे जब सामान का जमघट ज्यादा हो जाए तो फिर कबाड़खाने में ही पहुंचते हैं अचार - मुरब्बे के मर्तबान। बगल में रखे हैं साइकल के कल पुर्जे। उसके बगल में पुरानी रद्दी पत्रिकाएं। वगैरह वगैरह। मजे की बात ये कि ये सभी चीज़े वक्तन फ वक्तन काम दे जाती हैं।

मुनीश ( munish ) said...

धनभाग हमारे !अशोक भाई हम जैसे कड़वे फ्लेवर के शौकीनों को विटामिन-सी से लबरेज़ एक अद्भुत दोपहर देकर आपने हमे विवश किया है के देश और दुनिया को एक नए नज़रिये से देखें और मुझे यकीन है के सभी पाठक इस अद्भुत मस्तिष्क -पटल खोल देने वाले जायकेदार सिस्टम को ट्राई
करेंगे. आपको परेशां इसलिए करता रहा के स्वाद के सौदागर बने फिरते संजीव कपूर एवं तरला दलाल के बूते से ये बाहर की बात है .चूंकि ये असल अन्दर की बात है!

Keerti Vaidya said...

bhut khoob

mujhey bhi apna ghar yaad aa gaya...himachal mein bhi ase he chaat banyi jati hai.....

pahadi nibu ko Kimb kehtey hai so ke galgal ke beradri sey hai...

मुनीश ( munish ) said...

keerti ji main sanskaarvash saare Himalayi pradesh ko shradha evam kautuhal se dekhta hoon. apne ye bata kar bada khush kar diya ki himachal me bhi ssan-sevan ki parampara hai. jai saan!! apne rajya ke lok jeevan par kuch likhiye yahan pls.

Unknown said...

नराई ! - गजब पांडे ज्यू [ इनके सेवन का उत्तम समय सर्दी की दोपहर भी होती है] - [के लै हैगो तुमर क्वीड़ ?] - [:-)]

Anup sethi said...

वाह! यह व्‍यंजन हमारी तरफ के पहाड़ों में भी खाया जाता है. पर यहां इसमें मूली नहीं डलती. सामग्री को सान लेने के बाद धूनी (कोयले पर सरसों के तेल का बघार) लगती है. बचपन में हमने खूब खाया है. नाम लेते, बल्कि कल्‍पना करते ही मुंह में पानी आ जाता है. इस फल को हमारी तरफ गलगल कहते हैं.

Anonymous said...

muh mai paani aa gaya sach mai ... !! puraani yad taza ho gyee!!