Saturday, January 12, 2008

मनोहर श्याम जोशी की एक कविता और 'क्याप' का मूली फसक

(पोस्ट: सिद्धेश्वर सिंह)

मनोहर श्याम जोशी ने हिन्दी कथा साहित्य को न केवल 'कुरू-कुरू स्वाहा', 'कसप', 'हरिया हरक्यूलीज की हैरानी', 'टटा प्रोफेसर', 'क्याप' जैसे अद्भुत उपन्यास दिये हैं बल्कि हिन्दी पत्रकारिता को नई दिशा देने के साथ ही हिन्दुस्तानी टेलीविजन और सिनेमा की दुनिया को बनाने और बदलने का रास्ता भी दिखाया है। उनके समूचे लेखन को एक शब्द में समेटने की पाठकीय जुर्रत करूं तो मैं उसे एक असमाप्त 'फसक' (गप्प) कहना चाहूंगा. उनकी गप्प का एक दुर्लभ रूप उस समय देख्नने को मिला था जब म.गा.अं.हि.विश्वविद्यालय, वर्धा के 'हिन्दी कथा साहित्य और उपन्यास' वाले वर्कशाप (नैनीताल,११ जून से १ जुलाई २००२ ) में वे मेरे अध्यापक बने थे और खुद को 'वीर बालक' तथा हम प्रतिभागियों को 'दंड पेले हुए हिन्दी के मास्टर' कह-कह कर दो दिनों तक 'उत्तर आधुनिकता और हिन्दी उपन्यास' जैसे विषय को अपने अंदाज में पढाते रहे. इन दो दिनों में उन्होंने भारतीय मनीषा में उपन्यास की पड़ताल, उपन्यास और भारतीयता की अवधारणा, परम्परा और आधुनिकता का द्वन्द्व, आस्था और तर्क जैसे मुद्दों पर बोलते हुए इस पर जोर दिया था कि 'उत्तर आधुनिक कथा साहित्य का लक्ष्य किस्सागोई की वापसी है'.

जोशी जी ने शुरूआती दौर में (अपने अधिकांश समकालीनों की तरह) कवितायें भी लिखी थीं। आज अपने प्रिय साहित्यकार की 'आजकल' मासिक पत्रिका के जून १९५४ अंक में प्रकाशित एक कविता 'उद्जन -बम के युग में 'और 'क्याप' उपन्यास का एक चर्चित प्रसंग प्रस्तुत कर रहा हूं।

उद्जन -बम के युग में

इस तोतापंखी कमरे में नीलम-मोती बिखराते हम,
मोरपंख हिलाते हम और श्वेत शंख बजाते हम,
चांद डाल में,
चांद ताल में,
चांद-चांद में मुस्काते हम.
कभी,बहुत पहले कभी,
शायद यही छटा एक कविता बन सकती थी.

इसका वर्णन कर,
इसके कानों में रुपहले रूपकों के झूमर डालकर,
इसकी आंखॉं में अलंकार का काजर डालकर,
चिपकाकर मद्रासी बिंदिया इसके उन्नत भाल पर,
और आंखॉं ही आंखों में पूछे कुछ प्रश्नों के मूक उत्तर
इसकी फैली गदोलियों में थैली-झोलियों में भर-भर कर,
मैं कभी,
बहुत पहले कभी,शायद कवि बन सकता था.
मेरी काव्यकृति की प्रेरणा तू
शायद कविप्रिया बन सकती थी.
पर अब नहीं,नहीं अब नहीं,
क्योंकि धक धक धक दिल के टेलिप्रिंटर पर अक्षर कर
छप-छप जाती है यह फ्लैश खबर-

कि सवधान
लो! अब विराट घृणा के कुंचित ललाट का धीरज छूटता है!
लो! अब उद्जन के परम कण का सूर्य-सा शक्ति-स्रोत फूटता है!
हो सावधान!
ओ आधे-भगवानः इंसान!
अब दूर कहीं बहुत-बहुत दूर
शुरू होती है वह अनंत विध्वंस-प्रक्रिया-लड़ी
जिसमें न रह पाएगी यह अर्ध-चेतना की मीनार खड़ी,
जिसमें हो जायेंगे ये सब के सब कांच के सपने चकनाचूर!

खबरदार
आ रहा ज्वार!
ये आधे-आधे वादे सब बह जायेंगे!
ये पुंसत्वहीन इरादे सब धरे रह जायेंगे!


***

'क्याप' का मूली फसक

बाहर वालों को हमारी उस किस्म की गप्पें भी पसंद आयीं,जिनमें हम ऐसा जताते थे मानों गिनिस बुक आफ रिकार्ड में जा सकने योग्य सभी अद्भुत घटनायें और चीजें हमारे इलाके में होती हों । फर्ज़ कीजिये किसी ने जौनपुर की मूली का जिक्र किया कि वह बहुत ही बड़ी और भारी होती है. इस पर हमारी तरफ वाला बड़े विनम्र स्वर में कहता- 'महाराज, मैंने आपकी वो जौनपुर वाली मूली तो देखी नहीं ठहरी. अपने नाना जी के बाड़े में जो मूली होने वाली हुई उसके बारे में जरूर जानता हूं. एक दिन क्या हुआ मामी ने कहा-जा रे बाड़े में से एक मूली उखाड़ ला. साग के लिये और कुछ तो है नहीं आज . -अरे मामी - मैंने कहा- एक मूली का क्या होने वाला हुआ इतने बड़े परिवार में! मामी ने कहा- 'तू पहले जा के देख तो सही ! वहां जाकर देखा महाराज तो बाप रे बाप ! एक-एक हाथ तो जमीन के ऊपर निकली ठहरी मूलियां ! जमीन के भीतर का किसे पता ! और मोटाई पूछते हो तो मैनें अंगवाल डाली तो हाथ छोटे पड़ गए कहा .हिलाता हूं तो हिली ही नहीं. कुदाल से खोदना शुरू किया तो मेरी कबर-जसी बन गई, लेकिन मूली फिर भी नहीं निकली. तो मैंने अंगवाल डाल कर खूब जोर से हिलाया. थोड़ी हिलती-सी देखी तो पीछे को झुक कर जोर लगाकर खींचा. मूली तो निकल गई महाराज, लेकिन मैं उसके अंगवाल डाले-डाले ही ढिणमिणाते-ढिणमिणाते सीधा तल्ला गांव जा पहुंचा. अब मेरे को कितनी चोट लगी क्या बताऊं, लेकिन महाराज ,उस मूली को कुछ नहीं हुआ. फिर तल्ला गांव वालों ने मेरी दवा-पानी की और कुल्हाड़ी से मूली के चार टुकड़े किए एक-एक टुकड़े को दो-दो आदमी उठाकर ऊपर ले गये मल्ला गांव.

(मनोहर श्याम जोशी जी पर यह पोस्ट कबाड़ी सिद्धेश्वर ने तैयार की है। बदक़िस्मती से उन के नगर खटीमा में इन्टरनेट पिछले कुछ समय से परेशान कर रहा है। आशा करें कि उन का नेट ठीक काम करना शुरू कर देगा। ताकि हिन्दी साहित्य का वह अमूल्य कूड़ा जो उन के यहां धूल फ़ांक रहा है, जल्द ही कबाड़खाने में नज़र आए। )

1 comment:

Manish Kumar said...

क्याप पढ़ी थी और उस पर अपने चिट्ठे पर लिखा भी था। आज इस मूली फसक को पढ़कर मजा आ गया।