हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
दम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
और राज करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
कई साल पहले मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में शुभा मुद्गल की आवाज़ में इसे सुनकर हम दोस्त लोग झूम रहे थे. कुछ तो स्लो मोशन में डांस भी कर रहे थे. हम ढेर सारे लड़के-लड़कियां नए दुनिया के सपनों को साथ लिए वहां जुटे थे. जब भी फैज़ का नाम आता है. मुंबई का वो नज़ारा आंखों के सामने ताज़ा हो जाता है. कल स्टेन ऑडिटोरियम में फैज़ की नज़्मों को फिर से सुनने का मौक़ा मिला. रिमेम्बरिंग फैज़ प्रोग्राम के तहत राधिका चोपड़ा फैज़ की नज्में सुना रही थीं. फैज़ के नाम पर मैं यूं ही ऑडिटोरियम के भीतर पहुंच गया. ये भी नहीं पता था कि स्टेज पर कौन गा रहा है. बहुत देर तक मैं इस भ्रम में रहा कि शायद पाकिस्तानी गायिका ताहिरा सैय्यद गा रही हैं. ऐसा सोचने की वजह सिर्फ इतनी सी थी ताहिरा की तरह ही राधिका भी काफी ख़ूबसूरत है. कुछ महीने पहले ही मैंने ताहिरा को मंच पर गाते हुए सुना था. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि फैज़ की इतनी नज़्मों को इतनी ख़ूबसूरती से इतनी अदाओं में गाया भी जा सकता है. सामने से राधिका सुना रही थी-
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब ना मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहरका झ़गडा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाए
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमों- अतलसो- कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथडे हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग
छात्र राजनीति के दौरान जब भी प्रेम और क्रांति के बारे में हम लोग बात करते थे तो इस नज़्म का ज़िक्र बार-बार आता था. ये बात और है कि आज ना तो क्रांति को लेकर उस तरह का उत्साह बचा है और ना ही वो प्रेम. मुझे पुराने दिन याद आ रहे थे और राधिका सुना रही थीं-
शाम ए फिराक अब ना पूछ आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया, जां थी कि फिर संभल गई
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक महक उठी
जब तेरा गम जगा लिया, रात मचल मचल गई
दिल से तो हर मुआमलात करके चले थे साफ हम
कहने में उनके सामने बात बदल बदल गई
राधिका जितनी सुरीली आवाज़ में गा रही थीं वो अपने शागिर्दों को भी उतना ही मौक़ा दे रही थी. शागिर्द जब तबले पर अपना हुनर दिखा रहा था तो वो मंच से ही उसे बार-बार दाद भी दे रही थीं. राधिका ने फिर सुनाया -
दोनों जहान मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई सब-ए-ग़म गुज़ार के.
आज पढ़ना-लिखना लगातार छूटता जा रहा है. पढ़ते भी हैं तो नई-नई चींज़ें सामने होती हैं. पुराने पढ़े हुए को फिर से पढ़ने का मौक़ा कम ही मिलता है. ऐसे में फैज़ को सुनना ख़ुद को ही रिविजिट करने की तरह लगा.
2 comments:
bahut khubsurat post hai,itne sundar magne peshkash ke liye shukran
आप बढ़िया लिखते हैं मगर पोस्ट को बेहद लंबा कर देते हैं ! यदि अप चाहते हैं की मेरे जैसे फुरसतिया रईसों के अलावे और लोग भी आपको पढ़ें , आपके कहे पे जान निसार करें तो भाई कुछ कतर -ब्योंत करके कांटे की बात लिखें ! kabaadkhaana का मैं तो नियमित पाठक हूँ किंतु मैं चाहता हूँ की और लोग भी यहाँ आकर आपके लुत्फ़ ऐ सोहबत के आशना बनें! जय हिंद.Mehak ji ko sneh aur dulaar!
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