Tuesday, February 12, 2008

ना साजन ना गोरी, पीटैं प्रेत थपोरी

अबीर की दोपहर होती थी। सबसे अधिक खिलता था पीला रंग। वो हाथों से उड़ता था और बालों से गुज़रते हुए चेहरे को सहलाता था। गीतों के बीच उठती मादक स्‍वरलहरी इन अबीरों को बौरा देती थी। फिर ये पूरा गांव घूम आते थे। दरवाज़े-दरवाजे़। हमारे हाथ में ज़्यादा से ज़्यादा एक जोड़ी झाल होता था। होली में कोरस का सुर अपने उठान के वक्‍त लय और ताल नहीं देखता, लिहाजा बेसुरा झाल भी उसमें अपना अक्‍स खोज लेता है।

हमने कायदे से कुछ भी बजाना नहीं सीखा। सिवाय गाल बजाने जैसे मुहावरे के, जो झूठ के अब तक के सफ़र में आज भी काम आ रहा है।

आकाशवाणी दरभंगा में एक कलाकार थे। आंखों की रोशनी बचपन से नहीं थी। हम वहां कैज़ुअल आर्टिस्‍ट थे। यूं भी अपने शहर की सांस्‍कृतिक आवोहवा में बेताल की तरह उड़ते रहने के दिन थे और हमारी हसरतें इतनी थीं कि सिनेमा हॉल को छोड़ कर दो-ढाई घंटे से ज़्यादा कहीं बैठने नहीं देती थीं। एक बार उन्‍होंने हार‍मोनियम सिखाने का वायदा किया। चाचा के पास बेतिया में हारमोनियम था, जिसे उठा कर हम दरभंगा ले आये थे। उनसे सरगम सीख पाये। सा सा सा सा निधा निधा प म प गग प म प गरे गरे नि रे सा। सा नि ध, ध म प, म प ग, प ग रे, ग रे सा।

फिर देशी शराब की दुकान पर हमें ले जाते। पौव्‍वा खरीदते और कहते - आओ रंग जमाएं। लेकिन उन दिनों वे हमें पीना नहीं सिखा पाये। हम कुछ और देर तक बचे रहना चाहते थे। बाद में तो शराब कुछ ऐसे शुरू हुई, मानो उससे जनम-जनम का अपनापा हो। लेकिन तब शराब नहीं पीने के कुबोध में ही हारमोनियम के मास्‍टर हमसे छूट गये।

शास्‍त्रीयता से लगाव हो गया था। इसलिए तो बेहद बूढ़े हो चले लल्‍ला की सभी ग्रामीण गीतों से पहले गायी गयी रुबाई हम ग़ौर से सुनने की कोशिश करते थे! वे फाग हों, चाहे चैती, गीत के प्रथमाक्षर से पहले वे साहित्यिक छंद पेश करते थे। छंद कुछ इस तरह होता था,
नागरी नवेली अलबेली बृषभान जू के
जेवर जड़ाऊं नख शिख लो सजायो है
फूलन की सेजन पै सोय रही चंद्रमुखी
आयो ब्रजराज तहं औचक जगायो है
कहें कवि दयाराम भूषण अंग शोभत अति
दृगन की शोभा देखि मृगशावक लजायो है
तो वाही समय एक लट लटकी कपोलन पै
मानो राहू चंद्रमा पर चाबुक चलायो है
ये छंद हमें इस भागती-दौड़ती दिल्‍ली में फिर से मिल गया। हमारे दफ्तर में एक वरिष्‍ठ साथी हैं, सत्‍येंद्र रंजन। आज वे ब्‍लॉगर भी हैं। इंक़लाब उनका ब्‍लॉग है। दो साल पहले मार्च में बनारस में हुए सिलसिलेवार धमाके के बाद एनडीटीवी की ओर से गंगा घाट पर आयोजित एक लाइव कंसर्ट में जब छन्‍नूलाल मिश्रा को सुना, उसके बाद उन्‍हें और सुनने के लिए बेचैन हो गया। उस कंसर्ट में छन्‍नूलाल जी ने गाया था, दिगंबर खेले मसाने में होली। छन्‍नूलाल जी के बहुत सारे गाने मिल गये, लेकिन श्‍मशान में शिव की होली नहीं मिली। मैं शुक्रगुज़ार हूं सत्‍येंद्र जी का कि उन्‍होंने हमें एक घंटे की एक सीडी उपलब्‍ध करवायी, जो एक लाइव कंसर्ट की निजी रिकॉर्डिंग है। ये बाज़ार में नहीं है। ये दुर्गा वंदना से शुरू होती है, ठुमरी, दादरा, चैती, फाग के बाद राम-केवट संवाद पर विराम लेती है। इन दिनों जब भी मैं एक घंटे से अधिक के सफ़र में होता हूं, मेरे कानों में स्‍पीकर इसी कंसर्ट को बार-बार सुनने के लिए लगा होता है।

2 comments:

अजित वडनेरकर said...

यह पोस्ट फूलन की सेजन पै सोय रही चंद्रमुखी सी लग रही है। डटे रहिये इसी सरगम पर । हम भी साथ देंगे-सानिधनिसा, सारेसानिधप, मगमरे, गमप, गम, रेसा ।
रंग, अबीर , फाग इन सब से सराबोर हो जाने दीजिए माहौल को। जय हो आपकी , जय हो पंडित अशोक पांडे की और जय हो दिगंबर...लीजिए हम तो पूरे रंग में हैं अभी से...

दीपा पाठक said...

आपकी पोस्ट पढ़ कर अपने कुमाउं की होली की छवियां सामने आ गई। बहुत सुंदर पोस्ट है। छन्नूलाल मिश्र की गायकी आंचलिक भावों को सचमुच अदभुत तरीके से उभारती है। एक बार इंडिया टुडे द्वारा आयोजित स्वर उत्सव में उन्हें सुना तब से उनके मुरीदों में शामिल हूं।