Tuesday, February 26, 2008

तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर अपने अन्दर से बाहर आ जाओ

लीजिए प्रस्तुत है लीलाधर जगूड़ी जी की दूसरी कविता भी। शब्दों के साथ सतत खेलते जाना और नित उनके वास्ते नवीनतर प्रतिमान गढ़ना उनके काव्यकर्म का अभिन्न हिस्सा है। उनकी ये दो सर्वथा अप्रकाशित और ताज़ातरीन कविताएं यहां कबाड़खा़ने पर पेश करते हुए हम सब कबाड़ी गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।
अपने अन्दर से बाहर आ जाओ

हर चीज़ यहां किसी न किसी के अन्दर है
हर भीतर जैसे बाहर के अन्दर है
फैल कर भी सारा का सारा बाहर
ब्रह्मांड के अन्दर है
बाहर सुन्दर है क्योंकि वह किसी के अन्दर है

मैं सारे अन्दर - बाहर का एक छोटा सा मॉडल हूं
दिखते - अदिखते प्रतिबिम्बों से बना
अबिम्बित जिस में
किसी नए बिम्ब की संभावना सा ज़्यादा सुन्दर है
भीतर से ज़्यादा बाहर सुन्दर है
क्योंकि वह ब्रह्मांड के अन्दर है

भविष्य के भीतर हूं मैं जिसका प्रसार बाहर है
बाहर देखने की मेरी इच्छा की यह बड़ी इच्छा है
कि जो भी बाहर है वह किसी के अन्दर है
तभी वह संभला हुआ तभी वह सुन्दर है

तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर
अपने अन्दर से बाहर आ जाओ


पिछली कविता की प्रतिक्रिया में श्री मनीष जोशी ने लिखा था: "कमाल का दस्तावेज है - कमबख्त महत्वाकांक्षा [ लेकिन पानी बहकर नीचे ही आयेगा - अंततः / शिखर का गदराया पेड़ भी ठूंठ में बदल ही जाएगा ] - अच्छी सुबह की शुरुआत" । इस प्रतिक्रिया से मुझे जगूड़ी जी ही की एक और ताज़ा कविता का भान हो आया। 'अध:पतन' शीर्षक यह कविता 'कथाक्रम' पत्रिका के जनवरी-मार्च २००८ के अंक में छ्पी थी। श्री नरेश सक्सेना (नरेश जी की कुछ कविताएं आप कबाड़ख़ाने में देख चुके हैं) ने इस कविता पर अपने संपादकीय नोट में लिखा था: "जगूड़ी की कविता पढ़कर मुझे लगा कि इस कविता के कुछ अंश मेरी कविता में होने चाहिए थे"। आमतौर पर लम्बी कविताएं लिखने वाले श्री लीलाधर जगूड़ी की यह छोटी सी कविता बहुत शानदार है और यहां मैं इसे प्रिय श्री मनीष जोशी के लिए, जिनकी मैं बहुत इज़्ज़त करता हूं, ख़ासतौर पर लगा रहा हूं। इसके अलावा इन दिनों ब्लॉगजगत पर चल रही एक बहस की दृष्टि से यह कविता बहुत प्रासंगिक भी है।


अध:पतन

इतने बड़े अध:पतन की ख़ुशी
उन आंखों में देखी जा सकती है
जो टंगी हुई हैं झरने पर
ऊंचाई हासिल करके झरने की तरह गिरना हो सके तो हो जाए
गिरना और मरना भी नदी हो जाए
जीवन फिर चल पड़े
मज़ा आ जाए

जितना मैं निम्नगा* होऊंगा
और और नीचे वालों की ओर चलता चला जाऊंगा
उतना मैं अन्त में समुद्र के पास होऊंगा
जनसमुद्र के पास

एक दिन मैं अपार समुद्र से उठता बादल होऊंगा
बरसता पहाड़ों पर, मैदानों में
तब मैं अपनी कोई ऊंचाई पा सकूंगा
उजली गिरावट वाली दुर्लभ ऊंचाई

कोई गिरना, गिरने को भी इतना उज्ज्वल बना दे
जैसे झरना पानी को दूधिया बना देता है.

(*निम्नगा: नदी का पर्यायवाची ** फ़ोटो: बस्तर में चित्तरकोट का प्रपात. फ़ोटूकार: डॉ सबीने लेडर)

3 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

कमाल की कविता !
जगूड़ी जी को सलाम !
और इसे छापने के लिए अशोक को भी !

shirish kumar mourya

मुनीश ( munish ) said...

nice pics.! ye bhi kaho mitra.

Unknown said...

आदेशानुसार - [रात ही को पढने का समय मिला] - सवाल का पूरा जवाब - सूद समेत - ऐसे ही पढाते रहें - बहुत मज़ा आया - मनीष