Saturday, February 23, 2008
अपने आप से बोलती बतियाती लड़की की कहानियां
उसे मैं आठ-नौ बरस से तो जानता ही होऊंगा। मुलाकातें सिर्फ तीन या चार। पत्र दोनों तरफ से कई। हर बार नाराज़गी से भरे हुए कि हम एक दूसरे के खतों का जवाब समय पर और विस्तार से नहीं देते। दीवाली, होली या नये साल पर कभी कभार ग्रीटिंग कार्ड। उसकी तरफ से ज्यादा, मेरी तरफ से कम। फोन पर कई बार बातें और हमेशा शिकायत से भरी हुई कि हम लगातार एक दूसरे के सम्पर्क में नहीं रहते। अब कुछ अरसे से सारा संवाद एसएमएस के जरिये ही। फोन पर बात कम ही।
उसने 1997 में वर्तमान साहित्य में मेरी लम्बी कहानी देश, आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ और एक मामूली सी प्रेम कहानी पढ़ी थी। कहानी उसे अच्छी लगी थी और उसने मेरे ग़ज़लकार दोस्त हरजीत से इसका ज़िक्र किया था। हरजीत ने कहा था उसे कि जब कहानी अच्छी लगी है तुम्हें तो अपनी बात लेखक तक भी पहुंचाओ। तभी उसका लम्बा-सा खत आया था। ये उसका पहला खत था।
वह बेहद गोरी, सुंदर और छरहरी लड़की है। चंचलता उसकी रग-रग से टपकती है। सौम्य लेकिन हर समय मुस्कुराती। खिलखिलाती। शायद नींद में भी खिलखिलाती रहती हो। उसकी उज्ज्वल और करीने से लगी दंत-पंक्ति आप हर वक्त देख सकते हैं। हमेशा कुछ कहने को आतुर बड़ी-बड़ी आंखें, और आंखों से भी बड़ी बिंदी माथे पर। ये बिंदी उसकी नोकदार लम्बी भौंहों के ठीक बीच में विराजती है। उसके चेहरे को सम्पूर्णता इसी बिंदी से मिलती है।
उसे हल्के रंग पसंद हैं या एकदम शोख। आम तौर पर करीने से पहनी कॉटन साड़ी। उसका अच्छा, सुखी घर-परिवार है। बेहद सौम्य, अंतरंग मित्र की तरह पति और बहुत प्यारे दो बच्चे।
वह बहुत पढ़ी-लिखी है और बहुत ही सुसंस्कृत, साहित्यिक परिवार से नाता रखती है, लेकिन वह कभी इन नातों का ढिंढोरा नहीं पीटती। उसके व्यवहार में एकदम खुलापन, अपनापन और अंतरंगता आप पहली ही मुलाकात में महसूस कर सकते हैं। उसके फोन या पत्र भी अपनेपन की चाशनी से पगे होते हैं। उसे इग्नोर किया ही नहीं जा सकता। न उसे न उसके लेखन को। वह अपनी मौज़ूदगी शिद्दत से महसूस करवाना जानती है।
आप उसकी उम्र के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकते। वह अपनी उम्र बताये भी तो आपको लगेगा, अपनी उम्र बढ़ा कर बता रही है। लड़कियां भला ऐसे भी करती हैं! असम्भव!! वह इतनी उम्र की तो हो ही नहीं सकती। लगा लो शर्त।
बेशक उसकी उम्र का अंदाज़ा आप न लगा सकें लेकिन अपने लेखन की उम्र न तो वह छुपाती है और न आपसे छुपी है।
उसने 1995 के आसपास से लेखन को गंभीरता से लेना शुरू किया। पहले कविताएं फिर मुकम्मल कहानी। शायद पहली कहानी अहिल्या हंस में 1996 में छपी थी। मेरी फाइलों में अभी भी रखी है। अब तक कुल जमा बीस के करीब कहानियां, पचास के करीब कविताएं और कुछेक लेख। प्रकाशन के हिसाब से राष्ट्रीय स्तर की कोई पत्रिका नहीं छूटी। हंस, कथादेश, इंडिया टूडे, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, समीक्षा, बया, इरावती आदि में प्रकाशन। अभी से राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक आयोजनों के बुलावे आने लगे हैं और उसके लेखन को मान्यता मिलने लगी है।
पिछले बरस परिवेश सम्मान के घोषित होने के पद्रह दिन के भीतर एक और सम्मान। तब उसने एसएमएस भेज कर बताया कि शैलेश मटियानी स्मृति सम्मान आपकी इस मित्र को मिला है। (सरकार को चाहिये कि एसएमएस भेजने पर पूरी तरह से बैन लगा दे। जब से कम्बख्त ये सर्विस आयी है, होली, दीवाली, नये साल या जन्म दिन की मुबारक तक तो ठीक था, मित्र लोग अब इतनी खास खबरें भी एसएमएस के जरिये ही देने लगे हैं। आदमी खबर के भीतर मौजूद अपनेपन और खुशी से जुड़ ही नहीं पाता। प्रसंगवश, मेरे छोटे भाई ने जब पहली बार अपना घर खरीदा तो उसकी खबर भी उसने मुझे एमएमएस से ही दी थी।) खैर।
वह एकदम ऐसा सामान्य जीवन जीती है जो भारत की अधिकांश छोटे शहर में रहने वाली पढ़ी-लिखी लड़कियों के हिस्से में आता है। वह बड़ी लड़कियों के कॉलेज में पढ़ाती है इसलिए उसके हिस्से में भी वे सारी जद्दोजहद, तकलीफें और अनुभव आते हैं जो किसी भी कामकाजी लड़की के हिस्से में आते हैं। वह कभी अपनी स्कूटी पर जाती है नौकरी पर या बाज़ार तो कभी बस में धक्के खाते हुए पस्त हालत में पहुंचती है ज़माने भर की लानत मलामत करते हुए। आम लड़कियों की तरह उसकी भी स्कूटी ऐन ऐसे वक्त पर खराब या पंचर हो जाती है जब वह बेहद मुश्किल शारीरिक तकलीफ के दौर से गुज़र रही होती है। बस में जब वह सफर करती है तो उसके हिस्से में भी ऐसे लम्पट, कामुक और आंखों ही आंखों में कपड़े तक उतार लेने वाले सहयात्री भी आते हैं और बस में कोई सहयात्री ज्यादा ही छूट लेने लगे या घर बार का पता या आने जाने का शेड्यूल पूछने लगे तो हमारी ये भैंजी जी भरी बस में ही, बिना हाजरी रजिस्टर खोले क्लास लेने लगती हैं और उस शख्स की इतनी लानत मलामत करती हैं कि बेशक उसने चार स्टॉप आगे का टिकट ले रखा हो, अगले स्टॉप पर ही उतरने में अपनी भलाई समझता है।
उसकी निगाह में यही बोल्डनेस है। वह यह मानती है कि लड़की तंग कपड़े, हाइ हील या चुस्त जींस पहन कर या गिट पिट अंग्रेजी बोल कर बोल्ड नहीं बनती। अगर वह अपनी अस्मिता की रक्षा न कर सके, चार आदमियों के बीच अपनी सही बात ज़ोर दे कर न कह सके और ऐन वक्त पर सही गलत का फैसला न कर सके तो ऐसी जींस पहनने वाली से गांव की वह छोरी भली जो मां बहन की गाली दे कर भी गुंडों की सिट्टी पिट्टी गुम कर दे। उसकी सारी कथा नायिकाएं सचमुच बोल्ड हैं।
वह किसी की भी परवाह नहीं करती। भुनभुनाते हुए ही सही, अपनी धुन में अपनी राह चलती रहती है। वह राह जो उसने अपने लिए चुनी है और अपनी कथा नायिकाओं के लिए चुनी है। अमूमन उसकी कहानियों की नायिका उसके जैसा जीवन जी रही कोई लड़की ही होती है इसलिए उसके लिए सब कुछ जस का तस बयान कर पाना बेहद सहज और सरल होता है। कहीं भी हमें बनावटीपन नहीं लगता। हम जानते हैं कि हां, अकेली लड़की के साथ ये सब होता रहता है। हम उसकी रोज़मर्रा की तकलीफों से वाकिफ होते हैं लेकिन जो खास बात उसकी कहानियों में बारीक रेशों की तरह बुनी हुई हम पाते हैं, वही उसे अपनी समकालीन लेखिकाओं से अलग भी करती है और उनसे खास भी बनाती है, वह है औरत की भीतरी और बाहरी दुनिया के इन छोटे छोटे संकेतों के जरिये उसकी ज़िंदगी में हो रहे बड़े बड़े परिवर्तनों की तरफ इशारा। वह लगातार आपको याद दिलाती रहती है कि इन सब तकलीफों से मुक्ति संभव है और ये मुक्ति मिलेगी अपने स्व को पहचान कर, अपनी ताकत को पहचान कर और न केवल पहचान कर बल्कि उसे वक्त की धार पर और पैना करके। वह औरत की आर्थिक स्वतंत्रता की पक्षधर है और ये बात उसकी सभी कहानियों में साफ तौर पर देखी जा सकती है।
ये कहानियां बैठे ठाले का बुद्धि विलास नहीं हैं और इनके ज़रिये एक ऐसी बात लेखिका हम तक पहुंचाना चाहती है जो बेशक हमारी नज़र में तो थी, लेकिन हमने उस पर इस तरह से कभी गौर नहीं किया था कि इनमें बदलाव की प्रक्रिया के बीज भी छुपे हुए हैं और कि देखी पहचानी चीज़ों को देखने का सदियों पुराना नज़रिया बदलने की ज़रूरत है।
उसकी कहानियों में कुछ भी वर्ज्य नहीं हैं हालांकि उसके व्यक्तित्व, संस्कारों और लेखन की शानदार पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए उसके लेखन में एकाधिक बार आये रति प्रसंग या कम से कम महिला लेखन में आम तौर पर न पाये जाने वाले प्रसंग संस्कारवान पाठक को थोड़ा विचलित भी करते हैं। वह इन स्थितियों का भी पूरी सहजता से बयान करती चलती है और मन पर कोई बोझ नहीं रखती।
लेखिका को सचमुच बधाई देने को जी चाहता है कि उसकी इन गिनी चुनी कहानियों में उसकी निगाह से उस तरह के चरित्र भी चूके नहीं हैं और इसके लिए बेशक कभी कभार उस पर अश्लीलता परोसने का आरोप भी लगता रहा है।
भाषा के मामले में वह बहुत धनी है। छोटे छोटे वाक्य, अर्थ पूर्ण और सटीक। कई जगह दो दो शब्दों के वाक्य के जरिये गहरी बात कही है। उपस्थिति कहानी में वह कहती है - चीज़ों को समय समय पर रिपेयर कराने की जरूरत होती है। आदमियों को भी। इसी कहानी में वह आगे कहती है कि न दौड़ में कोई अकेला है न छूट जाने में।
वह स्त्री मुक्ति की सबसे बड़ी पक्षधर है। वह जानती है और चाहती भी है कि आर्थिक आज़ादी और अपने फैसले खुद ले पाने की ताकत ही उसे आत्म विश्वास और आत्म सम्मान दे सकते हैं।
उसकी ज्यादातर सारी कहानियां आम तौर पर औरत की ज़िंदगी के आस पास घूमती हैं। उसका घर बार, उसकी अधूरी हसरतें, अतृप्त कामनाएं, अपने आप से शिकायतें, अपनी जिंदगी से शिकायतें, कुछ कर गुजरने की तमन्नाएं, पति पत्नी के बीच बारीकी से रिसती रिश्तों की गर्माहट, टूटते संबंध और आधुनिक जीवन की रेलम पेल, छोटी मोटी बदमाशियां।
लेखिका का निगाह में आज की औरत हर वक्त है। वह उसकी तकलीफों से बावस्ता है और जल्द से जल्द कोई ऐसी राह खोजना चाहती है कि उसे ही तरह की तकलीफों से निजात दिलायी जा सके।
लेखिका के पास निश्चित ही कोई जादुई चिराग नहीं है जिसे रगड़ते ही. . . । हां, इतना भरोसा जरूर उसकी कहानियां दिलाती है कि अंधेरी सुरंग के पास रौशनी के कुछ कतरे जरूर हैं और जो वहां तक पहुंच गया, वही सिकंदर।
कुछेक बातें शिल्प को ले कर भी। जाने क्यों मुझे ऐसा क्यों लगता है कि जैसे ज्यादातर कहानियों में लेखिका खुद से ही बातें कर रही है। वह पूरी दुनिया में अकेली है। उसकी आवाज कहीं तक नहीं पहुंच रही और कोई उसके आस पास नहीं जो उसके सुख दुख उससे शेयर करे। वह हर कहानी में अपने आप से बातें करती नज़र आती है। ढेर सारी बातें जिनके सिरे कई बार एक दूसरे से मिलते भी नहीं। जैसे हम सोचते समय कहां से कहां पहुंच जाते हैं और काफी देर बार अपने ख्यालों की डोर पकड़े वापिस भी आ जाते हैं। कुछेक कहानियां तो सोच के धरातल पर ही चलती रहती है, चलती रहती हैं और पाठक को भटकाती रहती हैं। पता नहीं चलता कुछ हो भी रहा है या नहीं। या ये सब क्या हो रहा है। लेखिका को इस तरफ ध्यान देना चाहिये।
दूसरी बात विविधता की। किसी भी लेखक के लिए बहुत स्वाभाविक होता है अपनी शुरुआती कहानियों में अपने आपको नायक या नायिका बना कर प्रस्तुत करना। सबको अपने आप में कहानी की असीम संभावनाएं नज़र आती हैं और इस तरह से हर कहानी पिछली कहानी का विस्तार ही नज़र आती है।
दस पद्रह कहानियों की पूंजी के बाद इस सोच में बदलाव आना ही चाहिये और लेखक को अपने आपसे बाहर निकल कर भी कहानियों की तलाश करनी चाहिये। शीशा देखने से तो हर बार अपना ही चेहरा दिखायी देगा। धूप में निकलना बहुत जरूरी है।
अब तो उसके पहले कहानी संग्रह के तीन संस्करण आ गये हैं और दूसरा कहानी संग्रह छावनी में बेघर भी आ गया है। पहले कहानी संग्रह के पंजाबी और अंग्रेजी अनुवाद के प्रस्ताव उसके पर्स में हैं।
उसे अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है और मुझे यकीन है, अल्पना मिश्र की मंजिल उसकी निगाह में है। बस, कदम बढ़ाने की देर है।
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आते हुए लोग
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1 comment:
सूरज जी, बहुत बहुत धन्यवाद. अपनी ख़राब तबीयत के बावजूद आपने यह पोस्ट लगाई. अल्पना मिश्र जी को उनकी मंज़िल जल्दी मिले, ऐसी सारे कबाड़ियों की दुआ है. आमीन!
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