Sunday, March 16, 2008

'मुर्ग-रम बुढ़ैला' उर्फ एक कवितामयी रेसिपी का रहस्योदघाटन



* अब जबकि अशोक पान्डे ने रघुवीर भाई की ओरिजिनल रेसिपी 'बकर तोतला' बनाने का तरीका विस्तार और पूरे विधि-विधान से समझा दिया है और उम्मीद है कि आज इतवार की छुट्टी का सदुपयोग करते हुए 'कबाड़खाना' के सुधी भाई-बहन लोग पाकशास्त्र में पारंगत होने के प्रयोग में लगे होंगे तब अनायास हाथ आये मौके का फायदा उठाकर क्यों न एक ऐतिहासिक रेसिपी का रहस्योदघाटन कर दिया जाय.हो सकता है कि आप इससे तात्कालिक रूप से भले ही लाभान्वित न हों किंतु यदि भविष्य के लिये 'सचेत' हों जायें तो यह इस कबाड़ी के लिये फख्र की बात होगी.

* अब थोडी-सी बात इसके इतिहास और भूगोल पर भी.यह आज से कई बरस पहले हमारी 'गदहपचीसी'के दिनों की दर्द भरी दास्तान है. नैनीताल के 'ब्रुकहिल' और 'हिमालय' में संपन्न पाक कला के प्रयोगों में से एक यह भी था. 'बकर तोतला' ने इसकी याद दिला दी और जब अपनी टिप्पणी में मैने इसका उल्लेख किया तथा 'कबाड़खाना' के पन्नों पर लगाने की मंशा जाहिर की तो अशोक ने हमेशा की तरह हां कर दी.अशोक पांडे इस समय केरल की महत्वपूर्ण यात्रा के बाद बंगलुरु में कयाम किये हुये हैं.दो-चार दिन वहां का आनंद और आस्वाद लेकर दिल्ली दरबार में आयेंगे, फिर होली से पहले हलद्वानी.तब अपन 'बकर तोतला' पर हाथ आजमायेंगे,आप भी आयें 'सुआगत' है।


* ऊपर जिस दौर का उल्लेख किया गया है,उस दौर में मैंने ' मुर्गा: एक दिन जरूर ' शीर्षक एक कविता लिखी थी जो मूलतः 'मुर्गा बूढ़ा निकला' के जवाब में लिखी गई थी या यों कहें कि एक कविता-जुगलबंदी थी.उस कविता को पढ़ने-देखने के लिये मेरे ब्लाग ' कर्मनाशा' http://karmnasha.blogspot.com पर जाने की जहमत उठायें. यहां प्रस्तुत है अशोक पांडे की कविता- 'मुर्गा बूढ़ा निकला'.



मुर्गा बूढ़ा निकला

दो सौ रुपये की शराब का
मजा बिगड़ कर रह गया
मुर्गा बूढ़ा निकला

ढ़ेर सारे
प्याज लहसुन और मसालों में भूनकर
प्रेशर कुकर पर चढ़ा दिया मुर्गा
दस बारह सीटियां दीं
मुर्गा गला नहीं
मुर्गा बूढ़ा निकला

थोड़ा-थोड़ा नशा भी चढ़ने लगा था
सब काफूर हो गया
दांतों की ताकत जवाब दे गई
मुर्गा चबाया नहीं गया
सोचता हूं
मुर्गे अगर बोल पाते तो क्या करते
मशविरा कर कोई रास्ता ढ़ूढते
सारी जालियां तोड़कर
सड़क पर आ जाते मुर्गे

वाह प्रकृति !
तू कितनी भली है
बड़ा अच्छा किया बेजुबान बनाया मुर्गा
जाली के पीछे बनाया मुर्गा

फिर भी
सोचता हूं
अगर जाली में बंद मुर्गा
बोल पाता तो कितना अच्छा होता

कल शाम
मुर्गा खरीदने से पहले
मुर्गे से ही पूछ लेते उसकी उम्र
-हमारी शाम तो खराब नहीं होती
दो सौ रुपये की शराब का
मजा तो न बिगड़ता

1 comment:

दिनेश पालीवाल said...

गुरु
अब तो सारे मुर्गे चिकन बन कर रह गए हैं.
और ज्यादातर आदमजात चिकन से बुड्ढे मुर्गे बन गए हैं.
जो दारु में भी नहीं पकते.