राही मासूम रजा की लेखनी से प्रभावित पीढी अभी भी उनके लेखन की दीवानी है। एक बार किसी मामले में उनका आक्रोश कुछ इस तरह नजर आया और लिखे पत्र में कुछ सवाल इस तरह सामने रखा। हरेक पंक्तियाँ कुछ न कुछ संदेश देकर एक सवाल लोगों के सामने रखने का काम करती है...विनीत उत्पल
सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन
इश्क तराजू तोहै, लेकिन, इस पे दिलों को तौले कौन
सारा नगर तो ख्वाबों की मैयत लेकर श्मशान गया
दिल की दुकानें बंद पडी है, पर ये दुकानें खोले कौन
काली रात के मुंह से टपके जाने वाली सुबह का जूनून
सच तो यही है, लेकिन यारों, यह कड़वा सच बोले कौन
हमने दिल का सागर मथ कर kadha तो कुछ अमृत
लेकिन आयी, जहर के प्यालों में यह अमृत घोले कौन
लोग अपनों के खूं में नहा कर गीता और कुरान पढ़ें
प्यार की बोली याद है किसको, प्यार की बोली बोले कौन।
-----राही मासूम रजा
2 comments:
पिछली रात को यह एक सुखद संयोग ही था कि जिस वक्त मैं एक साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका के लिये राही मासूम रज़ा की फ़िल्मों पर एक लेख पूरा कर ई मेल करने जा रहा था ,ठीक उसी वक्त पर ' हवस के इस सहरा में बोले कौन 'पर निगाह पड गई और मैने अपने लेख के आखीर में जो शेर कोट किया तह उसे बदल दिया,आपकी पोस्ट से उठाकर.प्यारे भाई कुछ गलत तो नहीं किया न? राही हम सबके हैं.
आपने सही कहा राही सभी के हैं. उनकी रचनाये सभी की हैं.
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