Thursday, June 26, 2008

रोज़ अख़बार मैं उलटी तरफ़ से शुरू करता हूं जैसे यह हिन्दी का नहीं उर्दू का अख़बार हो

१८५७ के गदर को समकालीनता के बरअक्स रखकर उसकी गहरी पड़ताल करती असद ज़ैदी की कविता 'सामान की तलाश' आप यहां पहले भी देख चुके हैं. यह कविता 'पहल' समेत कई बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने के बाद अब असद ज़ैदी के नए संग्रह का हिस्सा है. इत्तेफ़ाक़ से इसी कविता का शीर्षक ही किताब का नाम भी है. परिकल्पना प्रकाशन से छपी इस किताब में कवि की १९८९ से २००७ के दौरान की कविताएं संकलित हैं.

अपनी संपूर्णता में यह पुस्तक एक झकझोर देने वाला दस्तावेज़ है. भारतीय इतिहास के पिछले दो महत्वपूर्ण दशकों में उपजीं तमाम विद्रूपताएं और विसंगतियां तो इस पुस्तक की कविताओं की ज़द में आती ही हैं, कविता के सबसे आदिम महास्वरों में यहां-वहां गूंजते प्रेम और दरख़्तों की झलक भी दिख जाती है. मेरे विचार से यह संग्रह पिछले कुछ सालों में हिन्दी में प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ कविता संग्रहों में गिना जा सकता है. आज पढ़िये उसी से एक कविता. आगे कोशिश करूंगा असद ज़ैदी की कुछ और रचनाएं आपको पढ़वा सकूं.



जो देखा नहीं जाता

हैबत के ऐसे दौर से गुज़र है कि
रोज़ अख़बार मैं उलटी तरफ़ से शुरू करता हूं
जैसे यह हिन्दी का नहीं उर्दू का अख़बार हो

खेल समाचारों और वर्ग पहेलियों के पर्दों से
झांकते और जज़्ब हो जाते हैं
बुरे अन्देशे

व्यापार और फ़ैशन के पृष्ठों पर डोलती दिखती है
ख़तरे की झांईं

इसी तरह बढ़ता हुआ खोलता हूं
बीच के सफ़े, सम्पादकीय पृष्ठ
देखूं वो लोग क्या चाहते हैं

पलटता हूं एक और सफ़ा
प्रादेशिक समाचारों से भांप लेता हूं
राष्ट्रीय समाचार

ग़र्ज़ ये कि शाम हो जाती है बाज़ औक़ात
अख़बार का पहला पन्ना देखे बिना.

(पुस्तक प्राप्त करने हेतु सम्पर्क करें: परिकल्पना प्रकाशन, डी-६८, निरालानगर, लखनऊ-२२६ ००६. कीमत: रु. ५०.०० पेपरबैक, रु. १२५ सजिल्द)

3 comments:

कामोद Kaamod said...

ग़र्ज़ ये कि शाम हो जाती है बाज़ औक़ात
अख़बार का पहला पन्ना देखे बिना.

शुक्रिया

आशीष कुमार 'अंशु' said...

पसंद आई कविता...

शिरीष कुमार मौर्य said...

असद जैदी एक अद्भुत कवि हैं ! उनका महत्व आने वाले समय में पहचाना जाएगा!