Thursday, July 3, 2008

पूरे दस मिनट पढ़ने की फ़ुरसत न हो तो कृपया इसे न पढ़ें

कुछ मित्रों की फ़रमाइश पर हमारे सम्मानित कवि श्री वीरेन डंगवाल की एक लम्बी कविता प्रस्तुत की जा रही है. कृपया पोस्ट के शीर्षक से भड़कें नहीं क्योंकि यह कविता एक साथ इतने सारे स्तरों पर एक साथ काम करती जाती है कि अचरज होता है. इसीलिये यह बहुत गम्भीरता से पढ़े जाने की दरकार रखती है:

कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा
('क्षुधार राज्ये पृथिवी गद्यमय')

मैं थक गया हूं
फुसफुसाता है भोर का तारा
मैं थक गया हूं चमकते-चमकते इस फीके पड़ते
आकाश के अकेलेपन में.
गंगा के खुश्क कछार में उड़ती है रेत
गहरे काही रंग वाले चिकने तरबूज़ की लदनी ढोकर
शहर की तरफ़ चलते चले जाते हैं हुचकते हुए ऊंट
अपनी घंटियां बजाते प्रात की सुशीतल हवा में

जेठ विलाप के रतजगों का महीना है

घंटियों के लिए गांव के लोगों का प्रेम
बड़ा विस्मित करने वाला है
और घुंघरुओं के लिए भी.

रंगीन डोर से बंधी घंटियां
बैलों-गायों-बकरियों के गले में
और कोई-कोई बच्चा तो कई बार
बत्तख़ की लम्बी गर्दन को भी
इकलौते निर्भार घुंघरू से सजा देता है

यह दरअसल उनका प्रेम है
उनकी आत्मा का संगीत
जो इन घंटियों में बजता है

यह जानकारी केवल मर्मज्ञों के लिए.
साधारण जन तो इसे जानते ही हैं.

***

दरअसल मैंने तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता
वह छोटा नहीं था न आसान
फ़क़त फ़ितूर जैसा एक पक्का यक़ीन
एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने.

जब मैं उतरा गंगा की बीहड़ कटरी में
तो पालेज में हमेशा की तरह उगा रहे थे
कश्यप-धीमर-निषाद-मल्लाह
तरबूज और खरबूजे
खीरे-ककड़ी-लौकी-तुरई और टिंडे.

'खटक-धड़-धड़' की लचकदार आवाज़ के साथ
पुल पार करती
रेलगाड़ी की खिड़की से आपने भी देखा होगा कई बार
क्षीणधारा की बग़ल में
सफ़ेद बालू के चकत्तेदार विस्तार में फैला
यह नरम-हरा-कच्चा संसार.

शामों को
मढ़ैया की छत की फ़ूंस से उठता धुंआ
और और भी छोटे-छोटे दीखते नंगधड़ंग श्यामल
बच्चे-
कितनी हूक उठाता
और सम्मोहक लगता है
दूर देस जाते यात्री को यह दृश्य.

ऐसी ही एक मढ़ैया में रहती है
चौदह पार की रुकुमिनी
अपनी विधवा मां के साथ.

बड़ा भाई जेल में है
एक पीपा कच्ची खेंचने के जुर्म में
छोटे की सड़ी हुई लाश दो बरस पहले
कटरी की उस घनी, ब्लेड-सी धारदार
पतेल घास के बीच मिली थी
जिसमें गुजरते हुए ढोरों की भी टांगें चिर जाती हैं.

लड़के का अपहरण कर लिया था
गंगा पार के कलुआ गिरोह ने
दस हज़ार की फ़िरौती के लिए
जिसे अदा नहीं किया जा सका.
मिन्नत-चिरौरी सब बेकार गई.
अब मां भी बालू में लाहन दाब कर
कच्ची खेंचने की उस्ताद हो चुकी है
कटरी के और भी तमाम मढ़ैयावासियों की तरह.

***

कटरी के छोर पर बसे
बभिया नामक जिस गांव की परिधि में आती है
रुकुमिनी की मढ़ैया
सोमवती, पत्नी रामखिलौना
उसकी सद्यःनिर्वाचित ग्रामप्रधान है.
'प्रधानपति' - यह नया शब्द है
हमारे परिपक्व हो चले प्रजातान्त्रिक शब्दकोश का.

रामखिलौना ने
बन्दूक और बिरादरी के बूते पर
बभिया में पता नहीं कब से दनदना रही
ठाकुरों की सिट्टी-पिट्टी को गुम किया है.
कच्ची के कुटीर उद्योग को संगठित करके
उसने बिरादरी के फटेहाल उद्यमियों को
जो लाभ पहुंचाए हैं
उनकी भी घर-घर प्रशंसा होती है.
इस सब से उसका मान काफ़ी बढ़ा है.
रुकुमिनी की मां को वह चाची कहता है
हरे खीरे जैसी बढ़ती बेटी को भरपूर ताककर भी
जिस हया से वह अपनी निगाह फेर लेता है
उससे उसकी सच्चरित्रता पर
मां का कृतज्ञ विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है.
रुकुमिनी ठहरी सिर्फ़ चौदह पार की
'भाई' कह कर रामखिलौना से लिपट जाने का
जी होता है उसका
पर फिर पता नहीं क्या सोचकर ठिठक जाती है.

***

मैंने रुकुमिनी की आवाज़ सुनी है
जो अपनी मां को पुकारती बच्चों जैसी कभी
कभी उस युवा तोते जैसी
जो पिंजरे के भीतर भी
जोश के साथ सुबह का स्वागत करता है.

कभी सिर्फ़ एक अस्फुट क्षीण कराह.

मैंने देखा है कई बार उसके द्वार
अधेड़ थानाध्यक्ष को
इलाके के उस स्वनामधन्य युवा
स्मैक तस्कर वकील के साथ
जिसकी जीप पर इच्छानुसार 'विधायक प्रतिनिधि'
अथवा 'प्रेस' की तख़्ती लगी रहती है.
यही रसूख होगा
या बूढ़ी मां की गालियों और कोसनों का धाराप्रवाह
जिसकी वजह से
कटरी का लफ़ंगा स्मैक नशेड़ी समुदाय
इस मढ़ैया को दूर से ही ताका करता है
भय और हसरत से.

एवम प्रकार
रुकुमिनी समझ चुकी है बिना जाने
अपने समाज के कई जटिल और वीभत्स रहस्य
अपने निकट भविष्य में ही चीथड़ा होने वाले
जीवन और शरीर के माध्यम से
गो कि उसे शब्द 'समाज' का मानी भी पता नहीं.
सोचो तो?
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है.

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उस में से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश.

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बग़ल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता.

***

रुकुमिनी का हाल जो हो
इस उमर में भी उसकी मां की सपने देखने की आदत
नहीं गई.
कभी उसे दीखता है
लाठी से गंगा के छिछले पेटे को ठेलता
नाव पर शाम को घर लौटता
चौदह बरस पहले मरा अपना आदमी नरेसा
जिसकी बांहें जैसे लोहे की थीं;
कभी पतेल लांघ कर भागता चला आता बेटा दीखता है
भूख-भूख चिल्लाता
उसकी जगह-जगह कटी किशोर
खाल से रक्त बह रहा है.

कभी दीखती है दरवाज़े पर लगी एक बरात
और आलता लगी रुकुमिनी की एड़ियां.

सपने देखने की बूढ़ी की आदत नहीं गई.

उसकी तमन्ना ही रह गई:
एक गाय पाले उसकी सेवा करे उसका दूध पिए
और बेटी को पिलाए
सेवा उसे बेटी की करनी पड़ती है.

काष्ठ के अधिष्ठान खोजती वह माता,
हर समय कटरी के धारदार घास भरे
खुश्क रेतीले जंगल में
उसका दिल कैसे उपले की तरह सुलगता रहता है
इसे वही जानती है
या फिर वे अदेखे सुदूर भले लोग
जिन्हें वह जानती नहीं
मगर जिनकी आंखों में अभी भी उमड़ते हैं नम बादल
हृदयस्थ सूर्य के ताप से प्रेरित.
उन्हें तो रात भी विनम्र होकर रोशनी दिखाती है,
पिटा हुआ वाक्य लगे फिर भी, फिर भी
मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का ख़ामोश गीत गाती है.
मुंह अंधेरे जांता पीसते हुए.

इसीलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने
फ़ितूर सरीखा एक पक्का यक़ीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब.

(उपशीर्षक के बारे में: बहुत ही कम आयु में दिवंगत हो गए बांग्ला कवि सुकान्त भट्टाचार्य की एक प्रसिद्ध कविता का शीर्षक: 'क्षुधार राज्ये पृथिवी गद्यमय' अर्थात भूख के राज्य में धरती गद्यमय है)

10 comments:

महेन said...

धन्यवाद ऐसी रचना पढ़वाने के लिये।
शुभम।

PD said...

nahi padhta ji.. fursat me padhunga.. abhi jyada time nahi hai.. :)

दिनेशराय द्विवेदी said...

पढ़ ली!

Priyankar said...

मर्म को कुरेदने वाले कवि हैं वीरेन डंगवाल . कहन की उनकी अपनी एक विशिष्ट घरू शैली है जिसके वे उस्ताद हैं .

अपराजिता 'अलबेली' said...

पढ़कर बहुत अच्छा लगा. वीरेन डंगवाल यूं भी पसंदीदा कवि हैं.

siddheshwar singh said...

लाजवाब!
और क्या कहूं?
शुक्रिया ! एक बड़े कवि की इस बड़ी रचना को प्रस्तुत करने के लिए. अशोक दद्दा,अभी तक इसे आपके मुख से सुन ही पाया था वह भी वह भी आधी रात गुजर जाने के बाद टेलीफ़ोन पर.पढ़ना एक अलग और दिव्य अनुभव है-कुछ अवसाद से भरा भी तथा जिजीविषा की आश्वस्ति से लबरेज भी.

पारुल "पुखराज" said...

hamrey yahan KATRI ILAAKE KE NAAM SE hi log sahm jaatey hain....aur
और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उस में से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश.
is sach pe koi kya kahegaa?..badhiyaa panktiyaan..

Unknown said...

काष्ठ के अधिष्ठानों पर खट-खट चलता हमारा यह लंगडा़, निर्बल साठ साल का प्रजातंत्र।

प्रशंसा के आगे, एक पाठक से एक कवि जो कुछ भी उम्मीद करता है मैं वह सब इस कविता को देता हूं। धन्यवाद वीरेन डंगवाल जी और अशोक जी।

आर. अनुराधा said...

पहले तो-
'यह जानकारी केवल मर्मज्ञों के लिए.
साधारण जन तो इसे जानते ही हैं.'

और फिर-

'और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उस में से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश.'

गज़ब!!!

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

रामखिलौना ने
बन्दूक और बिरादरी के बूते पर
बभिया में पता नहीं कब से दनदना रही
ठाकुरों की सिट्टी-पिट्टी को गुम किया है.

yah kahna chahonga kee babhiya gaon me ek bhee thakur nahi hai.
mana ke jagah dar jagah hamne julm kiye .lakin aisa bhee nahi kee hamne sab jurm kiye.ha bandoke hai hamare paas lakin rakshak hai hum, AUR EK BAAT THAKUR JARAYAM KAOM NAHEE HAI.KIRPYA AB TO BAKSH DE