Saturday, July 5, 2008

पुरुष को तुम कैसे देखना सिखा सकती हो: एक कविता त्रिनिदाद से

१८४५ से १९१७ के बीच भारत के विभिन्न प्रान्तों से कैरिबियाई द्वीपों में पहुंचाए हए निर्धन, बेसहारा गिरमिटियों की अब चौथी से सातवीं पीढ़ियां वेस्ट इंडीज़ के तमाम हिस्सों में स्थापित हो चुकी हैं और एक अलग हिन्दुस्तान वहां लगातार रचा जा रहा है. वहां के अति लोकप्रिय चटनी संगीत से आपको भाई विमल वर्मा कई बार रू-ब-रू करा चुके हैं.


माया देवी १९६६ में पोर्ट ऑफ़ स्पेन में जन्मीं इसी अनूठे संसार की एक स्थापित कवयित्री हैं. प्रस्तुत है उन की एक कविता:

पुरुष को तुम कैसे देखना सिखा सकती हो

पुरुष को तुम कैसे देखना सिखा सकती हो
जो देखता है ख़ूबसूरती भरी इस दुनिया को
अपनी ललछौंही उदासी-रंगी आंखों से
और देखता है केवल वे सपने जो टुकड़े-टुकड़े
होते और मरते जाते

पुरुष को तुम कैसे देखना सिखा सकती हो
रागों की धुनें और ख़ुशनुमा वाहवाही
जबकि वह सुनता है टूटना अपने दिल का
और बसता है उन स्मृतियों में, बारिश की तरह
जो बेधती हैं

अनुभवों के ज़हर के बावजूद
वह स्वीकारता नहीं विष हर लेने वाली कोई दवा
मरता है धीरे-धीरे - एकान्त में ... अकेला

(अनुवाद: डॉ. सुवास कुमार)