Sunday, July 20, 2008

मंगलेश डबराल: उसे विफलता नहीं, उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए!

पिछले कई दिनों से चल रहे असद जैदी विवाद में जिस व्यक्ति की बार-बार लगभग मानहानि जैसी हुई है, वो हैं हमारे प्रिय और विलक्षण कवि मंगलेश डबराल। मंगलेश जी ने असद जी वाले मामले में सच कहने का साहस दिखाया और कई-कई साम्प्रदायिक हमले भी सहे। ऐसे विवाद चाहें तो जिन्दगी भर चलते रह सकते हैं। असद जैदी और मंगलेश डबराल दोनों ही हमारे समय के बहुत बड़े कवि हैं और उन्होंने अब तक जितना रच लिया है, उसी से वे आने वाले समय में अपनी जगह बना चुके हैं। आज कवि वीरेन डंगवाल से इस सम्बन्ध में हुई एक बातचीत के बाद यहां प्रस्तुत हैं मंगलेश जी की दो प्रसिद्ध कविताएं: 'संगतकार´ और `केशव अनुरागी´, जिनमें मंगलेश जी के सीधे-सरल व्यक्तित्व का मूल मंत्र भी छुपा है।

संगतकार

मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज सुन्दर कमजोर कांपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य या
पैदल चलकर सीखने आनेवाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज में
वह अपनी गूंज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है या अपने ही सरगम को लांघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थायी को सम्भाले रहता है
जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढ़स बंधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे जाता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊंचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए !


केशव अनुरागी


ढोल एक समुद्र है साहब केशव अनुरागी कहता था
इसके बीसियों ताल हैं सैकड़ों सबद
और कई तो मर-खप गए हमारे पुरखों की ही तरह
फिर भी संसार में आने और जाने अलग-अलग ताल साल
शुरू हो या फूल खिलें तो उसके भी अलग
बारात के आगे-आगे चलती इसकी गहन आवाज
चढ़ाई उतराई और विश्राम के अलग बोल
और झोड़ा चांचरी पांडव नृत्य और जागर के वे गूढ़ सबद
जिन्हें सुनकर पेड़ और पर्वत भी झूमते हैं अपनी-अपनी जगह
जीवन के उत्सव तमाम इसकी आवाज के बिना जीवनहीन
यह जितना बाहर बजता है उतना अपने भीतर भी
एक पाखे से फूटते बोल सुनकर बज उठता है दूसरे पाखे का कोई ढोल
बतलाता उस तरफ के हालचाल
देवताओं को नींद से जगाकर मनुष्य जाति में शामिल करता है
यह काल के विशाल पर्दे को बजाता हुआ
और जब कोई इस संसार से जाता है
तो मृत्यु का कातर ढोल सुनाई देता है
दूर-दूर से बुला लाता लोगों को
शवयात्रा में शामिल होने के लिए
लोग कहते थे केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है
ढोल सागर के भूले-बिसरे तानों को खोजनेवाला बेजोड़ गायक
जो कुछ समय कुमार गंधर्व की संगति में भी रहा
गढ़वाल के गीतों को जिसने पहुंचाया शास्त्रीय आयामों तक
उसकी प्रतिभा के सम्मुख सब चमत्कृत
अछूत के घर कैसे जन्मा यह संगीत का पंडित
और जब वह थोड़ी पी लेता तो ढोल की तानों से खेलता गेंद की तरह
कहता सुनिए यह बादलों का गर्जन
और यह रही पानी की पहली कोमल बूंद
यह फुहार यह झमाझम बारिश
यह बहने लगी नदी
यह बना एक सागर विराट प्रकृति गुंजायमान
लेकिन मैं हूं अछूत कौन कहे मुझे कलाकार
मुझे ही करना होगा
आजीवन पायलागन महराज जय हो सरकार
बिना शिष्य का गुरू केशव अनुरागी
नशे में धुत्त सुनाता था एक भविष्यहीन ढोल के बोल
किसी ने नहीं अपनायी उसकी कला
अनछपा रहा वर्षों की साधना का ढोल सागर
इस बीच ढोल भी कम होते चले गए हमारे गांवों में
कुछ फूट गए कुछ पर नई पूड़ें नहीं लगीं
उनके कई बाजगी दूसरे धंधों की खोज में चले गए
केशव अनुरागी
मदहोश आकाशवाणी नजीबाबाद की एक कुर्सी पर धंसा रहा
एक दिन वह हैरान रह गया अपने होने पर
एक दिन उसका पैर कीचड़ में फंस गया
वह अनजाने किसी से टकराया सड़क पर
एक दिन वह मनुष्यों और देचताओं के ढोल से बाहर निकल गया
अब वह रहता है मृत्यु के ढोल के भीतर

मंगलेश जी की केशव अनुरागी सुनिए उन्ही के स्वर में आर्ट ऑफ़ रीडिंग पर

5 comments:

इरफ़ान said...

मंगलेशजी की कविता हमारे ब्लॉग "आर्ट ऑफ़ रीडिंग" में यहाँ है-
http://artofreading.blogspot.com/2008/05/blog-post_25.html
-------------------

आपके लिंक से वहाँ पहुँचकर पाठक न भटके, इसलिये सही रूट भेज रहा हूँ.

Ashok Pande said...

शुक्रिया इरफ़ान साहब! लिंक ठीक किया जा रहा है.

anurag vats said...

hm sab is prakaran se chubdh hain...

Arun Sinha said...

कर्मेन्दु जैसे बदबूदार आलोचक लोग बदबू से आलोचना का काम लेते हैं। जब अपने माध्यम पर उनकी दाल नहीं गलती तो अश्लीलतापूर्ण, अनाम anonymous ब्लागिंग करवाने लगते हैं। मंगलेश डबराल और असद जैदी जी इन फ्रस्टेटेड तत्वों के निशाने पर आ गये हैं क्योंकि इन दो कवियों ने अपनी आत्मा नहीं बेची है, और किसी के सामने गिडगिडाते नहीं घूमते। पटना शहर को बदनाम करने वाले अविनाश दास और कर्मेन्दु शिशिर जैसे लोग हम सब को कलंकित करने में लगे हुए हैं। मंगलेश जी की इन कविताओं को जो पढेगा या "सबद" ब्लाग पर vatsanurag.blogspot.com पर् असद जी की 'शल्यचिकित्सा' या 'असील घराना' या 'संस्कार' कविताएं देखेगा वह अपने आप जान लेगा कि ये लोग कैसे कवि हैं। कर्मेन्दु जैसे skunks की परवाह करने की जरूरत नहीं है।

Ek ziddi dhun said...

संगतकार मेरी प्रिय कविता है. केशव अनुरागी का मंचन हरयाणा में एक नाटक ग्रुप कई बार कर चुका है. शुभा रोहतक में एक वर्कशॉप में इस कविता पर बोल रही थीं, सुना, बहुत अच्छा लगा.
कुछ घृणित लोग क्या बक रहे हैं, महत्वहीन है. हाँ इस दौर और इससे पहले दौर को लेकर, गाफिल आलोचकों आदि पर असद जैदी ने अपनी पुराणी कविता की किताब के दोबारा छपने पर जो भूमिका दी है, उसे पढ़ा जा सकता है, मेरे ब्लॉग पर फरवरी की पोस्ट में है