Monday, July 21, 2008

दग़ाबाज़ों के बीच निराला जी की याद

अन्धेरा ऐसा कि बिल्कुल नज़दीक की हर चीज़ में आसन्न मृत्यु की सघन, काली आहट; पैरों तले बेढब फिसलनभरी ज़मीन और हर हाल में चलते चले जाना सांस लेने की अनिवार्य शर्त.

मन खिन्न है बहुत दिनों से. निराला लगातार गूंज रहे हैं भीतर:


लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो
भरा दौंगरा उन्हीं पर गिरा,
उन्हीं बीजों के नए पर लगे,
उन्हीं पौधों से नया रस झिरा.

उन्हीं खेतों पर गए हल चले,
उन्हीं माथों पर गए बल पड़े,
उन्हीं पेड़ों पर नए फल लगे,
जवानी फिरी जो पानी फिरा.

पुरवा हवा की नमी बढ़ी,
जुही के जहां की लड़ी कढ़ी,
सविता ने क्या कविता पढ़ी,
बदला है बादल से सिरा.

जग के अपावन धुल गए,
ढेले गड़ने वाले थे घुल गए,
समता के दृग दोनों तुल गए,
तपता गगन घन से घिरा.


और अब इस के आगे न कोई प्रस्तावना न उपसंहार:

दग़ा की

चेहरा पीला पड़ा.
रीढ़ झुकी. हाथ जोड़े.
आंख का अन्धेरा बढ़ा.
सैकड़ों सदियां गुज़रीं.
बड़े-बड़े ऋषि आए, मुनि आए, कवि आए,
तरह-तरह की वाणी जनता को दे गए.
किसी ने कहा कि एक तीन हैं,
किसी ने कहा कि तीन तीन हैं.
किसी ने नसें टोईं, किसी ने कमल देखे.
किसी ने विहार किया, किसी ने अंगूठे चूमे.
लोगों ने कहा कि धन्य हो गए.
मगर खंजड़ी न गई.
मृदंग तबला हुआ,
वीणा सुर-बहार हुई.
आज पियानो के गीत सुनते हैं.
पौ फटी. किरनों का जाल फैला.
दिशाओं के होंठ रंगे.
दिन में, वैश्याएं जैसे रात में.
दग़ा की इस सभ्यता ने दग़ा की.

3 comments:

शोभा said...

सुन्दर रचना।

शिरीष कुमार मौर्य said...

यह निराला को याद करने का सबसे सही समय है। मुझे भी वे गाहे-बगाहे याद आते हैं। आपने ब्लाग पर उन्हें लगाया बहुत अच्छा लगा। कभी मुक्तिबोध को भी आप या मैं यहां लगाएंगे।

Ek ziddi dhun said...

निराला की कविता में ये `दौंगरा` शब्द पढ़कर मैं एकाएक अभिभूत हो गया था. दरअसल ये शब्द हमारे गाँव (मुज़फ्फरनगर जिले का हसनपुर लुहारी) में दौंगडा बोला जाता है. मसलन बारिश हुई तो लोग कहते हैं की अच्छा-खासा दौंगडा पड़ा. पूर्वी उप्र से ये यहाँ आया या यहाँ से यात्रा कर वहां गया? हैरानी ये हुई कि हमारी तहसील के पास में ही यमुना पार करनाल (हरियाणा) में इस शब्द से लोगों का परिचय नहीं मिला.