Monday, July 28, 2008

'लोकसरस्वती' का लोकसंगीत - दो प्रस्तुतियां


एक थे बाबू काली दासगुप्ता (१९२६ - २००५)। उनका परिचय बस इतना भर नहीं है कि एक सक्रिय और सजग राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने 'जन' से अपने जुडा़व को प्रचार और प्रोपेगैंडा तक सीमित रखते हुए एक साधारण और सामान्य जीवन जिया. काली बाबू का लगाव संगीत से ज्यादा था. वह भरतीय राजनीति की जिस वाम धारा से जुड़े रहे वह कितनी जन आधारित रही है या आगे रह सकेगी यह गंभीर वाद,विवाद और संवाद का मुद्दा है किन्तु अपने स्तर पर काली बाबू ने जनजीवन से अपनी निकटता को संगीत के जरिए न केवल जोड़ा बल्कि उसे बचाने का सार्थक प्रयास भी किया. अपने कार्यक्षेत्र बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के नदी-नालों, चायबागानों.बस्ती-बस्ती,परबत-परबत घूमते हुए वे श्रमिकों -कामगारों, मछुआरों-मल्लाहों, बुनकरों-रंगरेजों और उन तमाम लोगों के निकट जाक उस संगीत को सहेजने की जुगत में लगे रहे जिसे 'श्रम संगीत' कहा जाता है. इसकी प्रेरणा उन्हें १९६५ के अपने इंगलैंड दौरे के बाद मिली. उन्होंने देखा कि पश्चिम में काफ़ी लोग साधारण जनता की जीवनशैली, उसकी ताकत ,कमजोरियों और अतीत तथा स्वप्न के बीच संगति-विसंगति को समझने के लिए 'जनसंगीत' को एक औजार, उपकरण या टूल के रूप सफ़लता पूर्वक प्रयोग करे हैं. यह काम उन्हें भा गया. इस काम लिये उन्होने 'लोकसरस्वती' नाम से अपनी एक संगीत मंडली तैयार की जिसमे उनके साथ पूरबी भट्टाचार्य, सुस्मिता सेन, जॊली बागची, विश्वनाथ दत्ता, विमल दे, भास्कर राय, सौमिक दास, निरंजन हालदार, गौर पॊल, देवीप्रसाद मंडल और कुछ अन्य साथियों को मिलाकर जीवन भर उस संगीत को बचाने के काम में लगे रहे जो जनता और उसके श्रम का संगीत है- जनसंगीत.

काली दासगुप्ता का काम बिखरा पडा़ है। कुछ सीडीज में(प्राय: अप्राप्य), कुछ भारत भवन और नेशनल सेंटर फ़ॊर परफ़ार्मिंग आर्ट्स जैसी संस्थाओं के पास. लुप्त होती होती हुई धुनों को बचाकर, उन्हें पुन: प्रस्तुत कर वे तो अपना काम तो कर गये लेकिन उनकी थाती को सहेजना, समझना, सराहना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना हमारा काम है.

आज प्रस्तुत हैं काली बाबू के मंडली द्वारा दो गीत- पहला असम के चायबागानों में काम करने वाले संथाल आदिवासियों का गीत है जिसमें वे उस ठेकेदार को कोसते हैं जो उन्हें प्रलोभन देकर अपनी जमीन से उखाडकर यहां ले आया था जहां कि न चैन है न आराम। दूसरा गीत पूरबी बंगाल के मछुआरों का गीत है जिसमे नौका दौड़ में पिछड़ने वाली अपने प्रतिस्पर्धी टोली की खिल्ली उड़ाई गई है. संभव है कि इन दोनोनो गीतों के बोल समझने में कठिनाई हो लेकिन धुन तो पसंद आएगी ही क्योंकि यह खाये, पिये, मुटाये, अघाये लोगों का नहीं अपितु दुख-दलिद्दर से जूझती और उसमें ही आनंद के दो पल खोज-निकाल लेने वाली जनता का संगीत है-

'रांची से भेजल कुली' - चायबागान के श्रमिकों का संथाली गीत


'अल्ला हो बोलो' - पूरबी बंगाल के मछुआरों का गीत


8 comments:

Ashok Pande said...

अद्भुत कर्णप्रिय प्रस्तुति! काली दासगुप्ता जी पर इतना अच्छा पूर्वकथ्य और उनके द्वारा जुटाए गए संगीत की अति सुन्दर बानगी.

लोकगीत हमारी महापृथ्वी पर सहस्त्राब्दियों से जन की आत्मा से उभरे हैं और वे किसी भाषा विशेष से बांधकर नहीं देखे जा सकते. यह बात इस संदर्भ में कह रहा हूं कि आपने बोलों को लेकर एक बात कही है. आपकी टीप में गीतों का अच्छा ख़ासा परिचय वैसे ही है पहले से.

बेहतरीन संग्रहणीय पोस्ट भाई!

महेन said...

ये तो ख़ज़ाना है भाई। ऐसी पोस्ट का आगे भी इंतज़ार है।

ऐसे लोकगीतों को सुनकर अज्ञेय की एक कविता की इन पंक्तियों से सहमति नहीं बन पाती:

जीवन में जो रहा नहीं
बिसूरते लोकगीतों में
उसे कबतक रहोगे संजोते।

विजय गौड़ said...

निश्चित ही बेहतरीन कोरस है भाई. अभी तो पहला वाला ही सुन रहा हू. बार बार सुनना चाहूंगा. इससे अधिक कुछ कहते नहीं बन रहा है.

अफ़लातून said...

राजनैतिक धारा बताने में संकोच न करें।यह उन समर्पित कार्यकर्ताओं के प्रति अन्याय है।

Unknown said...

गजब अशोक भाई,
कहां ले आए आप। आठ साल पहले जोराहाट में एक चायबागान बस्ती में टीबी से गल चुकी एक बुढिया ने सुनाया था-
बाबू बोले काम-काम
सरदार बोले आरो हाम
साहेब बोले लिबो पीठेर चाम
ओ जादूराम फाकी दिया पोठिलो आसाम।।

सारा दिन उसी निर्मम हरियाली में फिरते बीता आज,क्या कहूं आपको धन्यवाद।

शिरीष कुमार मौर्य said...

जवाहिर चा !
ग़ज़ब की चीज़ लाए हैं!

पारुल "पुखराज" said...

dhun to samjh aayii..badhiyaa

sanjay patel said...

सिध्द दा.
क्या बात है. कैसा सुहावन मार्दव है इन गीतों में जैसे केले के पत्ते पर किसी ने केसरिया भात परोस दिया. डिस्पोज़िबल में जीती ज़िन्दगी में ये बंदिशें हमें हमारे विरसे से मिलवातीं हैं.
कितनी सहज मस्ती...बिलकुल भी ओढ़ी हुई नहीं..अदभुत...अप्रतिम.