सात आठ माह पहले मैंने कबाड़ख़ाने में नरेश सक्सेना जी की कुछ कविताएं आपको पढ़वाई थीं. कल शिरीष मौर्य ने अपने यहां यही काम किया था. आज बम्बई से विजयशंकर चतुर्वेदी ने टेलीफ़ोन पर सक्सेना जी की एक कविता का ज़िक्र किया. वह कविता तो नहीं मिली पर सक्सेना जी की 'समुद्र पर हो रही है बारिश' नाम की प्रिय किताब को फिर से पूरा पढ़ा. एक छोटी सी कविता पर हर बार की तरह नज़र रुकी तो लगा इसे सब के साथ बांटा ही जाना चाहिए.
अच्छे बच्चे
कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते
मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करते
और मचलते तो हैं ही नहीं
बड़ों का कहना मानते हैं
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
इतने अच्छे होते हैं
इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
और मिलते ही
उन्हें ले आते हैं घर
अक्सर
तीस रुपये महीने और खाने पर.
6 comments:
मैं अपने माता-पिता को धन्यवाद देता हूं की उनके कारण कभी घर में अच्छा बच्चा देखने को नहीं मिला.. :)
कविता बहुत अच्छी है.. यथार्थ के करीब..
बहुत ही अच्छी कविता है.
सटीक व्यंग्य आज के मध्यमवर्गीय समाज पर !
अशोक भाई, क्या बात है! आख़िरी पंक्ति कविता की गुत्थी है, जो सुलझती नहीं. यहाँ इसे सुलझना भी नहीं चाहिए था. यही बड़े कवि की विशेषता है. लेकिन कविता की कुंजी भी यही है. अब इसके बाद पाठक के मन में कविता अपना काम शुरू करती है.
उम्दा रचना... बेजोड़ है यह .... समाज की यह सोच कब बदलेगी...!!!
बेजोड़ है साब
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