(विमल कुमार के काम ने सिर्फ उम्मीद ही पैदा नहीं की है, समकालीन कविता में अपनी जगह भी बना ली है। वह परिपक्व संवेदना, आलोचनात्मक अन्तर्दृष्टि और स्वाभाविक विवेकशीलता के कवि हैं, और ऐसे स्वभाव के मालिक भी जो गरैजरूरी तराश, हुनरमंदी और काव्यचातुर्य से परहेज करता है और एक दुनियावी जिम्मेदारी के साथ प्रामाणिक सामग्री के संधान में लगा रहता है।
विमल की कविता में एक निम्नमध्यवर्गीय युवक का मानसिक संसार है जो टूटन, पराजय और निराशा झेलने को तैयार है और उन्हीं से अपनी अधिकांश नैतिक ऊर्जा बटोरता है। आठवें और नवें दशक के उत्तरभारतीय समाज के तनाव, दबाव और अन्तर्विरोध इस कविता का वास्तविक फलक है। विमल की कामयाबी यह है कि उनके पात्रों के जीवन और कथानक के केंद्र में एक प्रकार की सामाजिक और नैतिक अपरिहार्यता समायी नज़र आती है। यों तो इसे सामाजिक नियतिवाद की संज्ञा भी दी जा सकती है, पर गौर से देखें तो यह थोथी उत्सवधर्मिता के विरुद्ध की गई एक गंभीर एस्थेटिक पोजीशन है।
विमल कुमार की कविता में पिछले दो-ढाई दशक की नयी हिंदी कविता का निचोड़ मौजूद है। उनके पास चुनने और बारीकी से समझने की क्षमता है और इस क्षमता का उन्होंने उतनी ही समझदारी से इस्तेमाल किया है। - असद ज़ैदी )
लड़कियां
इस घर में हर जगह लड़कियां नज़र आ रही हैं
एक लड़की बैठी है गंदी-सी मेज़ पर
एक लड़की छोटी है चारपाई के नीचे जा घुसी है
एक लड़की निकल रही है धीरे-धीरे संदूक से बाहर
एक और लड़की संदूक में पड़ी है है बाईस साल उम्र है उसकी
एक लड़की तकिए के भीतर से कुछ बोल रही है
सातवीं क्लास में पढ़ती होगी
एक ऐसी भी लड़की है जो इस छोटे-से घर में
कहीं छिप जाने के बारे में सोच रही है
एक लड़की अपने बाल खोल रही है
और पता चल रहा है कि उसके पास ढेर सारे सपने हैं
एक लड़की आपसे पूछ रही है आप कब आए
वह आजकल बहुत गंभीर हो गई है
एक लड़की रसोई में से आ रही है और कह रही है
खाना बनकर तैयार है
एक लड़की बता रही है वह बाहर जा रही है
शाम तक लौट कर आएगी
एक लड़की ढेर सारे कपड़े लेकर खड़ी है नहाने जाएगी वह काफी लम्बी है
एक लड़की कोने में किताब पढ़ रही है और किसी को नहीं देख रही है
उसका रिबन खुला हुआ है
एक लड़की बग़ल के कमरे में से बार-बार आ रही है
पूछ रही है क्या आप मेरे सवालों को हल कर सकते हैं
उसने चश्मा लगा लगा रखा है
एक लड़की एक लड़के से हंस-हंसकर बातें कर रही है
और दोनों एक दूसरे को कुछ बता रहे हैं वह काफी अल्हड़ है
एक लड़की एक लड़के के साथ खेल रही है
और खेल में इतना डूबी है कि उसे पता तक नहीं कि उसकी फ्राक गंदी हो गई है
एक लड़की अपने छोटे-छोटे चार पांच भाइयों को
एक साथ चूम रही है उसकी आंखें बड़ी-बड़ी हैं
ये सारी लड़कियां यहां जेल में बंद थीं महीनों से
कुछ दिन हुए यहां आयी हैं
ये सारी लड़कियां इससे पहले महिला सुधार निवास में रहती थीं
ये सारी लड़कियां इससे पहले दुनिया में कहीं नहीं रहती थीं
ये सारी लड़कियां कहीं काम करती थीं और दिन भर घुटती रहती थीं
ये सारी लड़कियां कहीं शाम को नाचती थीं और रात भर रोती थीं
ये सारी लड़कियां घर से भाग जाती थीं और महीने दो महीने पर लौट आ जाती थीं
ये सारी लड़कियां मां के साथ चिपककर सोती थीं क्योंकि रात में अकेले में डर जाती थीं
ये सारी लड़कियां बागीचे में जाती थीं और झाडियों में छिप जाती थीं
ये सारी लड़कियां कुंआरी थीं और उम्र से पहले मां बन जाती थीं
ये सारी लड़कियां जब तब ज़हर खाकर कुंए में गिर जाती थीं
ये सारी लड़कियां प्रेम के लिए तड़पती थीं और स्कूल कालेज से भागकर पिक्चर देखती थीं
ये सारी लड़कियां भाइयों डरती थीं और पिता के सामने आने से सकुचाती थीं
ये सारी लड़कियां आपस में बहुत झगड़ती थीं गुस्से में अनाप-शनाप बकती थीं
और एक-दूसरे को बहुत प्यार करती थीं
ये सारी लड़कियां घर बसाने की सोचती थीं और राह चलते पुरुषों को देखकर मन ही मन
जीवनसाथी का चुनाव करती थीं
ये सारी लड़कियां अधेड़ उम्र की महिलाओं से पूछती थीं बच्चे कैसे पाले जाते हैं
और जब उनकी छातियों में जैसे कुछ भर जाता था और
हिलोरें मारने लगता था
वे किसी हमउम्र औरत से पूछतीं
अपना दूध कैसे पिलाया जाता है बच्चे को?
8 comments:
करुणा से भरपूर! झकझोर देने वाले कुछ विम्बों से भी! थैंक्यू माई डियर हिरि!
बढ़िया कविता पढ़ाई आपने. धन्यवाद.
बहुत ही मार्मिक कविता...
उचित लगे तो इस कबाड़ी को भी अपने कबाड़ में शामिल कर लें-
www.mediamimansa.blogspot.com
ओह ऐसी कितनी ही लड़कियों हमारे ईर्द-गिर्द, हमारे साथ चलती हैं, हम उनकी तरफ देखते भी नहीं, जैसे वो हैं ही नहीं।
शिरीषभाई, सुबह सुबह उदास कर दिया। इंदौर में रोज बादल घिरते हैं लेकिन कई दिनों से बारिश नहीं हुई। यह कविता से निकलकर मेरे भीतर कहीं सुदूर कोने में बरस रही है।
ये कविता मुद्दतों पहले आए संग्रह से है और यहाँ दी गयी असद जैदी की टिप्पणी भी उस मुद्दतों पुरानी किताब के ब्लर्ब से है. पिछले साल उनकी अखबारी कतरनों का संग्रह आया था. गठिया से काफी परेशान थे सर्दियों में
oh!
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