अद्भुत और बेहद जरूरी कवि वेणुगोपाल के निधन की न तो अखबारों में कोई सुर्खी बनी न ही सत्ता के गलियारों में कोई हलचल हुई. यह अपेक्षित था. आजीवन सत्ता का विरोध करनेवालों का यही हाल होता है...और सत्ता का कोई दलाल मर जाए तो मुख पृष्ठ पर जगह पाता है. धिक्कार है ऐसी सोच को! वेणुगोपाल ने डॉक्टरेट की थी. इसी साल की पहली सितम्बर को ६६ वर्ष की अवस्था में उनका कैंसर से निधन हुआ है. हैदराबाद के किशनबाग में वह रहते थे. पुराना पुल नामक जगह पर जो शमशान है वहाँ उनको अन्तिम संस्कार के लिए ले जाया गया था. मुझे भगवतलाल उत्पल की याद हो आयी. भगवतलाल कौन थे इसका जिक्र बाद में कभी. वह भी दूसरे वेणुगोपाल थे. जल्द ही उनकी कवितायें मैं दूंगा.. इसी कबाड़खाने पर ..
सत्तर के दशक के बेहतरीन कवि वेणुगोपाल का निधन हो गया है. यह उनके प्रशंसकों और हम जैसे नौसिखिये कवियों के लिए भयानक ख़बर है. उनकी कविताओं का तेवर कुछ ऐसा था कि रिटोरिक के बड़े कवि आलोक धन्वा के साथ उनकी कवितायें बराबरी से गूंजती थीं. वेणुगोपाल की कविताओं की खासियत यह थी कि उनमें रिटोरिक जगह यथार्थ अधिक तीक्ष्ण है.
वेणुगोपाल का पद्य जितना शक्तिशाली था; गद्य उससे कदापि कमतर नहीं था. सर्वप्रिय और दिगंत में प्रतिष्ठित जरूरी लघुपत्रिका 'पहल' ने वेणुगोपाल के लिखे संस्मरणों की एक श्रृंखला जारी की थी. उसी में से एक को अबाधित रूप से यहाँ दे रहा हूँ---- (वेणुगोपाल भोपाल में रहे थे. जिन शरद जोशी के बारे में उनका यह संस्मरण है वह कई मामलों में समझदार थे. हालांकि उन्होंने कम दुःख नहीं झेले. शरद जी ने अपनी जीभ से कई पर्वत ठेले थे. अब पढ़िये यह संस्मरण)----
क्या आप जानते हैं तिलिस्म का मतलब?
जवाब में शब्दकोश मत लाइए. कि जादू या अलौकिक या ऐसा ही कुछ.
अगर सीधे-सीधे पूछूं तो मेरा सवाल यह है कि क्या आपने खत्री जी के उपन्यास चन्द्रकान्ता और भूतनाथ पढ़े हैं? नहीं पढ़े हैं तो पढ़िये. तभी आपको पता चल पायेगा कि उन उपन्यासों में खत्री जी ने तिलिस्म की एक पूरी संस्कृति रची है. पूरी तरह से बौद्धिक संस्कृति. न तो उस संस्कृति में जादू के लिए कोई गुंजाइश है और न ही अलौकिक या वैसी ही किसी अवधारणा के लिए. खत्री जी का 'काल्पनिक' भी कतई कपोलकल्पित नहीं है बल्कि वैज्ञानिक है. संतति के चौबीसवें भाग में तो खत्री जी ने बाकायदा बौद्धिक बहस भी की है कि उनके तिलिस्म की अवधारणा में अबुद्धि को पास तक फटकने नहीं दिया जाता.
वे किस सीमा तक वैज्ञानिक थे, इसके सबूत के तौर पर एक तो रांगेय राघव की यह स्थापना है कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब दूर-दूर तक फोटोग्राफी के आविष्कार की आहट तक नहीं थी, तब खत्री जी ने संतति के अठारहवें भाग में बिजली से सिनेमा चलाकर दिखाया और दूसरी बात यह कि भले ही 'रोबोट' शब्द के प्रवर्त्तन का श्रेय चेक लेखक कोरेल चापेक को दिया जाता हो; लेकिन तिलिस्मी पुतलियों और तिलिस्मी शैतान के बहाने से खत्री जी ने जिस तरह यंत्र-मानवों का प्रभावशाली और जीवंत चित्रण किया है, वह रोबोट से बहुत आगे की बात है और यहाँ यह ध्यान रखा जाना जरूरी है कि खत्री जी जब यह लिख रहे थे, तब चापेक का शायद जन्म भी नहीं हुआ था...
कृपया अगली कड़ी का इंतजार करें...
5 comments:
theek hi kaha hai apne....
sahitik soch mai kami to a rhai hai
बेहद उम्दा और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति विजय भाई! जिन कविताओं का आपने वायदा किया है, आशा है वे यहां जल्दी पढ़ने को मिलेंगी. बहरहाल ख़ुशमामदीद यहां!
इस माह के हंस में भी किसी अनजान कवि की पीड़ा किसी पाठक ने लिखी है.....आपकी अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा....
सुना है कि अमिताभ बच्चन "चँद्रकाँता " पर फिल्म बनेगी उसमेँ काम करनेवाले हैँ ~~
आप विस्तार से बतलायेँ
मैँने ये तिलिस्मी कथा पढी नहीँ
अगर खरीदना चाहूँ तो कहाँ से मिलेगी ? ये भी बतला देँ ~
शुक्रिया
- लावण्या
वेणुगोपाल जी को श्रद्धांजलि !
अनुनाद से यहां तक पहुंचा।
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