Friday, September 5, 2008

'मार्केट है यह जिसे हिन्दी साहित्य-जगत कह रहे हो'


मार्केट है यह जिसे तुम बार-बार हिन्दी साहित्य-जगत कह रहे हो. मार्केट में बिकने के लिए ब्रांड का कोई नाम होना चाहिए. कोई लेबुल लगा होना चाहिए तो हमारे धर्मवीर भारती जी हैं. मेरे यार, ऐसे संपादकों में नंबर वन जो ब्रांड का नाम भी तय करते हैं, लेबुल भी तय करते हैं और चिपकाते भी हैं. हमारे यहाँ भोपाल में हुए हैं एक रमेश बख्शी. इन दिनों दिल्ली में हैं. तो हुआ यह कि उन्होंने एक कहानी लिखी और भेज दी साहब 'धर्मयुग' को. कहानी स्वीकृत हुई. छपी. सम्पादक की तरफ से उसपे कैप्शन छपा- घरेलू संबंधों के कहानीकार; रमेश बख्शी.


(संयोग की बात है कि आज शरद जोशी की १७वीं पुण्यतिथि है. वेणुगोपाल का यह संस्मरण उन्हीं शरद जोशी पर है जिन्हें दुनिया श्रेष्ठ व्यंग्यकार के रूप में जानती है. इस संस्मरण में शरद जी के व्यक्तित्व के अच्छे-बुरे कई आयाम खुलते हैं. अब तक आपने पढ़ा- शरद जी की बातों से अपमानित महसूस करने के बाद युवा कवि विनोद कुमार शुक्ल आपे से बाहर हो गए थे. अब आगे...)

- तो मैं भरोसा नहीं कर पाया था सोम की बात पर क्योंकि मुझसे तो इतने प्यार से मिले थे शरद जी जबकि मैं विनोद शुक्ल की तुलना में कहीं-कहीं ज्यादा नौसिखिया और छोकरा था.
आज सोचने पर लगता है कि मेरा अनुभव भी कच्चा था और उनका भी. शरद जी रिश्तों और व्यवहार के मामले में 'अति' में जीते थे. उनकी सोच में यही 'अति' प्रतिबिंबित होती थी. बात में तजुर्बों ने भी इसी बात की पुष्टि की.

उस दिन, मुलाक़ात का पहला ही दिन था, शरद जी शाम तक मेरे साथ रहे. तकरीबन पाँच-छः घंटे का साथ. इतना भर पूछा उन्होंने- 'पैदल चलने की प्रैक्टिस है न तुम्हें? मैं तो ख़ूब पैदल चलता हूँ.' मैनें 'हाँ' में मुण्डी हिलाई तो बोले- मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे दोस्तों से जरूर मिलो. एक है सोमदत्त गर्ग और एक है भागवत रावत और फिर फज़ल ताबिश. पठान है मेरा यार, मस्त-मौला. चाय पीते हुए ही मैं 'आप' से 'तुम' हो गया था. इरफाना जी के लिए मैं हमेशा आप रहा. शरद जी के साथ पाँच-छः घंटे का वह पैदल घूमना मेरे लिए एक ऐसा अनुभव रहा जिसे मैं ता-ज़िन्दगी भूल नहीं सकता.

शरद जी की रचनाओं में उनके पात्र बेहद हंसोड़ होते हैं और ख़ूब हंसाते हैं लेकिन शरद जी के मुकाबले वे पासंग भी नहीं ठहरते. उस दिन का जो भी दस-पन्द्रह किलोमीटर हमारा साथ चलना हुआ, उसमें हर पाँच-दस कदम के बाद ठहाका लगाने के लिए शरद जी रुक जाते. मैं भी रुकता और सड़क के ऐन बीच में ऐसा ठहाका लगाने वालों को देखकर राहगीर भी ठिठकते. एक पल को भी मुझे नहीं लगा कि मैं शरद जी से आज ही मिला हूँ. कि मैं उनके मुकाबले बहुत ही छोटा लेखक हूँ. किसी की भी बात करते हुए उसका ऐसा ख़ाका खींचना कि हंसते-हंसते सुनने वाले के पेट में बल पड़ जाएँ. उसी दिन मैंने जाना कि शरद जी और उनकी रचनाएँ अलग-अलग नहीं हैं क्योंकि उनके नायक, दूसरे पात्र और नरेटर आदि के बोलने-चालने का अंदाज़ शरद जी जैसा ही है, राई-रत्ती भी फ़र्क नहीं है.

हिन्दी साहित्य जगत के बारे में मेरी जानकारी शून्य थी. सो उन्होंने अपने अंदाज़ में भीतर की कई बातें बतौर वार्निंग बतलायीं. जो मुझे सर्वाधिक महत्वपूर्ण और रोचक लगी, वह थी (लगभग उन्हीं के शब्दों में क्योंकि मैंने उस दिन की डायरी में उसे लिख लिया था)- "मार्केट है यह जिसे तुम बार-बार हिन्दी साहित्य-जगत कह रहे हो. मार्केट में बिकने के लिए ब्रांड का कोई नाम होना चाहिए. कोई लेबुल लगा होना चाहिए तो हमारे धर्मवीर भारती जी हैं. मेरे यार, ऐसे संपादकों में नंबर वन जो ब्रांड का नाम भी तय करते हैं, लेबुल भी तय करते हैं और चिपकाते भी हैं. हमारे यहाँ भोपाल में हुए हैं एक रमेश बख्शी. इन दिनों दिल्ली में हैं. तो हुआ यह कि उन्होंने एक कहानी लिखी और भेज दी साहब 'धर्मयुग' को. कहानी स्वीकृत हुई. छपी. सम्पादक की तरफ से उसपे कैप्शन छपा- घरेलू संबंधों के कहानीकार; रमेश बख्शी.'

तो भैया रमेश बख्शी हो गए घरेलू संबंधों के कहानीकार! तो वेणु, रमेश बख्शी ने एक और कहानी लिखी. वहीं भेजी, लौट आयी. सम्पादक जी ने साथ में नोट लिखा- 'ध्यान रखिये, आप घरेलू संबंधों के कहानीकार हैं. यह कहानी घरेलू संबंधों की नहीं है, इसलिए लौटाई जा रही है. 'अब रमेश बख्शी क्या करेंगे ? छपना है तो लिखो घरेलू संबंधों की कहानी. सम्पादक जी ने दिया है यह नाम. चिपकाया है लेबुल. अगर विरोध करोगे तो मार्केट से बाहर." और 'दे ताली' के साथ ठहाका.

मैं यूँ भी धूमिल के प्रभाव में, क्योंकि वह किसी रंगीन पत्रिका में (तब तक) प्रकाशित हुए बिना ही प्रसिद्ध कवि बन गए थे, फैसला कर चुका था कि मुझे किसी व्यवसायिक रंगीन पत्रिका में हरगिज नहीं छपना है. शरद जी ने जब भारती जैसे संयोजक के लेबल चिपकाऊ रोल की बात की तो मुझे अपने फैसले पर संतोष ही हुआ.

उस बार के प्रवास में भोपाल आठ-दस दिन रुकना हुआ. शरद जी से तक़रीबन रोज ही मिलता. ऐसा महसूस हुआ कि जैसे मेरा एक नया परिवार बन रहा है जिसमें शरद जोशी, भगवत रावत, सोमदत्त, फज़ल ताबिश, कृष्ण चराटे आदि-आदि हैं जो दोनों हाथों से मुझ पर स्नेह उँडेल रहे हैं.

शरद जी के व्यक्तित्व के उदार आयामों से भी रूबरू हुआ. जब मैंने उनसे अनिल कुमार, दुष्यंत कुमार से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो वह बोले- 'हम लोगों की आपस में पटती नहीं है. साहित्य-जगत उर्फ मार्केट के हैं न, इसलिए. मैं तुम्हारे साथ चल तो नहीं सकता लेकिन...' और वह अनिल कुमार जी के ऑफिस तक साथ चले. रास्ते में दुष्यंत कुमार की चर्चित कृति 'एक कंठ विषपायी' की चर्चा छिड़ी तो उन्होंने उसके एक अंश को उद्धृत किया और बोले- 'वेणु, शिव सती के शव को कंधे पर डाले हुए हैं और कवि लिखता है कि शिव जब-तब गर्दन मोड़कर सती के मुख को देख लेते हैं. तो भैया, तुम ही बताओ (अभिनय के साथ) कंधे पर लाश इस तरह, तो गरदन किस डिग्री में मोड़ते होंगे कि चेहरा देख सकें. गरदन थी कि लट्टू!' फिर ठहाका. जब तक अनिल कुमार जी का ऑफिस नहीं आ गया, ठहाके चलते रहे. ऑफिस आने पर वह भीतर नहीं चले. मुझे जरूर अच्छी तरह समझा दिया कि अनिल कुमार जी कहाँ-कैसे मिलेंगे?
उस प्रवास के दौरान ही शरद जी ने मुझे अशोक वाजपेयी से मिलवाया. अशोक को आई.ए.एस बने अधिक दिन नहीं हुए थे और वह मध्यप्रदेश शासन के गृह विभाग में अंडर सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त होकर आए थे. शरद जी अशोक के बारे में बोलते हुए लगभग भाव विह्वल थे- 'फ़र्स्ट क्लास में पास होने का तो जैसे मेरे यार को चस्का लगा हुआ है. जब देखो तब फ़र्स्ट क्लास. पढ़ें या न पढ़ें. आई.ए.एस के वक़्त पढ़ाई के नाम पर अस्पताल में मुक्तिबोध के पास रहे, फिर भी फ़र्स्ट क्लास में पास हो गए. नेमीचन्द्र जैन ससुर हैं उसके. वही, तार सप्तक वाले.'

मेरे लिए सारे नाम किताबों के देखे थे और उनको साक्षात देख पाने की कल्पना से मैं ख़ुद को 'एलिस इन वंडरलैंड' की एलिस-सा महसूस कर रहा था. अशोक के प्रति शरद जी कुछ ज्यादा ही वत्सल थे. जैसे कोई परिवार का बड़ा हो और छोटे की उपलब्धि से गदगद हो रहा हो. बोलते-बोलते स्नेह में जैसे डूब जाते शरद जी. अशोक ने भोपाल में ज्वाइन तो कर लिया था लेकिन उसका सामान अभी नहीं आया था. रश्मि जी, अशोक वाजपेयी की पत्नी ने एडवांस प्रेगनेंसी के बावजूद लकड़ी के खोखों, संदूकों आदि को फर्नीचर की शक्ल दे दी थी. अशोक और रश्मि जी की प्रशंसा में शरद जी जैसे उमड़-उमड़ कर बहे जा रहे थे और कई बार तो उनकी आँखें ख़ुशी से नम हो जातीं. (जारी...)

-वेणुगोपाल

'पहल' से साभार.
शरद जोशी जी की तस्वीर सूरज प्रकाश जी के ब्लॉग 'कथाकार' से ली गयी है. (कृपया अगली कड़ी का इंतजार करें)

2 comments:

Ashok Pande said...

शरद जी और फिर तमाम नामों का इतनी साफ़ निगाह से आना हिन्दी में बहुत कम हुआ है. विजय भाई, आपके इस श्रम की बड़ी महत्ता है.

धन्यवाद!

Vineeta Yashsavi said...

बहुत सुन्दर है इस सीरीज़ का दुबारा छपना. शुक्रिया.