उन्हीं नाटकों की रिहर्सल के दौरान. एक दिन. इरफ़ाना जी की आदत थी कि वह अक्सर घर से कुछ बनाकर लाती थीं- स्वादिष्ट कुछ- कि साथी कलाकार मिलकर खाएं. उस दिन भी लाई थीं. 'सबसे बड़ा सवाल' में राजेश भी एक भूमिका कर रहा था. वह भी बैठा था. खाने के बाद उसे सिगरेट की तलब हुई. उसने इरफ़ाना जी से पूछा- 'भाभी, अगर आपको कोई ऐतराज न हो तो मैं एक सिगरेट पी लूँ?' इरफ़ाना जी ने अनुमति देते हुए कहा- 'ऐतराज क्यों होगा! पीजिये न!' सिगरेट सुलगाते हुए राजेश ने कहा- 'मैं इसलिए पूछ रहा था कि शरद जी तो सिगरेट-शराब छूते तक नहीं हैं.' इरफ़ाना जी ने एक लम्बी साँस ली और कहा- 'अच्छा होता, छूते और लेते तो कम से कम ऐसा तो नहीं होता...' वाक्य पूरा किए बिना ही वह चुप हो गयीं. दूसरी ओर देखने लगीं. आँखें नम थीं.
....इस गोष्ठी वाली घटना से बहुत पहले की बात है. न्यू मार्केट (भोपाल) में मैं और राजेश ( कवि राजेश जोशी) उनके साथ थे. बात प्रेम-विवाह पर हो रही थी. मैंने पूछा- 'शरद जी आपका प्रेम-विवाह तो जबरदस्त रेवोल्यूशनरी था न? जात-पांत, धर्म आदि सारी नकली हदबंदियों को तोड़ दिया गया था उसमें.' शरद जी ने एक लम्बी साँस ली. मुस्कुराए. कहा- 'आज उसे प्रेम-विवाह के बजाए ज़िद-विवाह कहना ज़्यादा सही होगा.'
कुछ दिनों बाद. राजेन्द्र गुप्त दो नाटक निर्देशित कर रहे थे. मनोहर आशी स्पांसर थे. शरद जी नाटक 'अन्धों का हाथी' और मोहन राकेश का 'सबसे बड़ा सवाल'. मैं दोनों में था. कास्टिंग तय करने तक राजेन्द्र गुप्त ने मुझसे भी पूछा- 'मैं आपको शरद जी के नाटक में प्रमुख भूमिका देना चाहता हूँ लेकिन मैंने सुना है कि आपमें और शरद जी में...'. मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसी कोई बात नहीं है. शरद जी गुस्से में ज़रूर हैं लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे उनके नाटकों में कम करके ख़ुशी ही होगी.
जो नहीं कहा गया, वह इतना तो बतला ही रहा था कि कहीं कुछ ऐसा है, जो ठीक नहीं है. बेहद बिगड़ा हुआ है.
'अन्धों का हाथी' में काम करने के दौरान ही रिहर्सल में शरद जी ने बोलचाल की शुरुआत कर दी. किसी ख़ास मूवमेंट के बारे में यह कहते हुए- 'यह मूवमेंट ऐसे नहीं, ऐसे करो' ... और फिर से सब कुछ सामान्य हो गया.
आपातकाल लगा. मुझे जो काम रेडियो, अकादमी आदि सरकारी संस्थाओं से मिलता था, वह रुक गया तो विजय बहादुर सिंह ने कहा- 'मेरी मानो तो विदिशा आ जाओ और एम.ए. कर डालो.' विडम्बना ही कहेंगे इसे कि कहाँ जो पी.जी. किस कॉलेज में हो, वहाँ भाषण देकर पैसे लेता था और कहाँ अब ख़ुद पी.जी. करूंगा. आर्थिक समस्या, फ़ी आदि का हल विजय बहादुर ने यह सुझाया- 'ऐसा करना, तुम्हारे दो नाम हैं न. शैक्षणिक नाम, नंदकिशोर शर्मा रहेगा और वेणुगोपाल को हम माडर्न पोएट्री की क्लास दे देंगे. फ़ी वगैरह एडजस्ट हो जाया करेंगे. और फिर हम लोग तो हैं ही.'
मैं विदिशा गया और शरद जी फ़िल्मों में लिखने मुम्बई. विदिशा के जिलाधीश सतीश कंसल, शरद जी के गहरे दोस्त थे. कुँआरे थे. शरद जी अक्सर लिखने के बहाने उनके पास आते. 'गोधूलि' फ़िल्म उन्होंने वहीं लिखी. शाम के टहलने-घूमने में कई बार विजय बहादुर सिंह और मैं साथ होते. ठहाके वैसे ही लगते लेकिन खनक में फीकापन आ गया था.
पता नहीं किसलिए और कैसे शरद जी को यह शक हो गया कि मैं कहीं दुनियावी कामयाबी हासिल करने के लिए षड्यंत्रकारियों में शामिल हो गया हूँ. चापलूसी करने लगा हूँ और यहाँ-वहाँ गोटियाँ बिठाने की और प्रभावशाली लोगों को पढ़ाने की कोशिशों में लगा रहता हूँ.
एक बार जब राजेन्द्र माथुर 'नवभारत टाइम्स' के सम्पादक थे, तब मैं किसी काम से दिल्ली गया था. राजेन्द्र माथुर से पुरानी जान-पहचान थी., सो उनसे मिलने चला गया. संयोग से वहाँ शरद जी भी आ गए. मुझे देखते ही गुस्से और खीझ से भर गए. मौका मिलते ही, राजेन्द्र माथुर न सुन सके, इस तरह मुझसे बोले- 'यहाँ भी आ गए तुम! ज़रा तो शर्म करो.' मैं पूछता ही रह गया- 'क्या मतलब है आपका.'
वह तनाव में चुप रहे. मुझे लगा कि सफाई देने का कोई औचित्य नहीं. साफ था कि कोई मोर्चा ऐसा है, जो उनका सर्वथा निजी है. जहाँ वह जूझ रहे हैं और लगातार हार रहे हैं और टूट रहे हैं. क्या हो सकता है वह मोर्चा? एक ही जवाब हो सकता था- आर्थिक परेशानियों का या व्यावसायिकता का.
'तिलिस्म' कहानी में नायक बेहद डरता रहता है. कभी उसे लगता है, कोई पीछे से आक्रमण करने ही वाला है. देखता है तो पत्नी है जो पीठ पर हाथ रखना चाहती है. उसे लगता है- 'घर की हर चीज़ अब तिलिस्मी हो गयी थी. वह परदा क्यों हिल रहा है? इसके पीछे कोई नकाबपोश तो नहीं?'
शरद जी हमेशा किसी न किसी में अपने नायक से 'आइडेंटीफाई' करते थे. कभी सीधे-सीधे तो कभी छिपे तौर पर. जो उनके नायक की मनोस्थिति, वह उनकी मनोस्थिति. जो मित्र नहीं हैं, वे शत्रु हैं. वह अपने इन्हीं विचारों की जकड़बंदी में फंस गए थे.
दरअसल ज़िंदगी के नाम पर वह एक तिलिस्म को जी रहे थे. उसकी ताली की तलाश में भोपाल से मुंबई के बीच की दूरी माप रहे थे. कभी तिलिस्म उनका डिफेन्स मैकेनिज्म बनता तो कभी वही उनके लिए डरौना बनकर डराने लग जाता.
तिलिस्म ही उनके लिए आश्वासन था. वही चेतावनी भी था, हमलावर भी और वही आश्रयस्थल और छिपने की जगह भी. तिलिस्मी क़ैदी जैसे व्यंग्य कर सकता है और हंस-हंसा सकता है, वैसे ही शरद जी व्यंग्य भी कर रहे थे और हंस-हंसा भी रहे थे. करुणा जिस तरह की विचारधारा की मांग करती है, उससे शरद जी सायास दूर थे. आत्मदया और आत्मघृणा व्यक्ति को अकेला कर देती है और शरद जी दिन-ब-दिन घनघोर अकेले होते चले गए. आज अधिक से अधिक इतना भर कहा जा सकता है कि काश, उनका व्यंग्य भी करुणा से उपजता!
बहुरूपी तिलिस्म को पहचानकर अगर हम उसके निरीह क़ैदी होने से बच सके तो शरद जी का जीवन और लेखन हमारे लिए अधिक सार्थक हो पायेगा.
(समाप्त. पुनः धन्यवाद!)
'पहल' से साभार
2 comments:
धन्यवाद विजय भाई इस पूरी सीरीज़ को यहां लगा देने के लिए!
आज एक ही बैठक में
पढ़ ली सम्पूर्ण श्रृंखला.
'पहल' और इस प्रस्तुति के लिए शुक्रिया.
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