Wednesday, September 10, 2008
ग्यारह सितंबर का एक फोटोग्राफ
नोबेल सम्मान प्राप्त पोलिश कवयित्री विस्वावा शिम्बोर्स्का की एक कविता:
ग्यारह सितंबर का एक फोटोग्राफ़
वे कूद रहे थे जलती इमारतों से
एक
दो
कुछेक और
- कुछ ऊपर थे, कुछ नीचे
एक फोटोग्राफ़र ने उन्हें दर्ज़ कर लिया है
जब वे जीवित थे
धरती के ऊपर
धरती तक पहुँचते हुए -
हर आदमी साबुत
हर एक का अपना चेहरा
और हर एक का भली तरह छिपा हुआ रक्त
- अभी वक़्त है उनके बालों के बेतरतीब हो जाने में
अभी वक़्त है उनकी जेबों से चाभियाँ और रेजगारी निकल कर गिरने में
वे अब भी उपस्थित हैं हवा की वास्तविकता के भीतर
उन जगहों पर जहाँ अभी-अभी
उनके लिए जगह का निर्माण हुआ है
उनके वास्ते मैं सिर्फ़ दो काम कर सकती हूँ -
उनकी उड़ान का वर्णन करूं
और अपनी ओर से न जोड़ूं कोई अन्तिम शब्द!
(साभार: 'पहल'- ७५)
Labels:
ग्यारह सितंबर
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
11 comments:
उस भयानक हादसे को याद करके आज भी मन सिहर उठता है.
अभागा दिन...
दुर्घटना, जो भुलाए ना भूले।
उफ्फ...!!!
उस दिन पहली बार एक आग देखी गुरूत्वाकर्षण को इज्जत देती यानि आसमान से धरती की तरफ आती हुई। (तस्वीर देखें)
-कबाड़ूद्दीन मोहम्मद गोरी
मैं यह दिन इसलिए भी नहीं भूल सकता कि अपने पुराने अखबार में काम करते हुए टीवी पर हर दो-पांच मिनिट पर खबरों का इनपुट दे रहा था। वे तमाम भयानक स्मृतियां।
लेकिन एक कवि उसे कैसे देखता है, इसकी एक बेहतरीन मिसाल है यह कविता।
भयानक स्वप्न को शब्दों में पिरोते कवि का अंदाज बहुत अच्छा है ।
It was no Durghatna Jitendra bhai, it was a well thoughtout and cleverly executed terrorist attack by Devil's kins.
अति सुंदर लिखा है. रचना दिल को छू गई. सस्नेह
बेहतरीन कविता मेरी प्रिय कवयित्री की. धन्यवाद.
बेहतरीन कविता ..यह लिंक भी देखे
http://ranjanabhatia.blogspot.com/2008/09/blog-post_11.html
Post a Comment