Wednesday, September 10, 2008

'भरी सभा में मुझे गालियाँ दी हैं इसने'

उन्होंने बोलचाल बंद कर दी. सामने पड़ते ही मेरी नमस्ते करने की आदत थी. मैं करता पर वह मुँह फेर लिया करते. मैं उनका दुश्मन नंबर वन हो गया था. इस बात का उन्होंने इतना प्रचार-प्रसार किया, मुझे लेकर इतने चुटकुले बनाए कि जब कारंत जी ने रंग-शिविर में मुझसे और इरफाना जी ने अकेले में पूछा- 'आपको मेरे साथ काम करने में ऐतराज तो नहीं, क्योंकि आपका शरद जी के साथ कुछ ठीक नहीं चल रहा है.' तो मैंने कहा- 'भाभी जी, आप भी किन बातों के चक्कर में पड़ी हैं. शरद जी गुस्से में हैं, यह सही है, लेकिन आप और शरद जी मेरे लिए पहले आदरणीय थे, आगे भी रहेंगे.'

शरद जोशी पर वेणुगोपाल का संस्मरण
....इसी क्रम में उस गोष्ठी की बात भी. शरद जी के कृतित्व पर केंद्रित. आयोजक प्रभाकर श्रोत्रिय ने कहा कि मैं 'जीप पर सवार इल्लियाँ' किताब पर लिखूं. शरद जी भी यही चाहते थे. उन दिनों मुझे लगता था कि तीखा स्वर ही मेरी पहचान है. शरद जी पर लिखने के लिए मैंने 'तिलिस्म' नामक पुस्तक को चुना. शरद जी भी ख़ुश हुए क्योंकि 'तिलिस्म' उनकी भी प्रिय रचना थी. मुझे लगा कि शरद जी इतने अधिक अपने हैं कि किसी भी किस्म के समझौते की जरूरत नहीं है. अपनों के आगे तो सच-सच बोलना चाहिए. मेरे विचार में जब 'धर्मयुग' में कथादशक योजना के अंतर्गत परसाई जी और शरद जी शामिल हुए थे तो वह भी स्वयं को कहानीकार मानते थे और दूसरे भी.

धर्मवीर भारती ने उन्हें कहानीकार समझकर ही इकत्तीस कथाकारों में चुना था. फिर यह दोनों व्यंग्यकार कबसे हो गए? यह लेबुल किसने चिपकाया? मैंने शरद जी की रमेश बख्शी के बारे में कही हुई बात से ही लेख की शुरुआत की. रमेश बख्शी को जिस तरह भारती ने 'घरेलू संबंधों का कहानीकार' कहा, वैसे ही परसाई और शरद जोशी को भी 'व्यंग्यकार' बना दिया गया. यह सिर्फ़ एक लेबुल है.

परसाई जी और शरद जी या तो कहानियां लिखते हैं या फिर निबंध या रेखाचित्र आदि. व्यंग्य तो युग की स्पिरिट है. चाहे कविता हो, चाहे नाटक. उसे विधा कहना ग़लत है. मैंने इस प्रसंग में लेख को प्रभावशाली बनाने के लिए धूमिल की पंक्ति 'जब दोस्तों का गुस्सा हाशिये पर चुटकुला बन रहा हो' भी उद्धृत की और दोस्तों को चेतावनी दी कि वे व्यावसायिकता का शिकार न बनें. जो लेखक 'तिलिस्म' जैसी कहानी लिख सकता है, वही लेबुल लग जाने के बाद चुटकुले लिखने पर मजबूर है. लेख का अंत मैंने गिन्सबर्ग की 'हाउल' की पंक्तियों से किया- 'हम अभिशप्त हैं अपने सदी के श्रेष्ठ मस्तिष्कों को/नष्ट/भ्रष्ट होते देखने के लिए.'

लेख का पाठ ख़त्म हुआ तो सबसे अधिक तालियाँ शरद जी ने ही बजायीं. फिर उन्होंने जवाब दिया. जो कहा, वह मुझे हतप्रभ और अवाक् कर गया. उन्होंने बताया कि कैसे मैं दोस्तों से मांग-मांग कर कपड़े पहनता हूँ और उन्हीं के चंदे पर ज़िंदगी काट रहा हूँ. तात्पर्य यह कि ऐसे भिखमंगे चरित्रवाले व्यक्ति को किसी सभा या गोष्ठी में बोलने का अधिकार नहीं है. जब उनका जवाब समाप्त हुआ तो मुझे लगा कि बात ख़त्म हो गयी. मैं तो 'तिलिस्म' के कहानीकार को श्रेष्ठ मानकर उसे व्यावसायिकता का शिकार होकर नष्ट-भ्रष्ट होने से बचने की सलाह दे रहा था. मेरा अंदाज़ जरूर तीखा था लेकिन नीयत दुरुस्त थी.
गोष्ठी के बाद शरद जी ने मुझसे बात करने से मना कर दिया. तब भी मैंने रामप्रकाश त्रिपाठी से यही कहा- 'रचनाकार को गुस्सा आ गया है तो उसका गुस्सा सर-आंखों पर.' लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि ग़लती कहाँ पर हो गयी? शरद जी ने ही मुझे जो चेतावनी दी थी, और विस्तार से समझाया था, मैंने उसी को तो उन पर लागू किया था.
दूसरे दिन रमाकांत जी को पता चला. वह बोले-'तुम तो मेरे साथ चलो. शरद जी के साथ मिलकर सारे गिले-शिकवे दूर कर लो.' वह अपने साथ ले गए. शरद जी से उन्होंने कहा- 'ये ले आया हूँ वेणुगोपाल को मैं. जो भी गुस्सा हो आपका, निकाल डालिए.' मुझे देखते ही शरद जी आग-बबूला हो गए. 'इसने भरी सभा में गालियाँ दी हैं मुझे.' उन्होंने कहा. मैंने कहा- 'शरद जी मैंने गालियाँ नहीं ;तिलिस्म' जैसी कहानी के रचयिता के व्यावसायिक दबाव में आकर नष्ट-भ्रष्ट होने की बात कही है.' वह और भी भड़क गए. 'गालियाँ और क्या होती हैं?' उनका कहना था.'

उन्होंने बोलचाल बंद कर दी. सामने पड़ते ही मेरी नमस्ते करने की आदत थी. मैं करता पर वह मुँह फेर लिया करते. मैं उनका दुश्मन नंबर वन हो गया था. इस बात का उन्होंने इतना प्रचार-प्रसार किया, मुझे लेकर इतने चुटकुले बनाए कि जब कारंत जी ने रंग-शिविर में मुझसे और इरफाना जी ने अकेले में पूछा- 'आपको मेरे साथ काम करने में ऐतराज तो नहीं, क्योंकि आपका शरद जी के साथ कुछ ठीक नहीं चल रहा है.' तो मैंने कहा- 'भाभी जी, आप भी किन बातों के चक्कर में पड़ी हैं. शरद जी गुस्से में हैं, यह सही है, लेकिन आप और शरद जी मेरे लिए पहले आदरणीय थे, आगे भी रहेंगे.'

कारंत जी ने जब वेणु गांगुली की नाट्य-कथा 'रंग-शिविर के लिए विजय तेंदुलकर का 'पंछी ऐसे आते हैं' नाटक निर्देशित किया तो मुझे बंडा की भूमिका सौंपी. इरफाना जी मेरी माँ की भूमिका में थीं. शरद जी भोपाल में हर परिचित से कह रहे थे- 'बड़ा क्रांतिकारी बना फिरता है. ड्रामे में ही सही, मेरी पत्नी का बेटा बना है, तो एक प्रकार से मेरा भी बेटा बन गया न.'

मैं सुनता और दुखी होता. एक श्रेष्ठ मस्तिष्क का नष्ट-भ्रष्ट होना स्पष्ट देख रहा था. मान लीजिये, मैंने कुछ ग़लत कह भी दिया हो उस दिन की गोष्ठी में, तो भी कहाँ मैं, कहाँ शरद जी. कल के छोकरे की बातों को इतना सर पर बिठाने की क्या जरूरत!

मुझे लगा यह नार्मल नहीं है. कहीं कुछ गहरे में टूट-फ़ुट रहा है. सतह पर भले ही कुछ न दिख रहा हो.

(अगली कड़ी में जारी)

'पहल' से साभार

4 comments:

Ashok Pande said...

भीषण विचारोत्तेजक है यह संस्मरण! क्या ईमानदारी, क्या बयान!

L.Goswami said...

अगले अंक का इन्तिज़ार है ..

pallavi trivedi said...

bahut achcha laga ye sansmaran...ise jaari rakhen.

Vineeta Yashsavi said...

लगातार पढ़ रही हूं. सुन्दर.