१- सोमवार को सफ़ेद कागज पर
२- मंगलवार को लाल कागज पर
३- बुधवार को हरे कागज पर
४- गुरुवार को पीले कागज पर
५-शुक्रवार को सफ़ेद कागज पर
६- शनिवार को नीले कागज पर
७- रविवार को गुलाबी कागज पर
* बाजार में आज तरह - तरह का कागज है, किसिम - किसिम के रंगो वाला लेकिन हर कागज शब्द लिखने के लिए ही बना है.इसी में दोनों की सार्थकता है - कागज की भी और उस पर उकेरे गए अभिव्यक्ति के पतीकों की भी. आदिम मनुष्य से लेकर आज तक के इसान ने जितनी खोजें , जितने आविष्कार किए है उनमें लेखन सबसे बड़ा आविष्कार है एक प्रकार से समस्त आधुनिक आविष्कारों का उत्स और उद्गम.आज के दिन कागज पर बात करते समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र की याद आ रही है. उन्होंने मात्र पैंतीस वर्षों (1850-1885) का लघु जीवन जिया परंतु इसी अल्प जीवनावधि में इतना विपुल साहित्य रचा है कि आश्चर्य होता है. कवि, कथाकार, निबंधकार,नाटककार, अनुवादक, संगीतकार,अभिनेता, पत्रकार आदि- आदि रूपों में उन्होंने कितना कागज बरता होगा,यह सोचकर ही पसीना चुहचुहाने लगता है लिखना तो दूर की बात है .
** भारतेन्दु की जीवनी और उनकी रचनाओं को पढते समय कई - कई परते खुलती जाती हैं। उन्होंने अपने समकालीनों और साथियों को ढ़ेर सारे पत्र लिखे हैं. १८७१ की अपनी हरिद्वार यात्रा से लौटने बाद भारतेन्दु ने हरिद्वार के एक पंडे को कविता में पत्र लिखा था जिसका आखिरी दोहा यह था -
२- मंगलवार को लाल कागज पर
३- बुधवार को हरे कागज पर
४- गुरुवार को पीले कागज पर
५-शुक्रवार को सफ़ेद कागज पर
६- शनिवार को नीले कागज पर
७- रविवार को गुलाबी कागज पर
* बाजार में आज तरह - तरह का कागज है, किसिम - किसिम के रंगो वाला लेकिन हर कागज शब्द लिखने के लिए ही बना है.इसी में दोनों की सार्थकता है - कागज की भी और उस पर उकेरे गए अभिव्यक्ति के पतीकों की भी. आदिम मनुष्य से लेकर आज तक के इसान ने जितनी खोजें , जितने आविष्कार किए है उनमें लेखन सबसे बड़ा आविष्कार है एक प्रकार से समस्त आधुनिक आविष्कारों का उत्स और उद्गम.आज के दिन कागज पर बात करते समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र की याद आ रही है. उन्होंने मात्र पैंतीस वर्षों (1850-1885) का लघु जीवन जिया परंतु इसी अल्प जीवनावधि में इतना विपुल साहित्य रचा है कि आश्चर्य होता है. कवि, कथाकार, निबंधकार,नाटककार, अनुवादक, संगीतकार,अभिनेता, पत्रकार आदि- आदि रूपों में उन्होंने कितना कागज बरता होगा,यह सोचकर ही पसीना चुहचुहाने लगता है लिखना तो दूर की बात है .
** भारतेन्दु की जीवनी और उनकी रचनाओं को पढते समय कई - कई परते खुलती जाती हैं। उन्होंने अपने समकालीनों और साथियों को ढ़ेर सारे पत्र लिखे हैं. १८७१ की अपनी हरिद्वार यात्रा से लौटने बाद भारतेन्दु ने हरिद्वार के एक पंडे को कविता में पत्र लिखा था जिसका आखिरी दोहा यह था -
'विमल वैश्य कुल कुमुद ससि सेवत श्रीनंदनंद,
निज कर कमलन सौं लिख्यो यह कबिबर हरिचंद.'
उनके पत्रों के नीचे प्राय: यह दोहा लिखा रहता था -
बंधुन के पत्राहि कहत, अर्ध मिलन सब कोय .
आपहु उत्तर देहु तौ , पूरो मिलनो होय ।
बात यहीं खत्म नहीं होती है। भारतेन्दु ने सप्ताह के हर दिन के लिए के लिए अलग - अलग रंग का कागज तय कर रखा था जिसका उल्लेख ऊपर दी गई सूची में किया गया है. इस बारे में वे स्वयं कहते हैं - 'हमने अपने पत्रों को लिखने हेतु सात वारों के भिन्न - भिन्न रंग के कागज और उनके ऊपर दोहे आदि बनाए थे. इसमें लाघव यह था कि बिना वार का नाम लिखै ही पढ़ने वाला जान जाएगा कि अमुक वार को पत्र लिखा हुआ था.' सप्ताह के सभी दिनों के रंगों क जिक्र कर दिया गया है यदि सभी दिनों के दोहों को भी लिखा जाय तो यह पोस्ट कुछ लंबी हो जाएगी इसलिए उदाहरणार्थ केवल रविवार का मंत्र और दोहा प्रस्तुत है -
' भक्त कमल दिवाकराय नम:'
'मित्र पत्र बिनु हिय लहत , छिनहूं नहिं विश्राम ,
प्रफुलित होत कमल जिमि, बिनु रवि उदय ललाम.'
आज आप किस रंग के कागज पर लिखना चाहते हैं ?
*** 'कबाड़खाना' के एक बरस पूरे हो चुके हैं. इस बाबत इस ठिए के मुखिया श्री अशोक पांडे विस्तार से लिख चुके हैं व सभी कबाड़ियों का आभार जताते हुए इस ठिकाने पर आने वाले पाठको - श्रोताओं-दर्शकों के प्रति तहे दिल से शुक्रिया अदा कर चुके है. टिप्पणियां बताती हैं कि हम सबकी साझी मेहनत कुछ हद तक सफल हुई है. यह मौका यह भी जताता - बताता है कि कबाड़ियों के लिखने -पढ़ने-सुनने-गुनने-बुनने का क्रम न केवल जारी रहना चाहिए बल्कि इसकी विविधता को बरकरार रखते हुए बारंबारता को अधिक गतिमान किए जाने की सख्त जरूरत है. अतएव आवश्यक / अनिवार्य / अपरिहार्य है कि हर कबाड़ी अपने -अपने हिस्से का कबाड़ पेश करने में आलस्य और देरी न करे.उम्मीद है कि आप सब अपने इस साथी की गुजारिश पर गौर करेंगे.
आज दिन कौन सा है ? यह बखूबी याद होगा। हो सकता है कि भारतेन्दु बाबू के पत्र लेखन हेतु कागज के रंग के चुनाव से मुतास्सिर होकर आपने अपने लिखने के लिए कागज के रंग का चुनाव कर लिया होगा ? यदि नहीं तो जैसा भी, जिस रंग का भी कागज मिल जाय उसी पर लिखें लेकिन लिक्खें जरूर, रंग तो अपने आप उतर आएगा !
देख लें स्वयं भारतेन्दु 'हिन्दी की उन्नति पर व्याख्यान' में क्या कह गए हैं -
'प्रचलित करहु जहान में निज भाषा करि जत्न,
राज - काज दरबार में फैलावहु यह रत्न।
7 comments:
धन्यवाद सिद्धेश्वर जी हिन्दी और हिन्दी साहित्य के पितामह का जिक्र छेड़ने के लिए। सचमुच जब-जब यह तथ्य सामने आता है तो आश्चर्य और गर्व होता है की भारतेंदु जी ने कम समय में कितना लिखा। तभी तो वे "भारतेंदु" हैं। पुनः धन्यवाद
वर्ष पूर्ण होने पर सभी को शुभकामनायें.
यह कबाड़ नहीं , किसी बडे़ क़िले में छिपे हुए खज़ाने की मानिंद है.
सदा की भांति आज भी अनमोल कबाड़ बटोर कर लाए आप बाबू साहब. और बज़रिये पोस्ट साथी कबाड़ियों को उत्तम सलाह भी दी आपने ... सुन रहे हो रद्दी-पेप्पोर व्यवसायियो? -
प्रचलित करहु जहान में निज भाषा करि जत्न,
राज - काज दरबार में फैलावहु यह रत्न
धन्यवाद सिद्धेश्वर!
वर्षगांठ की शुभकामनाऐं.
varshgaanth par meri bhi
shubhkamanaen
सिद्धेश्वर भाई, अच्छी पोस्ट है। हरे-नीले-पीले कागज पर न सही हरी-नीली-पीली पेंटिंग्स के साथ आता रहूंगा।
भारतेन्दुजी पर
जानकारी बेहद रोचक लगी ..
१ साल पूरा करने पर शुभकामनाएँ !ईद की मुबारकबादी..
जय माता दी !
Post a Comment