Wednesday, October 1, 2008

कवियों के ग्रहण का पूर्वानुमान नहीं लगा सकता कोई पंचांग



१८९२ में मास्को में जन्मी मारीना स्वेतायेवा के पिता पुश्किन संग्रहालय के निदेशक थे और माता विख्यात पियानोवादक. बहुत छुटपन से कविता में रुचि लेने वाली मारीना का पहला संग्रह १९१० में छपकर आया.

१९२२ में वे देश छोड़ कर क्रमशः जर्मनी और चेकोस्लोवाकिया में जा बसीं. सत्रह साल के ख़ुद के चुने निर्वासन के उपरान्त जब वे १९३९ में वापस रूस लौटीं, उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी - हताशा और बीमारी के बीच १९४१ में उन्होंने आत्महत्या कर ली. उनके कुल पांच कविता-संग्रह छपे.

बीसवीं सदी की विश्व कविता को रूस ने जो महाकवि दिए उनमें मारीना भी एक मानी जाती हैं. उनकी तुलना अक्सर रूस की ही एक अन्य महान कवयित्री अन्ना अख़्मातोवा से की जाती है. मारीना स्वेतायेवा की कविता 'कवि' प्रस्तुत है:


कवि

बहुत दूर की बात छेड़ता है कवि
बहुत दूर की बात खींच ले जाती है कवि को

ग्रहों, नक्षत्रों ... सैकड़ों मोड़ों से होती कहानियों की तरह
हां और ना के बीच
वह घंटाघर की ओर से हाथ हिलाता है
उखाड़ फेंकता है सब खूंटे और बन्धन ...

कि पुच्छलतारों का रास्ता होता है कवियों का रास्ता -
बहुत लम्बी कड़ी कारणत्व की -
यही है उसका सूत्र! ऊपर उठाओ माथा -
निराश होना होगा तुम्हें
कि कवियों के ग्रहण का पूर्वानुमान नहीं लगा सकता कोई पंचांग.

कवि वह होता है जो मिला देता है ताश के पत्ते
गड्डमड्ड कर देता है भार और गिनती
कवि वह होता है जो पूछता है स्कूली डेस्क से
जो काण्ट का भी खा डालता है दिमाग
जो बास्तील के ताबूत में भी
लहरा रहा होता है हरे पेड़ की तरह
जिसके हमेशा क्षीण पड़ जाते हैं पदचिन्ह
वह ऐसी गाड़ी है जो हमेशा आती है लेट

इसलिये कि पुच्छलतारों का रास्ता
होता है कवियों का रास्ता, जलता हुआ
न कि झुलसाता हुआ,
यह रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा
पंचांग या जन्त्रियों के लिए बिल्कुल अज्ञात!

5 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

कबाड़खाने के सभी सदस्यों को ईद मुबारक़ !

अख्मातोवा को मैंने पहली बार अशोक दा की सोहबत में पढ़ा ! उनके किए अनुवादों की वह पांडुलिपि एक साल तक मेरे पास रही और अपनी लेखिका राज़ खोलती रही!
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कवि वह होता है जो मिला देता है ताश के पत्ते
गड्डमड्ड कर देता है भार और गिनती
कवि वह होता है जो पूछता है स्कूली डेस्क से
जो काण्ट का भी खा डालता है दिमाग
जो बास्तील के ताबूत में भी
लहरा रहा होता है हरे पेड़ की तरह
जिसके हमेशा क्षीण पड़ जाते हैं पदचिन्ह
वह ऐसी गाड़ी है जो हमेशा आती है लेट

इसलिये कि पुच्छलतारों का रास्ता
होता है कवियों का रास्ता, जलता हुआ
न कि झुलसाता हुआ,
यह रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा
पंचांग या जन्त्रियों के लिए बिल्कुल अज्ञात!

अब मारीना स्वेतायेवा को भी पहली बार अशोक दा के ज़रिए ही पढ़ पा रहा हूं! कितनी अद्भुत कविता!

वीरेन दा की कवियों पर लिखी दो कविताएं भी याद आ रही हैं !

शुक्रिया हे श्रेष्ठ और ज्येष्ठ कबाड़ी !
बहुत-बहुत शुक्रिया !

ravindra vyas said...

जोसेफ ब्राड्स्की ने मारिना पर लिखते हुए कहा था कि सतही फिजुलियत को छोड़ना कविता की पहली चीख है-यथार्थ के ऊपर ध्वनि के दबंग दबाव का समारंभ, अस्तित्व के ऊपर सार के दबाव का जो कि त्रासद चेतना का स्रोत है। इस रास्ते पर स्वेतायेवा किसी भी रूसी कवि लेखक की तुलना में बहुत आगे तक गईं, और संभवतः यह महसूस हो कि समूचे विश्व साहित्य में भी।

Ek ziddi dhun said...

main nahi jaanta ki ye kya baat hai ki main kavitayen samajh nahi paata par kavitayen hi mujhe sabse zyada aakarshit kartee hain. Mareena ko jab padha tha, unke rahsymay se prabhav mein ghoomta raha tha kafee dino tak. Kabaadkhana isiliye kabaadkhana hai ki kho gayee saaree achhee cheejen yahan mil jaatee hain

सुशील छौक्कर said...

वाह जी वाह रुस के दो अनमोल हीरे ले आये और और उनका जादू अपने ब्लोग पर डाल हम पर ही जादू सा कर दिया। मै भी कुछ दिनो पहले एक लाईब्रेरी से मरीना और अन्ना को पढकर कुछ एक कविताएं लाया था कि अपने ब्लोग पर डालूँगा। पर फिर ध्यान से उतर गया। आज आपकी पोस्ट ने याद दिला दिया। दोनो को ही पढकर अच्छा लगा। शुक्रिया आपका इतनी अच्छी कविताएं पढवाने का।

दीपा पाठक said...

सुंदर कविता, मुझे नहीं लगता कि अनुवाद में कुछ छूट पाया होगा। एक भयानक, ठण्डी मुस्कान जैसे भावों को पूरी जीवंतता के साथ उभारती एक मुकम्मल कविता। आगे भी इंतजार रहेगा ऐसी ही कविताओं का।