Thursday, November 13, 2008

भीमसेन जोशी और कम्यूनिस्ट भाषा का सपना



शहर हल्द्वानी में रहने वाले विपिन बिहारी शुक्ला मेरे अच्छे मित्रों में हैं. वे मेरे सबसे अच्छे कम्यूनिस्ट मित्र हैं. उनके भीतर एक ऐसा गुण है जो नए-पुराने वामपंथियों में दुर्लभतम है - उनसे बहुत सामान्य विषयों पर बढ़िया वार्तालाप हो सकता है. आमतौर पर ख़लीफ़ा की सीट पर विराजमान, चे और मार्क्स से नीचे न उतरने पर आमादा, खग्गाड़ कम्यूनिस्ट महापुरोधाओं की संगत में मैं भीषण चटा हूं - साहब लोग सुनते ही नहीं.

आज बहुत दिनों बाद मेलबॉक्स खोला तो विपिन भाई का मेल था. मेल में उनकी नई आई डी की सूचना थी और एक छोटा सा अटैचमैन्ट.

जस का तस आप के लिए लगाए दे रहा हूं:


आज मैंने भीमसेन जोशी पर मंगलेश डबराल का एक लेख पढा। मैंने उन्हें सुना तो है लेकिन वैसे ही जैसे कि कोई शास्त्रीय संगीत सुनता है, मुग्ध होता है और दूसरे कामों में लग जाता है। मैं उनके संगीत के बारे में कोई विश्लेषण खुद नहीं कर सकता।

मंगलेश जी ने उनके बारे में सुन्दर तरीके से लिखा है और मेरे सामने उनकी बातें मोटे तौर पर न मानने का कोई कारण नहीं है। उन्होंने जोशी जी के संगीत के बारे में लिखा है कि उसमें एक साथ विनम्रता और स्वाभिमान मौजूद है। और खुद जोशी जी के शब्दों में वे दुनिया के सबसे बडे चोर हैं। दूसरे कलाकारों से उन्होंने इतना कुछ लिया है। लेकिन खास बात यह है कि सुनने वाले नहीं बल्कि खुद वे ही बता सकते हैं कि उन्होंने दूसरों से क्या और कहां लिया है।

देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़े मुझे भी कुछ समय हो गया है। भीड़ भाड़ में एक कार्यकर्ता के बतौर तो कभी एकांत और कभी त्रासद अकेलेपन के माहौल के बीच। लेकिन मेरी हमेशा एक ख्वाहिश रही है। कम्युनिस्टों के विचारों को उस रूप में सुनने की जहां एक साथ स्वाभिमान और विनम्रता मौजूद हों। जहां सारे मार्क्सवादियो से लिया गया हो लेकिन यह बात सुनने वाले से ज्यादा सुनाने वाले को पता हो। जहां वह मुग्ध करे और उसका आकर्षण सुनने वालों को आग़ोश में ले लेता हो।

हमारे दौर में कम्युनिस्ट प्रचार और विचारों में मुझे यह सब न देखकर दुख होता है। लेकिन मैं नौजवान कम्युनिस्टों को जब भी देखता हूं तो मेरी आशा जोर मारने लगती है। मै उनकी आंखों से अपना यह सपना देखने की कोशिश करने लगता हूं।

(यह लेख अमर उजाला में कल आया था. और हां, राजेश जोशी वाली पोस्ट में 'सेलिंग बाई' लगा दिया है.)

6 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

विपिन जी के बारे में बताने का शुक्रिया। यह गुण तो हर एक सामाजिक कार्यकर्ता में होना चाहिए।

विष्णु बैरागी said...

विपिनजी के बारे में जानकर अच्‍छा लगा । कितना अच्‍छा होता कि प्रत्त्‍येक वामपंथी इतना लचीला और सहज होता । लेकिन यह तो 'आकाश कुसुम' की कल्‍पना है । अब भय है कि विपिनजी के इस 'दुर्गुण' के कारण वामपंथी मित्र उन्‍हें 'बुर्जुआ' करार देकर खदेड न दें ।

Unknown said...

विपिन जी शायद आपको लंका पर शामों को अरोड़ा के स्टाल पर दिल्ली के अखबार पलटते हुए काफी के छींट वाली चाय पीने की याद हो। बहुत कुछ बदला पर आपकी मुस्कान वही है।

आनलाइन मुलाकात कराने का शुक्रिया, अशोक जी।

शिरीष कुमार मौर्य said...

विपिन जी एक बार मेरे पास नैनीताल आए थे और उनके जोश के आगे मै नतमस्तक था। एक अदना-सा कवि जो ठहरा! मिलने का मन होने के बावजूद दुबारा मुलाक़ात नहीं हो पायी!

वे जहां भी हैं उन्हें सलाम!

शिरीष

Unknown said...

Pandijji, aap to famous ho haye!!

Dinesh Semwal said...

vipin bhai ko apna bhi ram ram

dinesh semwal