मैं अब भी उस चौराहे से गुजरता हूँ । इस चौराहे पर पहले एक छोटा-सा सुंदर बगीचा था। मेरे ताऊजी जिन्हें हम बड़े दादा कहते थे हमें यहाँ अक्सर शाम को खेलने के लिए ले आते थे। यहाँ किसी टूटती बेंच पर या किसी पेड़ के नीचे दोपहर में बूढ़े झपकी लेते थे। परीक्षा के दिनों में कुछ लड़कों के झुंड पढ़ने आते थे। चना-चबैना, गुड्डी के बाल, ककड़ी-भुट्टे, अमरूद, बोर, खिरनी, जामुन, विलायती इमली की टोकनियां लिए लोग आवाज लगाकर इन्हें बेचते थे। रंगीन कागजों से बनी चकरियां और गुब्बारे बिकते थे। बच्चे जिद करके इन्हें खरीदते थे। अब तो ये कहीं दिख जाते हैं तो बच्चे इनकी तरफ देखते तक नहीं। लेकिन इस चौराहे की अब सूरत बदल चुकी है। यहाँ तमाम चीजों के शो रूम्स और दुकानें खुल गई हैं। रात में इनके काँच और लुभाती वस्तुएँ तेज रोशनी में मनोहारी सपनों को रचती हैं। बच्चे इन्हें टुकुर टुकुर देखते। यहाँ शाम को रौनक बढ़ने लगी। धीरे-धीरे हुआ यह कि जो बगीचा था वहाँ अब पार्किंग स्थल बन गया। जहाँ पहले पाँव लेते बच्चों की डगमग लय हुआ करती थी, अब वहाँ चमचमाती कारें सीना ताने खड़ी रहती हैं। पहले यहाँ झूले थे, बच्चे थे और उनकी किलकारियाँ थीं। अब कारों की कतारें हैं।
फिर यह हुआ कि यह पूरे शहर में होने लगा कि जहाँ बड़े-बड़े मैदान थ, वहाँ कॉलोनियाँ कट गईं, प्लॉट बन गए और देखते-देखते उन पर मकान खड़े हो गए। बगीचे और मैदान गायब हो गए। अखबारों में बड़-बड़े विज्ञापन छपने लगे जिसमें नई बनती कॉलोनियों और उनमें बनने वाले भव्य मकानों के चित्र थे। एक दिन खबर छपी कि सड़क पर अकेला खेलता बच्चा मारा गया। किसी चार पहिया वाहन ने उसे टक्कर मार दी थी। शायद खेल में वह इतना मगन हो गया था कि भूल गया था कि वह सड़क पर खेल रहा है। अपने खेल में वह भूल चुका था कि सड़क उसके लिए एक खेल के मैदान में बदल गई है। सड़क उसे शायद बगीचा लग रही थी क्योंकि उसके घर में, या पड़ोस में या आसपास कहीं बच्चों के खेलने के लिए जगह नहीं थी। कोई खाली और खुली जगह नहीं थी, कोई मैदान नहीं था, कोई बगीचा नहीं था।
शहर में खूब सारे मकान थे और खेलने के लिए जगह नहीं थी। घर में इसलिए जगह नहीं थी कि घर छोटे होते जा रहे थे क्योंकि उनमें टीवी, फ्रीज, आलमारी, सोफासेट, प्लेयर आदि अडंग-बड़ंग के लिए जगह थी, बच्चों के खेलने के लिए नहीं। यदि यह सब अडंग-बड़ंग नहीं था तो इन्हें खरीद लेने की तैयारियाँ और योजना थी। खूब सारा तनाव था,इन चीजों को न बटोर पाने का। दूसरी ओर टीवी ने विज्ञापन में खूबसूरत घर दिखाकर हीन भावना पैदा कर दी थी। अतः बच्चा घर से बाहर कर दिया गया और वह सड़क पर खेलता मारा गया।
फिर यह हुआ कि यह पूरे शहर में होने लगा कि जहाँ बड़े-बड़े मैदान थ, वहाँ कॉलोनियाँ कट गईं, प्लॉट बन गए और देखते-देखते उन पर मकान खड़े हो गए। बगीचे और मैदान गायब हो गए। अखबारों में बड़-बड़े विज्ञापन छपने लगे जिसमें नई बनती कॉलोनियों और उनमें बनने वाले भव्य मकानों के चित्र थे। एक दिन खबर छपी कि सड़क पर अकेला खेलता बच्चा मारा गया। किसी चार पहिया वाहन ने उसे टक्कर मार दी थी। शायद खेल में वह इतना मगन हो गया था कि भूल गया था कि वह सड़क पर खेल रहा है। अपने खेल में वह भूल चुका था कि सड़क उसके लिए एक खेल के मैदान में बदल गई है। सड़क उसे शायद बगीचा लग रही थी क्योंकि उसके घर में, या पड़ोस में या आसपास कहीं बच्चों के खेलने के लिए जगह नहीं थी। कोई खाली और खुली जगह नहीं थी, कोई मैदान नहीं था, कोई बगीचा नहीं था।
शहर में खूब सारे मकान थे और खेलने के लिए जगह नहीं थी। घर में इसलिए जगह नहीं थी कि घर छोटे होते जा रहे थे क्योंकि उनमें टीवी, फ्रीज, आलमारी, सोफासेट, प्लेयर आदि अडंग-बड़ंग के लिए जगह थी, बच्चों के खेलने के लिए नहीं। यदि यह सब अडंग-बड़ंग नहीं था तो इन्हें खरीद लेने की तैयारियाँ और योजना थी। खूब सारा तनाव था,इन चीजों को न बटोर पाने का। दूसरी ओर टीवी ने विज्ञापन में खूबसूरत घर दिखाकर हीन भावना पैदा कर दी थी। अतः बच्चा घर से बाहर कर दिया गया और वह सड़क पर खेलता मारा गया।
बस खबर थी कि सड़क पर अकेला खेलता बच्चा मारा गया। वह इस तरह लिखी गई थी कि पाठकों को लगे कि गलती बच्चे की थी।
गुनहगार तो बच्चा था जो अकेला सड़क पर खेलते मारा गया, बाकी सब बरी थे।
7 comments:
बाज़ारवाद के चूहादौड पर सुंदर अभिव्यक्ति। आज जीवनमूल्यों से अधिक भोग की वस्तुएं प्रिय होती जा रही हैं।
जीवन की इस भागमभाग में वह सुनहरे पल कहाँ खोते जा रहे हैं .हम ख़ुद नही जानते .घर मुर्गीखाने बने हुए हैं जहाँ धूप हवा भी सोच सोच कर आती है .बाहर हर कोई अपनी गाड़ी के लिए जगह चाहता है बच्चे कहाँ खेले .?सही इस व्यथा को लिखा है आपने इस घटना के माध्यम से ..
जी हाँ बाजार वाद में ऐसे लोग ही तो शहीद होते है
शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि, बाजारवादी अर्थव्यवस्था, उपभोक्तावाद, रोजी-रोटी की समस्या आदिसे उपजी समस्या को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करती है यह पोस्ट। लेकिन दोष किसे देंगे? मनुष्य की जिजीविषा जो न करा दे...!
अकेला होना भी तो गुनाह ही है इस जमाने में
bouth he aacha laga read ker ki
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हमारी उद्दाम लालसा के पहले शिकार तो बच्चे ही होते हैं चाहे वे घर में हों अथवा घर के बाहर। एक कटु वास्तविकता को रेखांकित किया है आपने।
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