"ग़ज़ल शब्द के दो अर्थ होते हैं - एक ग़ज़ल, दूसरा बेग़म अख़्तर"।
ऐसा मानने वाले कैफ़ी आज़मी साहब की एक शुरुआती ग़ज़ल बेग़म अख़्तर ने गाई थी जो खासी मक़बूल है। इसी ग़ज़ल के बहाने दोनों को एक साथ याद कर रहा हूँ। हैरानी होती है कि बेग़म अख़्तर का ग़ज़लों का चुनाव इतना सटीक कैसे होता था। कोई भी ग़ज़ल निराश नहीं करती।
बहरहाल बकवाद बंद और ग़ज़ल चालू...
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की खलल पड़े
हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े।
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ऐ- गम
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े।
इक तुम कि तुम को फ़िक्रे-नशेबो-फ़राज़ है
इक हम कि चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े।
मुद्दत के बाद उसने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े।
साकी सभी को है गम-ए-तश्ना:लबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिसके उबल पड़े।
7 comments:
आज कई दिनों के बाद 'कबाड़खाना' पर नई पोस्ट आई है और वह भी बेगम अख्तर .. वाह..और क्या!!
mast....kaafi acchi rachna hai..
मैं पी-पी के गर्म अश्क
please check the wording again.
thanks for this wonderful thing
स्वप्नदर्शी जी टाइपो के लिए मुआफ़ी... गलती सुधार दी गई है... और नुक्ते की गलती के लिए पहले ही मुआफी... गूगल विकल्प ही नहीं दे रहा...
बढ़िया काम महेन ! पिपरिया वाला सवाल कभी फुरसत से सुलझा दूंगा!
इस गज़ल का एक आश्चर्यजनक अविश्वसनीय पहलू ये है कि गज़ल क़ैफ़ी साहब ने महज़ ग्यारह साल की उम्र में पढ़ी थी। (http://en.wikipedia.org/wiki/Kaifi_Azmi)
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ऐ- गम
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े।
वाह महेन भाई बहुत शानदार -यह शेर सुनकर एक और शेर याद आ गया-
जला के अपने नशेमन को ख़ुद ही हंसता हूँ,
मज़ाक ख़ुद का उडाना कोई मज़ाक नहीं।
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