दिल लगाकर , लग गया उनको भी तन्हा बैठना,
बारे , अपनी बेकसी की हमने पाई दाद याँ.
भाई मीत ने 'कबाड़खाना' पर नए साल का आगाज़ अपने अंदाज में किया - 'आके सीधी लगी'. अच्छा लगा यह सीधा लगना-
ग़ालिब मेरे कलाम में क्यूँ कर मज़ा न हो,
पीता हूँ धोके खुसरू-ए-शीरीं-सुखन के पाँव.
इधर एकाध दिन से मैं देख रहा हूँ कि नए बरस में कबाड़ी संप्रदाय के सदस्य शायद छुट्टी के मूड में आए हुए हैं या फिर कुछ ऐसा लगता है (शायद) 'रूठु' गये हैं -
दिखा के जुंबिशे लब ही तमाम कर हमको,
न: दे जो बोस: तो मुँह से कहीं जवाब तो दे.
हालाँकि मुझे अच्छी तरह से पता है कबाड़ीगण 'रूठु' नहीं गए हैं -और भी काम हैं कबाड़ खँगालने के सिवा. यह भी पता है कि इस नाचीज को छोड़कर सारे के सारे कबाड़ी उम्दा कबाड़ के संग्रहकर्ता है और हाँ , प्रस्तुतकर्ता भी. हमारे ठिए पर आने वाले सहॄदय ही सचमुच के सहॄदय हैं.जैसा कि आप देख ही रहे हैं ऊपर दिए गए कुछ अशआर इस बत को बयाँ करने के वास्ते काफी हैं कि फिलहाल यह बंदा मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी की गिरफ़्त में चल रहा है.अतएव चलते-चलते सारे कबाड़ियों व इस मुकाम पर पधारने वाले सहॄदयों के लिए महाकवि ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल के ये दो शे'र -
नक्श को उसके , मुसव्विर पर भी क्या-क्या नाज़ है,
खेंचता है जिस कदर , उतना ही खिंचता जाए है.
हो के आशिक , वो परी रुख़ और नाज़ुक बन गया,
रंग खुलता जाए है, जितना के: उड़ता जाए है.
इस काव्य -चर्चा / कबाड़ चर्चा के बाद आइए सुनते हैं यह गीत जो किशोरावस्था को फँलांगने के दौर में अलग और 'कुछ हट के ' लगता था. तब क्या पता था कि कभी जीवन किसी कालखंड में ऐसे ही गीत 'नून -तेल - लकड़ी' की जद्दोजहद में भीतर के अनदिखे -अनकहे टूटन की तसल्लीबख्श मरम्मत का साधन बनेंगे. खैर...
स्वर : शोभा गुर्टू
संगीत : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल
फ़िल्म : मैं तुलसी तेरे आँगन की
बारे , अपनी बेकसी की हमने पाई दाद याँ.
भाई मीत ने 'कबाड़खाना' पर नए साल का आगाज़ अपने अंदाज में किया - 'आके सीधी लगी'. अच्छा लगा यह सीधा लगना-
ग़ालिब मेरे कलाम में क्यूँ कर मज़ा न हो,
पीता हूँ धोके खुसरू-ए-शीरीं-सुखन के पाँव.
इधर एकाध दिन से मैं देख रहा हूँ कि नए बरस में कबाड़ी संप्रदाय के सदस्य शायद छुट्टी के मूड में आए हुए हैं या फिर कुछ ऐसा लगता है (शायद) 'रूठु' गये हैं -
दिखा के जुंबिशे लब ही तमाम कर हमको,
न: दे जो बोस: तो मुँह से कहीं जवाब तो दे.
हालाँकि मुझे अच्छी तरह से पता है कबाड़ीगण 'रूठु' नहीं गए हैं -और भी काम हैं कबाड़ खँगालने के सिवा. यह भी पता है कि इस नाचीज को छोड़कर सारे के सारे कबाड़ी उम्दा कबाड़ के संग्रहकर्ता है और हाँ , प्रस्तुतकर्ता भी. हमारे ठिए पर आने वाले सहॄदय ही सचमुच के सहॄदय हैं.जैसा कि आप देख ही रहे हैं ऊपर दिए गए कुछ अशआर इस बत को बयाँ करने के वास्ते काफी हैं कि फिलहाल यह बंदा मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी की गिरफ़्त में चल रहा है.अतएव चलते-चलते सारे कबाड़ियों व इस मुकाम पर पधारने वाले सहॄदयों के लिए महाकवि ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल के ये दो शे'र -
नक्श को उसके , मुसव्विर पर भी क्या-क्या नाज़ है,
खेंचता है जिस कदर , उतना ही खिंचता जाए है.
हो के आशिक , वो परी रुख़ और नाज़ुक बन गया,
रंग खुलता जाए है, जितना के: उड़ता जाए है.
इस काव्य -चर्चा / कबाड़ चर्चा के बाद आइए सुनते हैं यह गीत जो किशोरावस्था को फँलांगने के दौर में अलग और 'कुछ हट के ' लगता था. तब क्या पता था कि कभी जीवन किसी कालखंड में ऐसे ही गीत 'नून -तेल - लकड़ी' की जद्दोजहद में भीतर के अनदिखे -अनकहे टूटन की तसल्लीबख्श मरम्मत का साधन बनेंगे. खैर...
स्वर : शोभा गुर्टू
संगीत : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल
फ़िल्म : मैं तुलसी तेरे आँगन की
7 comments:
नववर्ष की शुभकामनाएँ।
एक अच्छा गीत सुनवाने के लिए धन्यवाद।
घुघूती बासूती
सारे कबाड़ियों को नया साल मुबारक!!!
और सिद्धेश्वर भाई क्या रंग हैं नए साल के। क्या खूब गीत लगाया है। मज़ा आ गया।
धन्यवाद बंधू, बरसों का खोया गीत फ़िर से सुनाने के लिए!
शब को किसी के ख्वाब मे पहुचा न हो कही
दुख्ने लगे है उस बुते-नाजुक-बदन के पाव
सिद्धेश्वर भाई... पिथौरागढ़ में बिताए वो दो दिन अब भी साथ हैं. और साथ है अ.आ.अ. पर पहाड़ का विशेष अंक जो ख़रीदा आपने और दबोच लिया मैंने. पढ़ रहा हूँ और आपको याद कर रहा हूँ.
रूठुना, मनाना तो चलते रहना चाहिए.
राजेश भाई,
आप अपने ठिए पर हुआँ
मैं अपने ठिए पर हियाँ
परंतु-किन्तु-लेकिन
कितबिया सही जगह..
पन्ने-पन्ने पर लिखा है पढ्ने वाले का नाम.
(वैसे दूसरी का 'प्रिबंध' हो गया है, चिन्ता नईं)
नराई......
सैयां रूठ गए मैं मनाती रही .......वाह क्या बात है।
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