दिल्ली में मयख़ाने वाले मुनीश भाई ने सलाह दी थी कि मौका मिले तो जयपुर के नज़दीक गलता नामक जगह पर ज़रूर जाऊं. होटल से गलता की तरफ़ चलते हुए मैंने टूरिस्ट गाइड में उड़ती निगाह डाली: "जयपुर से दस किलोमीटर दूर स्थित गलता एक छोटा सा सुन्दर हिन्दू तीर्थस्थल है. विश्वास किया जाता है कि ऋषि गलव ने यहां रहकर साधना वगैरह करते हुए अपने दिन बिताए थे." टूरिस्ट गाइड में लिखित आखिरी पैराग्राफ़ बताता है कि गलता तीर्थ का पूरा परिसर अपने सौन्दर्य के कारण ज़्यादा जाना जाता है बजाय अपने महात्म्य के.
जयपुर बाईपास पार करते ही उचाट किस्म की सड़क शुरू हो जाती है: कंटीली झाड़ियां, छोटे-बड़े आश्रमों-मन्दिरों के बोर्ड, अधिकतर बोर्डों के ऊपर विराजमान बन्दर, हल्की उमस और धूल. करीब दस किलोमीटर निकल पड़ने के बाद भी जब कुछ ख़ास नज़र नहीं आता तो मुझे शक होता है कि हम किसी गलत रास्ते पर निकल आए हैं. रास्ता पूछे जाने पर ही इत्मीनान होता है.
चाय-पानी-प्लास्टिक मालाओं के क़रीब दसेक खोखे और उनके आसपास बिखरा सतत उपस्थित कूड़ा, प्लास्टिक की हवादार उड़ती थैलियां, उदास पस्त-पसरी गायें, लेंडी कुत्ते और गोबर इकठ्ठा करते वयोवृद्ध नागर बतलाते हैं कि आप किसी टूरिस्ट-स्पॉट पर पहुंच गए हैं. गाड़ी से बाहर निकलते ही "यस सर गाइड गाइड वाटर वाटर ..." की ध्वनियां कान में पड़ते ही याद आना ही होता है कि मेरे साथ दो विदेशी महिलाएं भी हैं. पिछले क़रीब बीस सालों से मेरे साथ ऐसा होता ही रहता है और ऐसा होने की स्थिति में या तो मैं फट पड़ता हूं या निखालिस अंग्रेज़ एक्सेन्ट में "न्नो सैंक्स ..." कहता अपनी पानी की बोतल को दुलराने लगता हूं (कभी कभार जब बोतल में भरे पानी की प्रकृति को अन्य पारदर्शी द्रवों द्वारा पवित्र बना लिया गया होता है, मैं चढ़ी हुई दोपहरी में भी उस से दो घूंट मार लेने की बहादुरी दिखा लेता हूं).
ऐसा ही कुछ कर के हम श्री गलता जी नामक विख्यात हिन्दू तीर्थ का रुख करते हैं. हम माने मैं, सबीने और सोनिया. श्री गलता जी धाम का गेट दूर से ऐसा लगता है मानो स्थानीय नदी पर बने सरकारी पुल पर चुंगी वसूलने को लगाए गए किसी स्थानीय माफ़िया-राजनेता-राजनेता ठेकेदार के मातहतों ने कोई बदतमीज़ बैरियर लगा रखा हो.
बैरियर पर पहुंचते ही एक आवाज़ आती है. इस आवाज़ में लालच-हरामीपन-नंगई-लुच्चापन इत्यादि वे तमाम गुण मौजूद हैं जिनके चलते मैं कई बार विश्वामित्र का प्लास्टिक का पुतला बनने पर मजबूर हुआ हूं. "सार ... सार ... लुक हेयर ..."
"बोल! ..." मैं हिकारत से उस पैंतालीसेक सालों के कामचोर से कहता हूं. कामचोर मुझे अंग्रेज़ महिलाओं का गाइड समझ कर उनसे मुख़ातिब होता है: "मैडम मैडम यू लाइक पीनट ... मन्की लाइक पीनट ... यू गिव हिम वन बाई वन ... मंकी लाइक पीनट ... मंकी मंकी वैरी हैप्पी" (यह पूरा वाक्य इस कामचोर की ज़िन्दगी में की गई दुर्लभ मेहनत का कुल हासिल था). जब वह दुबारा इसी वाक्य को तनिक और ऊंची आवाज़ में दोहराता है मेरी इच्छा होती है उस के मुंह पर थूक कर कहूं कि बेटा कल से मेरे पास आ जाया करना. और कुछ नहीं तो तुझे फावड़ा-गैंती पकड़ना तो सिखा ही दूंगा. सबीने मेरे इस कोटि वाले गुस्से से परिचित है सो मुझे समझा कर बैरियर के उस पार घसीट ले जाती है.
एक गेरुवाधारी युवा ठग हाथों में दो मोबाइल थामे हमारी तरफ़ आ रहा है. बैरियर से अन्दर घुसते ही दांई तरफ़ एक बहुत नया सफ़ेद मार्बल का चबूतरा है जिसके एक कोने पर हनुमान का हास्यास्पद सा मन्दर चेप दिया गया है. मन्दर के भीतर चमचम करते प्लास्टिक और लाल-नारंगी रंगों की मनहूसियत बिखरा दी गई है.
अभी मेरा मन उस द्विमोबाइलोन्मुखी रुद्रांश गेरू चोट्टे के प्रति गुस्से से भरने को ही हो रहा था कि एक और छोटा सा अदमी सामने आ गया जिसकी सूरत पर बचपन से ही तमाम कुटैव कर चुकने की छापें छपी हुई थीं. "कैमरा है?" उसने बहुत उद्दंडता से पूछा. "है! बोल!" मेरा गुस्सा अब चरम पर पहुंचा ही चाहता था. "फ़ोटो नहीं खींचनी हमें!" मेरा ध्यान अपने कदमों तक बहती आती गन्दगी भरी अस्थाई नाली पर जा चुका था. "पांच सौ का जुरमाना भरना पड़ेगा" वह अपनी उद्दंडता का प्रदर्शन जारी रखता है. "आजा मेरे पीछे ... ले जाना अपना जुरमाना!" मैं एक मोटी गाली दे कर आगे बढ़ता हूं. मेरे साथ की दोनों महिलाएं भी सामने दिख रही किलेनुमा इमारतों की तरफ़ तनिक बेरुखी से देखती हुईं कदम बढ़ाने लगती हैं.
ज्यों ज्यों आगे बढ़ते जाते हैं गन्दगी और बदबू बड़ते जाते हैं. श्री गालता जी धाम में एन्ट्री लेते ही गन्द और गाद से भरे दो बजबजाते कुण्ड दिखाई देते हैं. "स्नेक स्नेक फ़ोटो ओटो फ़िफ़्टी रुपीज़ ओनली ..." कहती टोकरी में दयनीय सांप और गोदी में सांप से भी दयनीय बच्चा चिपकाए तीन सींकिया औरतें हम पर टूट पड़ती हैं. बन्दरों की संख्या एक करोड़ के पार लगती है. भक्त किस्म के कुछ भारतीय परिवार बिना परेशानी के कीचकुण्ड तक पहुंच चुके हैं. रास्ता प्लास्टिक की बेशुमार थैलियों और विष्ठा से भरा हुआ है. डकैत पिण्डारी दिखते पांचेक शोहदे ऊपरी कुंड के पास बैठे स्त्रीदर्शन में व्यस्त हैं. सबके माथों पर तिलक है, गलों में रुद्राक्ष की मालाएं हैं. उनका नेता मुझे अंग्रेज़ समझता है और बहुत भद्दी आवाज़ में मेरे साथ चल रही स्त्रियों पर कमेन्ट करता है. मेरे मुंह से और मोटी गाली निकलती है और पिण्डारीसमूह इधर उधर हो जाता है.
मैं इस जगह एक पल भी नहीं ठहर सकता अब. ऋषि गलव की कर्मभूमि पर कई सदियों का कीचड़ ठहरा हुआ है. निचले कीचकुण्ड के पानी को अंजुरी में ले कर दो तोंदू धर्मपारायण आत्माएं जैसे ही उसका कुल्ला करती हैं, मुझे उबकाई आ जाती है.
मैं अपने वापस लौटने की सूचना जारी करता हूं और तेज़ तेज़ कदमों से नीचे उतर आता हूं. फ़ोटो के पैसे लेने वाले चोट्टे की निगाहें मुझ पर लगी हुई हैं. इसके पहले कि वह कुछ कहे मैं उसे घूर कर देखता हूं, सिगरेट सुलगाता हूं और ढेर सारा धुंआ उसकी दिशा में उड़ाता हूं. एक बार पलट कर देखता हूं.
असल में यह धाम वास्तुशिल्प का इस कदर बेहतरीन नमूना है कि दूर से देखने पर अकल्पनीय सुन्दर लगता है. पर ऐसा हमारे महान देश की अधिकतर महान चीज़ों के साथ होता है. मैं इस जगह की बदहाली से कम, सरकार और लोगों की बेज़ारी से अधिक दुखी हूं.
हमारे पीछे कुछ और विदेशी सैलानी आ चुके हैं और बाहरी इमारतों के अहातों में मौजूद बन्दरों को मूंगफलियां खिला रहे हैं. कामचोर ने कुछ बिजनेस कर लिया दिखता है और मंकी मंकी बहुत हैप्पी हैप्पी भाव से पीनट्स सूत रहे हैं.
(जयपुर यात्रा अगले हिस्से में समाप्य)
14 comments:
डिस्कवरी चेनल वाले अक्सर रात दस बजे गलता के बंदरों पर एक घंटे का कार्यक्रम दिखाते हैं "मंकी गैंग", काश वो आपसे सीखते की किसी जगह का खाका कैसे खींचा जाता है...कभी गलता मेरा प्रिय स्थान हुआ करता था , तब गौ मुख से बाकायदा एक मोटी धारा बहती थी और नीचे के कुंड में साफ़ पानी हुआ करता था...अब सब बदल गया है...गन्दगी और बंदरों के चलते वो जगह जाने लायक नहीं रही...हाँ बारिशों में अब भी वहां जाया जा सकता है...लेकिन उसे दर्शनीय स्थान नहीं माना जाना चाहिए...आपके लेखन मैं कायल हो गया हूँ...नमन है आपकी कलम को...
नीरज
अपने देश के दर्शनीय स्थलों को कैसे वमनीय स्थल बनाया जाए इसपर दो चार स्थलों पर ही जाकर एक बड़ी सी पुस्तक लिखी जा सकती है।
एक दो साल पहले तक सोमनाथ के बाहर भी यही हाल था। सौभाग्य से साफ सफाई कर दी गई है। द्वारकाधीष के बाहर भी गलियों की हालत खराब है परन्तु उतनी नहीं जितनी आपने गलता जी के बाहर की बताई है। पढ़कर लज्जित ही हुआ जा सकता है।
घुघूती बासूती
नमन करता हूं बेबाक कलम को।
द्विमोबाइलोन्मुखी रुद्रांश गेरू चोट्टे
शिल्प गजब सूझता है आपको भी।
हमने एक सूत्री नियम बना रखा है कि अगर जगह तीर्थ कही जा सकती है तो हम वहॉं के भगवान को अपने कुदर्शनों से यथासंभव वंचित रखते हैं।
आई आलसी कबाड़ी लाइक्ड दिस पोस्ट..
आई आई वेरी हैप्पी..
बहुत खूब वर्णन किया है परिवेश का भी अपनी खीझ का भी ।
mazedaar hai, agli kist ka ka intazaar hai!
जयपुर यात्रा की अंतिम किस्त के बाद ड्रमभरीकरण के आगे के हाल का नंबर लगाईयेगा! :)
Muneesh ji ka teerthsathal
Very good depiction, I have similar feeling while visiting some of the other places as well. I understand your anger about the situation, and also helplessness that we can not change this situation.
But I am a little surprised why your anger is directed to the helpless people, the people on border line of survival?
"मेरी इच्छा होती है उस के मुंह पर थूक कर कहूं कि बेटा कल से मेरे पास आ जाया करना. और कुछ नहीं तो तुझे फावड़ा-गैंती पकड़ना तो सिखा ही दूंगा"
What if this guy has no farming land where these tools can be used?
If you can not do anything to change this situation, in spite of education, financial assets or wider social platform, then what choice these people have?
I hope you do not take my comment otherwise. But this what I tell myself often, when I encounter these situations.
Bahut hi teekha par sach varnan tha aaj ke teerath astahnon ka....
Aab to yeh aelam hai ki khud khuda bhi inmein basne se darta hoga.....
प्रभु, अपनी तरह के शब्द रचना हमें भी सीखा दो।
आपने तो सजीव चित्रण कर दिया एकदम्मै ही।
when i visired this place years ago it was not that bad !
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