Wednesday, February 25, 2009

गुलज़ार की नज़्म जंगल और पेंटिंग


है सौंधी तुर्श सी खु़श्बू धुएं में,
अभी काटी है जंगल से,
किसी ने गीली सी लकड़ी जलायी है!
तुम्हारे जिस्म से सरसब्ज़ गीले पेड़ की
खु़श्बू निकलती है!
घनेरे काले जंगल में,
किसी दरिया की आहट सुन रहा हूं मैं,
कोई चुपचाप चोरी से निकल के जा रहा है!
कभी तुम नींद में करवट बदलती हो तो
बल पड़ता है दरिया में!

तुम्हारी आंख में परवाज दिखती है परिंदों की
तुम्हारे क़द से अक्सर आबशारों के हसीं क़द याद हैं!


(पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास)

8 comments:

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

कभी तुम नींद में करवट बदलती हो तो
बल पड़ता है दरिया में!

तुम्हारी आंख में परवाज दिखती है परिंदों की
तुम्हारे क़द से अक्सर आबशारों के हसीं क़द याद हैं!


gulzaar to gulzaar hain, ek ek lafz mein kaise jadu bhar dete hain

रंजू भाटिया said...

नज्मके साथ साथ पेंटिंग भी बहुत सुन्दर है शुक्रिया

हें प्रभु यह तेरापंथ said...

तुम्हारी आंख में परवाज दिखती है परिंदों की
तुम्हारे क़द से अक्सर आबशारों के हसीं क़द याद हैं!

बहुत ही उम्मुन्दा रचना के लिये बधाई।

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एस. बी. सिंह said...

हुज़ूर बस किसी दरिया की आहट सुन रहा हूं मैं !

विजय गौड़ said...

रविन्द्र जी की पेंटिग रंगो में खास तरलता के लिए अलग से पहचानी जा रही है। पनियल हरा रंग जिसमें जीवन सांस लेता हुआ है, उनकी अन्य पेंटिग में भी आ रहा है- जो पिछले दिनों इधर-उधर दिखाई दीं। रविन्द्र जी के काम को मै ब्लाग की वजह से ही जानने लगा हूं। एक महत्वपूर्ण आर्टिस्ट से ब्लाग के कारण ही परिचित हो पाया हूं, इसीलिए उल्लेख करना जरूरी लग रहा है।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

गुलज़ार की कविताओं में जंगल भी गुलज़ार हो उठता है।

makrand said...

wah bahut khub

ravindra vyas said...

sabhi ka shukriya!