Sunday, March 1, 2009

जयपुर यात्रा - आखिरी हिस्सा

गन्दधाम गलता जी से लौटते हुए मन इस कदर खराब हो चला था कि मैंने पानी की बोतल में ऐसे मौकों के लिए महफ़ूज़ धरे गए, पवित्र बना लिए गए पारदर्शी द्रव को सारा का सारा गटक लिया और फ़िटफ़ोर होने का जतन करने में उद्यत हो गया. सासू मां ने विएना से अपने हाथों से खेंची जो कच्ची भिजवाई थी उसी की सहायता से निर्मित था यह पवित्र जल. इस अतीव प्रभावकारी विलयन ने कुछ पलों के लिए मेरे दिमाग और ज़बान दोनों को टेढ़ा कर देने का महाकार्य कर दिखाया. शीघ्र ही मेरा गुस्सा भी काबू में आ गया.

साथ की महिलाएं ज़्यादा स्मार्ट निकलीं. उन्होंने अपने बटुए में दो छोटी छोटी शीशियां सम्हाली हुई थीं. ये शीशियां उन्होंने अपनी हवाई यात्रा से चाऊ की थीं और मेरे साहस से प्रेरित होकर इस शुभ मुहूर्त में उन्हें खाली कर देने में तनिक भी समय नहीं गंवाया. 'दोपहर' शब्द को जस्टीफ़ाई करते दो बजे थे. आंखें चुंधियाने वाली धूप थी और भूख लगी थी. बैरियर से बाहर लगे खोखों के आगे एक बहुत ही बूढ़ा़ बाबानुमा व्यक्ति गोबर एकत्र करने में मसरूफ़ था. उसकी साथिन उससे करीब एक पीढ़ी छोटी साठोत्तरी किन्तु चुलबुल किस्म की अम्मा थी. हमारे समूह के प्रति बाबा का नकार और गैरदिलचस्पी बतला रहे थे कि उन्होंने ताज़िन्दगी अंग्रेज़दर्शन करते हुए समय जाया किया होगा. टूरिस्ट स्पॉट के पास रहने के सारे लुत्फ़ वे अपने बखत में काट चुके होंगे. उनकी साथिन अलबत्ता सारा काम छोड़ एकटक सोनियादर्शन में लग गई. एक मरियल कुत्ता जब हमारी तरफ़ मुंह करके भौंकना ही चाह रहा था, अम्मा ने एक छोटा पत्थर उस की ओर फेंका. पत्थर बिचारे की मुंडी के बीचोबीच लगा. अपनी दबी हुई दुम को भरसक और दबाता लेंडी कुत्ता गलताजी धाम की दिशा में भाग चला.

अम्मा सोनिया के पास आकर कहती है "फ़ोटो!" सोनिया कहती है "ओके". मैं तनिक दूर से इस कार्यक्रम को देख रहा हूं. सोनिया उसकी फ़ोटो खेंचती है. तभी बाबा जी की खीझ भरी आवाज़ आती है "तंग ना कर बिचारों को. गोबर सम्हाल!"

ड्राइवर से कहा जाता है कि वह चार-पांच किलोमीटर आगे चला जाए. हम कुछ देर पैदल चलेंगे.

गलताधाम से लौटते हुए यदि वहां की गन्दगी और विष्ठा से मन खट्टा हो गया हो तो मेरी राय है कि वापसी में आप चार-पांच किलोमीटर पैदल चलें. कितनी-कितनी तरह के तो परिन्दे और क्या उनका कलरव. अलौकिक! रेत के टीले! ढूहों से झांकते गिलहरियों और चूहों के शर्मीले समूह! - जीवन! जीवन!

सिसोदिया रानी के महल बाहर हज़ारों कबूतरों को चारा डाला जा रहा है. चारा डालने वाला आदमी अपने काम से प्यार करने वाला है. दो कबूतर किसी जुगाड़ टैक्नीक से उसकी खोपड़ी पर कब्ज़ा जमाए हैं और अपने साथियों को लंच करता देखे ही जाते हैं. सामने की पहाड़ी पर किलेनुमा एक इमारत झांकती है. सबीने को उस के बारे में जिज्ञासा होती है. मैं सिसोदिया महल के बाहर बैठे एक सज्जन से इस बाबत पूछता हूं तो वे बताते हैं कि वह कोई जैन मन्दिर है.

जयपुर बाईपास के बाद हम बांई तरफ़ वाला दूसरा रास्ता पकड़ लेते हैं. नक्शा हमारे पास है और ऐसा हमने ट्रैक जाम वगैरह से बचने की नीयत से किया है. भारत के सारे छोटे-बड़े नगरों की तरह जयपुर का बाहरी इलाका भी देश की रीढ़ में अवस्थित निर्धनतम जनसमुदाय से अटा पड़ा है. झोंपड़े, कच्चे मकान, नालियां, छोटी दुकानें, खोखे, सद्यःजात मेमने को गोद में उठाए एक मुदित बच्ची, टायर चलाता बच्चों का एक शोरभरा समूह, दाढ़ी खुजाते मौलाना टाइप के बुज़ुर्ग ...

होटल में एक पर्यटक भारतीय परिवार हम लोगों से घुल मिल जाता है. उनका एक किशोरवय बेटा है जिसे क्रिकेट और शतरंज का शौक है. वह दोनों विदेशी महिलाओं से भी आकर्षित है. फ़ोटू वगैरह खींचे जाते हैं.

"व्हेयर आर यू फ़्रॉम मैम?" वह हमारी डिनर टेबल पर सकुचा कर बैठने के उपरान्त पूछता है.

"ऑस्ट्रिया!"

आने वाले रिस्पॉंस का मुझे पता है. बीसेक सालों से यही सुन रहा हूं.

"ओ! ऑस्ट्रेलिया इज़ अ ग्रेट कन्ट्री. आई एम अ फ़ैन ऑफ़ रिकी पॉन्टिंग! योर क्रिकेट टीम इज़ फ़ैबुलस मैम!"

उसे यह बताना अनावश्यक लगता है कि पुत्तर ये मैडमें यूरोप निवासिनियां हैं. विश्व संगीत की राजधानी विएना से पधारी हैं. वह अपने क्रिकेट ज्ञान का प्रदर्शन जारी रखता है.

सुबह निकलना है दिल्ली वापस. जयपुर में आखिरी शाम के नाम हम वापस अपने कमरे में आ कर दो-दो गिलास व्हिस्की समझते हैं. बड़ी महंगी है दारू यहां. हमारे उत्तराखण्ड से भी ज़्यादा महंगी. ऊपर से आठ बजे सारे ठेके बन्द हो जाते हैं.

वापसी यात्रा में हरियाणा बॉर्डर पार कर चुकने से ऐन पहले ड्राइवर साहब मुझसे पूछते हैं कि मुझे दारू तो नहीं खरीदनी. हरियाणा में दारू बहुत सस्ती है. हम दोनों चौकस होकर अगले ठेके की टोह में निगाहें सड़क के अगल-बगल चिपका लेते हैं. मैं पांच बोतलें खरीदता हूं. साढ़े चार सौ रुपए प्रति बोतल की बचत होती है. मेरा शराबी मन प्रसन्न हो जाता है.

और कोई वजह हो न हो जयपुर आते हुए रास्ते में मिलने वाली सस्ती दारू का आकर्षण मुझे वापस जयपुर लाता रहेगा.

आमीन!

2 comments:

Udan Tashtari said...

Teacher's खरीदी या कोई और..यह तो बताओ यार..तो हम भी जायें या फिर आपके साथ बैठक जमायें. :)

नीरज गोस्वामी said...

आप का जयपुर वर्णन एक दम सजीव है लगा जैसे आप के साथ ही यात्रा की जा रही है...गलता से आगे पैदल चलने पर आप के दायीं और एक बड़ा सा मिटटी का टीला है, कभी उसके नीचे बहुत सुन्दर पार्क हुआ करता था...बच्चों को वहां पिकनिक पे ले जाना और उनका उस टीले से नीचे फिसलना याद आ गया...उसकी मिटटी अभी भी बहुत साफ़ और कमाल की है जो आप को चिपकती नहीं हलकी सी झिड़की से छूट जाती है...
बरसातों में ये दो चार की.मी.की पैदल यात्रा यादगार बन जाती है...
आस्ट्रिया और आस्ट्रेलिया का खूब कहा आपने...मेरे साथ ये हो चुका है...आस्ट्रिया जा कर जब किसी को बताया तो सब ने उसे आस्ट्रेलिया ही समझा....अभी भी जब कभी आस्ट्रिया की बात करता हूँ तो लोग आस्ट्रेलिया समझ कर मेरी बात का समर्थन करते हैं...
दारु सस्ती मिल गयी हरियाणा में जान कर अच्छा लगा की हमारे ज़माने की परंपरा अभी तक निभाई जा रही है... आपको और समीर जी को खोपोली आने का न्योता है....घूमने अगर नहीं आना चाहते तो पीने ही आ जाईये...यहाँ से दमन चलेंगे जहाँ बहुत सस्ते में वो सब मिलता है जो मुंबई में दुगने दामों पर मिलता है...

नीरज