आज एक पत्रिका में पढ़ा कि एक सर्वेक्षण के मुताबिक अब दस में से चार लोग ही अपनी कलाई में घड़ी बाँधते हैं.शायद यह मोबाइल फोन की माया है ! यह घड़ी भी क्या चीज है - छोटी-सी मशीनी डिबिया जो पल - पल का हिसाब बतलाती है और दिल धड़काती है. घड़ी- चर्चा से मुझे एक गीत याद आ गया जिसे आपकी सेवा में प्रस्तुत करने का मन है. यह गीत 'लोकसरस्वती' का है जिसके बारे में पिछले साल जुलाई में 'लोकसरस्वती का लोकसंगीत : दो प्रस्तुतियाँ' शीर्षक एक पोस्ट 'कबाड़खाना' पर लगाई थी जिसे बहुत पसंद किया गया था. २८ जुलाई २००८ की पोस्ट में 'लोक्सरस्वती ' के परिचय में जो कुछ लिखा गया था उसे यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ -
" एक थे बाबू काली दासगुप्ता (१९२६ - २००५)। उनका परिचय बस इतना भर नहीं है कि एक सक्रिय और सजग राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने 'जन' से अपने जुडा़व को प्रचार और प्रोपेगैंडा तक सीमित रखते हुए एक साधारण और सामान्य जीवन जिया. वाम राजनीति से सच्चा , सक्रिय और समर्पित जुड़ा़व ही उन्हें लोक और उसकी सांस्कृतिक थाती लोकसंगीत तक ले गया, अपने स्तर पर काली बाबू ने जनजीवन से अपनी निकटता को संगीत के जरिए न केवल जोड़ा बल्कि उसे बचाने का सार्थक प्रयास भी किया. अपने कार्यक्षेत्र बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के नदी-नालों, चायबागानों.बस्ती-बस्ती,परबत-परबत घूमते हुए वे श्रमिकों -कामगारों, मछुआरों-मल्लाहों, बुनकरों-रंगरेजों और उन तमाम लोगों के निकट जाक उस संगीत को सहेजने की जुगत में लगे रहे जिसे 'श्रम संगीत' कहा जाता है. इसकी प्रेरणा उन्हें १९६५ के अपने इंगलैंड दौरे के बाद मिली. उन्होंने देखा कि पश्चिम में काफ़ी लोग साधारण जनता की जीवनशैली, उसकी ताकत ,कमजोरियों और अतीत तथा स्वप्न के बीच संगति-विसंगति को समझने के लिए 'जनसंगीत' को एक औजार, उपकरण या टूल के रूप सफ़लता पूर्वक प्रयोग करे हैं. यह काम उन्हें भा गया. इस काम लिये उन्होने 'लोकसरस्वती' नाम से अपनी एक संगीत मंडली तैयार की जिसमे उनके साथ पूरबी भट्टाचार्य, सुस्मिता सेन, जॊली बागची, विश्वनाथ दत्ता, विमल दे, भास्कर राय, सौमिक दास, निरंजन हालदार, गौर पॊल, देवीप्रसाद मंडल और कुछ अन्य साथियों को मिलाकर जीवन भर उस संगीत को बचाने के काम में लगे रहे जो जनता और उसके श्रम का संगीत है- जनसंगीत.
काली दासगुप्ता का काम बिखरा पडा़ है। कुछ सीडीज में(प्राय: अप्राप्य), कुछ भारत भवन और नेशनल सेंटर फ़ॊर परफ़ार्मिंग आर्ट्स जैसी संस्थाओं के पास. लुप्त होती होती हुई धुनों को बचाकर, उन्हें पुन: प्रस्तुत कर वे तो अपना काम तो कर गये लेकिन उनकी थाती को सहेजना, समझना, सराहना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना हमारा काम है."
आज प्रस्तुत हैं 'लोकसरस्वती' की दो और प्रस्तुतियाँ -
१. ओगो माँ लोक्खी-सोरोसती.......
पहला गीत उत्तरी बंगाल के ग्रामीण इलाके में आयोजित एक संगीत सभा की शुरुआत में गायक द्वारा देवी लक्ष्मी - सरस्वती की वंदना और सुधी श्रोताओं के प्रति हार्दिक आभार प्रदर्शन को प्रकट करता है. गायक की कामना है कि उसके एक पार्श्व में भवतारिणी विराजें व दूसरी ओर संगीत की आराध्या देवी. हिन्दू -मुसलमान सभी श्रोताओं के प्रति नतशीश गायक की गुजारिश है कि यदि कोई त्रुटि होती है तो उसे अपना ही बच्चा समझकर क्षमा कर दिया जाय.
२. की चोमोत्कार घोरी.......
दूसरा गीत घड़ी नामक उस यंत्र से संबंधित है जिसने आज यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा दी है.असम के गोवालपाड़ा / ग्वालपाड़ा क्षेत्र की गँवई स्त्रियों के लिए घड़ी एक चमत्कार है जिसे साहब लोग पहनते हैं ,साधारण आदमी के बूते की तो बात ही नहीं यह . हाँ , अगर कोई एम. ए. , बी. ए. पास कर ले और वकील - मुख्तार बन जाये तब उसे यह सौभाग्य मिल सकता है.
" एक थे बाबू काली दासगुप्ता (१९२६ - २००५)। उनका परिचय बस इतना भर नहीं है कि एक सक्रिय और सजग राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने 'जन' से अपने जुडा़व को प्रचार और प्रोपेगैंडा तक सीमित रखते हुए एक साधारण और सामान्य जीवन जिया. वाम राजनीति से सच्चा , सक्रिय और समर्पित जुड़ा़व ही उन्हें लोक और उसकी सांस्कृतिक थाती लोकसंगीत तक ले गया, अपने स्तर पर काली बाबू ने जनजीवन से अपनी निकटता को संगीत के जरिए न केवल जोड़ा बल्कि उसे बचाने का सार्थक प्रयास भी किया. अपने कार्यक्षेत्र बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के नदी-नालों, चायबागानों.बस्ती-बस्ती,परबत-परबत घूमते हुए वे श्रमिकों -कामगारों, मछुआरों-मल्लाहों, बुनकरों-रंगरेजों और उन तमाम लोगों के निकट जाक उस संगीत को सहेजने की जुगत में लगे रहे जिसे 'श्रम संगीत' कहा जाता है. इसकी प्रेरणा उन्हें १९६५ के अपने इंगलैंड दौरे के बाद मिली. उन्होंने देखा कि पश्चिम में काफ़ी लोग साधारण जनता की जीवनशैली, उसकी ताकत ,कमजोरियों और अतीत तथा स्वप्न के बीच संगति-विसंगति को समझने के लिए 'जनसंगीत' को एक औजार, उपकरण या टूल के रूप सफ़लता पूर्वक प्रयोग करे हैं. यह काम उन्हें भा गया. इस काम लिये उन्होने 'लोकसरस्वती' नाम से अपनी एक संगीत मंडली तैयार की जिसमे उनके साथ पूरबी भट्टाचार्य, सुस्मिता सेन, जॊली बागची, विश्वनाथ दत्ता, विमल दे, भास्कर राय, सौमिक दास, निरंजन हालदार, गौर पॊल, देवीप्रसाद मंडल और कुछ अन्य साथियों को मिलाकर जीवन भर उस संगीत को बचाने के काम में लगे रहे जो जनता और उसके श्रम का संगीत है- जनसंगीत.
काली दासगुप्ता का काम बिखरा पडा़ है। कुछ सीडीज में(प्राय: अप्राप्य), कुछ भारत भवन और नेशनल सेंटर फ़ॊर परफ़ार्मिंग आर्ट्स जैसी संस्थाओं के पास. लुप्त होती होती हुई धुनों को बचाकर, उन्हें पुन: प्रस्तुत कर वे तो अपना काम तो कर गये लेकिन उनकी थाती को सहेजना, समझना, सराहना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना हमारा काम है."
आज प्रस्तुत हैं 'लोकसरस्वती' की दो और प्रस्तुतियाँ -
१. ओगो माँ लोक्खी-सोरोसती.......
पहला गीत उत्तरी बंगाल के ग्रामीण इलाके में आयोजित एक संगीत सभा की शुरुआत में गायक द्वारा देवी लक्ष्मी - सरस्वती की वंदना और सुधी श्रोताओं के प्रति हार्दिक आभार प्रदर्शन को प्रकट करता है. गायक की कामना है कि उसके एक पार्श्व में भवतारिणी विराजें व दूसरी ओर संगीत की आराध्या देवी. हिन्दू -मुसलमान सभी श्रोताओं के प्रति नतशीश गायक की गुजारिश है कि यदि कोई त्रुटि होती है तो उसे अपना ही बच्चा समझकर क्षमा कर दिया जाय.
२. की चोमोत्कार घोरी.......
दूसरा गीत घड़ी नामक उस यंत्र से संबंधित है जिसने आज यह पोस्ट लिखने की प्रेरणा दी है.असम के गोवालपाड़ा / ग्वालपाड़ा क्षेत्र की गँवई स्त्रियों के लिए घड़ी एक चमत्कार है जिसे साहब लोग पहनते हैं ,साधारण आदमी के बूते की तो बात ही नहीं यह . हाँ , अगर कोई एम. ए. , बी. ए. पास कर ले और वकील - मुख्तार बन जाये तब उसे यह सौभाग्य मिल सकता है.
7 comments:
बाबू काली दासगुप्ता जी के बारे में जान्कारी देने व इतने मधुर गीत सुनवाने के लिए धन्यवाद।
घुघूती बासूती
आपकी इस मेहनत को और बाबू काली दासगुप्ता के काम को सलाम !
आपकी इस मेहनत को और बाबू काली दासगुप्ता के काम को सलाम !
बहुत अच्छी जानकारी दी आपने. दोनों गीत भी बहुत मधुर हैं.
बहुत ही मस्त है भाई ये तो। बीच बीच में लगाते रहा करो।
इस अद्भुत शख्सियत से परिचय कराने का शुक्रिया.
बढिया काम कर रहे लोगों के बारे में अच्छी सी आपकी पोस्ट। जहां तक सवाल है घङी का तो वो केवल बंगाल की ही नहीं हिंदुस्तान के तकरीबन सभी गांव के लोगों के लिए एक खास चीज़ हुआ करती थी कभी। दहेज की लिस्ट में भी साइकिल और रेडियो के जैसी ही अहमियत रहती थी इसकी। आम मध्यमवर्गीय घरों में दसवीं पास करने पर ईनाम के तौर पर घङी देने का प्रचलन भी था एक समय में। मुझे भी मेरी पहली घङी तभी मिली थी।
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