Friday, April 17, 2009

तो दुनिया नीरो से कहती



बेर्नार्दास ब्राज़्दियोनिस (११ जनवरी १९०७-११ जुलाई २००२) को समकालीन लिथुवानियाई कवियों में काफ़ी ऊपर गिना जाता है. बहुत बचपन में अपने मां-बाप के साथ अमेरिका चले गए ब्राज़्दियोनिस अपनी पढ़ाई के लिए वापस अपने वतन लौटे लेकिन बाद में दूसरे विश्वयुद्ध के समय उन्हें मजबूर किया गया कि वे दोबारा देश छोड़ें. १९४९ में वे पुनः अमरीका चले गए और वहीं बस गए. उनकी कविताओं की दस किताबें छपीं. जब वे १९८८ में लिथुवानिया आए तो उनकी कविताओं को उनके मुंह से सुनने के लिए हज़ारों की संख्या में श्रोतागण स्टेडियमों में इकठ्ठा हुआ करते थे. १९८९ में उनकी कविताओं के एक संग्रह 'कविता का पूरा चांद' की एक लाख प्रतियां छपते ही बिक गई थीं. रहस्यवाद, निर्वासन और बेचैनी उनकी कविता के आधार तैयार करते हैं.

1.
दुनिया का देवता


(संयुक्त राष्ट्र संघ के ध्यान-चर्च में एक पेड़ से प्रार्थना)

अगर तुम पानी होते
स्फटिक जितने साफ़, प्रवाहमान -
तो दुनिया नीरो से कहती:
अपने हाथ धोओ, खलनायक
जिनमें धब्बे हैं लाखों काट डाले गयों के!

अगर तुम पत्थर होते
असंख्य हाथों द्वारा ले जाए गए हज़ारों मील दूर तक-
तुम्हें बांध दिया जाता चंगेज़ ख़ान की गर्दन के गिर्द
और वह डूब जाता,
प्रशान्त महासागर में, बिकिनी आइलैण्ड के नज़दीक
हाइड्रोजन बम के नीचे
उस बूढ़े कुत्ते की तरह जिसने चबा डाले हों
बाकी कुत्तों के झुण्ड.

अगर तुम ...
अगर तुम होते ईश्वर, महान और क्रूर,
अगर तुम बुद्ध होते, पालथी मारे बैठे अपनी ही शान्ति को आशीष देते, बुद्ध!
अगर तुम होते धन, मुल्कों पर राज करते हुए
अगर तुम ईसा होते, आस्था की सरसों का बीज लिए ...

अगर तुम एक जीवित वृक्ष होते! ... बढ़ते और सरसराते हुए ...
अगर तुम होते लिथुआनिया के खेतों के एक बांज -
तुम्हारे चारों तरफ़ खिला होता दुनियावी जन्नत का एक चरागाह
जिस पर आज़ाद खेल रहे होते हज़ारों बच्चे ...

अरे भाई, बूढ़े ठूंठ,
क्या तुम वाक़ई हो समूची मानवता के ईश्वर?

2.
कला का प्रहसन


मेरी खिड़की की बग़ल में एक दफ़ा
एक आदमी ने सड़क पर कुछ कहा.
उसके शब्द थे असल में
कला का प्रहसन.

भारी है जीवन, सौ टन वज़नी.
नाविक के ठहाके जैसा भारी - हा! हा! हा!
भारी और विराट जैसे सिक्स्थ स्टेशन से
सेन्ट वेरोनिका का स्कार्फ़

कुछ मरते हैं शालीनता से
कुछ कुत्तों जैसी आवाज़ें निकालने लगते हैं समय से पहले
ख़रीदे गए कफ़न वग़ैरह या ईश्वर के बग़ैर ...
दफ़ा होइए अब आप सारे.

3.
हमारी प्रार्थनाएं


हमारे सारे विचार और सारी उम्मीदें अब भी मंडराएंगी
हमारे घरों के गिर्द, उस देश के गिर्द जहां हम जन्मे.
सुन्न पड़े हुए ठण्ड से, हम जाते हैं वहां ऊष्मा के लिए
धरती के सुदूरतम कोनों से चल कर.

हम दोहराते हैं अपनी रोज़ाना की प्रार्थना:
"हमें दो प्रभु, मातृभूमि के आकाश का एक टुकड़ा ..."
हमारी तमाम भटकनों के बाद भी वह हैं वहीं.
ताकि जीवन से भर जाएं हमारी थकी आत्माए.

4.
रात के भीतर यात्रा


मेरी बहन ने मुझे बताया, "तुम मेरे भाई नहीं हो."
मेरे भाई ने मुझे बताया, "तुम मेरे भाई नहीं हो."
मुझे कहां मिलेगी एक बहन - कहां, एक भाई,
मैं जो, अजनबी हूं, भाई और बहन के लिए?

ऊपर आल्प्स की चोटियों पर, बर्फ़ की गहराइयों में दबा
सेन्ट बर्नार्ड गिरजाघर मोड़ता है वर्षों के कारण सफ़ेद पड़ चुकी अपनी पीठ,
एक ठण्ड खाया अकेला भक्त सिर हिलाता है घंटी की बग़ल में
और उसकी नींद पर झुकते सपने और फ़रिश्ते उसे जगा देते हैं.

अब वह चल रहा है, मुझे टोहता - पहाड़ी उतरता: रात भर
दिन भर, हवाओं और बर्फ़ीले अंधड़ों में पानी होता, जमता.
ऐसा लगता है उसका हाथ सहलाता है मेरी भौंहें - उसका भला हाथ मेरे ऊपर
ऐसा लगता है वह मेरा चेहरा छूता है - वह नया जीवन देता है मेरे दिल को

यहां नीचे, सो जाएगा मेरा दिल. जाग जाएगा ऊपर. छिपा हुआ है इसका सूरज
ठहर रही है धड़कन इसकी, यह दिल पहुंच चुका मौत की दहलीज पर.
कोहरे के बीच - एक कथा: सारा कुछ एक सफ़र है कोहरे के बीच. और ख़ुद जीवन उड़ रहा है अब कोहरे के बीच - एक यात्रा रात के भीतर.

5.
दौड़ें


एक सिपाही मार्च करता है म्यूनिख से स्तालिनग्राद
पहली प्लाटून की पहली कम्पनी की पहली डिवीज़न के साथ.
और मिन्स्क नगर की संकरी गलियों में ही टाइगर टैंक पर सवार उसकी मृत्यु ने
डाल दी थी अपनी छाया उस पर.
उसने कहा:"हिटलर की जय हो! गुडनाइट बहादुर सिपाही ..."

एक व्यापारी हड़बड़ी में भागता है लन्दन से कलकत्ता
बढ़िया सौदा हाथ लगा है: दस हज़ार पाउन्ड का खरा मुनाफ़ा.
और एक मरियल-पीले ऊंट पर सवार उसकी मृत्यु शाम से ही इन्तज़ार करती है
अपने ठण्डे हाथों के बीच भींचे एक ख़ंजर मार्सा मात्रुक में

प्लन्ज का रहनेवाला एक ग्रामीण समुन्दर पार कर पहुंचता है मेएन के खेतों तलक
ताकि और दूर भाग सके अपनी मृत्यु से -
लेकिन उसकी मृत्यु उसे मिलती है आलू का खेत जोतते एक ट्रैक्टर में
"जिंगल बैल्स" गुनगुनाती और पुकारती हुई उसे - "हैलो, अच्छे लड़के!
कैसे हो?"

(मिन्स्क: एक रूसी नगर, मार्सा मात्रुक: मिश्र का एक नगर, प्लन्ज: इंग्लैण्ड का एक गांव, मेएन: न्यू इंग्लैण्ड, अमेरिका का एक राज्य)

7 comments:

मुनीश ( munish ) said...

thanx for introducing a new poet with eternal concerns of humanity.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

तुमसे कम शराब में औ'सबसे कम सबाब में
बेरहम क्या गुज़रा है तारीख-ए-इज़्तराब में

मुनीश ( munish ) said...
This comment has been removed by the author.
मुनीश ( munish ) said...

So Ashok bhai Maykhaana is brimming with a new zeal and i've finally christened my proposed trip as 'Mission Sapt Sarover'. If it is possible to locate the cricket ground near Sat-Tal on Google earth , pls forward me the image .
I advance my apologies for using this comment-box for another purpose. The self-imposed restriction regarding means of communication forces me to do so. Ur kind co-operation is highly solicited to make this mission a success!

एस. बी. सिंह said...

अगर तुम पानी होते
स्फटिक जितने साफ़, प्रवाहमान -
तो दुनिया नीरो से कहती:
अपने हाथ धोओ, खलनायक
जिनमें धब्बे हैं लाखों काट डाले गयों के!


काश वह पानी होता !
बहुत बहुत शुक्रिया अशोक भाई इन कविताओं के लिए।

वर्षा said...

हमेशा की तरह कुछ अच्छी और अलग कविताएं पढ़ने को मिलीं।

Pratibha Katiyar said...

अपने हाथ धोओ खलनायक जिनमें धब्बे हैं लाखों काट डाले गये लोगों के....कितना ताप है इन कविताओं में. कितने ही खलनायक घूम रहे हैं आसपास हाथों में धब्बे लिये. उन धब्बों पर अमूमन इतराते हुए. मानो जितने कत्ल उनके हाथों हुए, उतनी ही उनकी ऊंचाई हो. ऐसी कविताओं के लिए आभार! यूं खलनायक कविताएं नहीं पढ़ते शायद लेकिन कविताएं समय के दर्द को जज्ब तो कर ही लेती हैं. शायद इसी तरह धरती पर इंसानियत बची रहे. इसीलिए कवियों का सम्मान बाकियों से जरा ज्यादा होना ही चाहिए.