Thursday, April 16, 2009

वीरेन डंगवाल ने अमर उजाला, बरेली के स्थानीय संपादक पद से इस्तीफा दिया

कवि-पत्रकार और हमारे शीर्ष कबाड़ी वीरेन डंगवाल ने हाल में ही 'अमर उजाला', बरेली की सम्पादकी से इस्तीफ़ा दे दिया. ऐसा जिन कारणों के चलते करना पड़ा वे न केवल बेहद शर्मनाक हैं, देसी-वर्नाकुलर अख़बारों के मालिकों के स्वार्थों की पोल भी खोलते हैं, जिनके अख़बार जनता को राजनैतिक रूप से लगातार सुन्न बनाते जाने के अपने एकसूत्रीय कार्यक्रम की आड़ में पैसा खोदने के महती उपक्रम में लगे रहने को अब और भी और भी उत्साह से अंजाम देने में संलग्न हो जाएंगे. उनकी राह में जो एक रोड़ा उनकी अन्यथा नकली विनम्रता से उनकी सेनिटी को बचाए हुए था, अब ख़ुद ही हट चुका है. नए नौजवान और प्रतिबद्ध पत्रकारों की एक अनूठी फ़ौज वीरेन डंगवाल के प्रोत्साहन से खड़ी हुई है. इस बात को रेखांकित करते हुए कबाड़ख़ाना उन्हें बड़ी मोहब्बत और इज़्ज़त के साथ ऐसा करने की शाबासी देता है और कहता है कि बहुत बढ़िया किया वीरेन दा! आपने हम सब के विश्वास को मजबूत किया है!

यशवन्त सिंह का निम्नलिखित आलेख कबाड़ख़ाना के पाठकों के लिए भड़ास फ़ॉर मीडिया से साभार:




कवि और वरिष्ठ पत्रकार वीरेन डंगवाल ने अमर उजाला, बरेली के स्थानीय संपादक पद से इस्तीफा दे दिया है। पिछले 27 वर्षों से अमर उजाला के ग्रुप सलाहकार, संपादक और अभिभावक के तौर पर जुड़े रहे वीरेन डंगवाल का इससे अलग हो जाना न सिर्फ अमर उजाला बल्कि हिंदी पत्रकारिता के लिए भी बड़ा झटका है। मनुष्यता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र में अटूट आस्था रखने वाले वीरेन डंगवाल ने इन आदर्शों-सरोकारों को पत्रकारिता और अखबारी जीवन से कभी अलग नहीं माना। वे उन दुर्लभ संपादकों में से हैं जो सिद्धांत और व्यवहार को अलग-अलग नहीं जीते। वीरेन ने इस्तीफा भी इन्हीं प्रतिबद्धताओं के चलते दिया।

पता चला है कि वरुण गांधी द्वारा पीलीभीत में दिए गए विषैले भाषण के प्रकरण पर अमर उजाला, बरेली में कई विशेष पेज प्रकाशित किए गए। पत्रकारिता में सनसनी और सांप्रदायिकता के धुर विरोधी वीरेन डंगवाल को इन पेजों के प्रकाशन की जानकारी नहीं दी गई। वरुण को हीरो बनाए जाने के इस रवैए से खफा वीरेन ने अपनी आपत्ति दर्ज कराते हुए इस्तीफा सौंप दिया। इस्तीफे के 20 दिन बाद अमर उजाला, बरेली की प्रिंट लाइन से वीरेन डंगवाल का नाम गायब हो गया। उनकी जगह स्थानीय संपादक के रूप में गोविंद सिंह का नाम जाने लगा है। वीरेन डंगवाल इससे पहले भी इसी तरह के मुद्दे पर इस्तीफा दे चुके हैं। वह दौर अयोध्या के मंदिर-मस्जिद झगड़े का था। तब उस अंधी आंधी में देश के ज्यादातर अखबार बहे जा रहे थे। वीरेन डंगवाल की अगुवाई में अमर उजाला ही वह अखबार था जिसने निष्पक्ष और संयमित तरीके से पूरे मामले को रिपोर्ट किया, इसके पीछे छिपी सियासी साजिशों का खुलासा करते हुए जन मानस को शिक्षित-प्रशिक्षित किया। उन्हीं दिनों एटा में हुए दंगें की रिपोर्टिंग अमर उजाला में भी कुछ उसी अंदाज में प्रकाशित हो गई, जैसे दूसरे अखबार करते रहे हैं। इससे नाराज वीरेन डंगवाल ने इस्तीफा दे दिया था।

5 अगस्त सन 1947 को कीर्तिनगर, टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) में जन्मे वीरेन डंगवाल साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी कवि हैं। उनके जानने-चाहने वाले उन्हें वीरेन दा नाम से बुलाते हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वर्ष 1968 में एमए फिर डीफिल करने वाले वीरेन डंगवाल 1971 में बरेली कालेज के हिंदी विभाग से जुड़े। उनके निर्देशन में कई (अब जाने-माने हो चुके) लोगों ने हिंदी पत्रकारिता के विभिन्न आयामों पर मौलिक शोध कार्य किया। इमरजेंसी से पहले निकलने वाली जार्ज फर्नांडिज की मैग्जीन प्रतिपक्ष से लेखन कार्य शुरू करन वाले वीरेन डंगवाल को बाद में मंगलेश डबराल ने वर्ष 1978 में इलाहाबाद से निकलने वाले अखबार अमृत प्रभात से जोड़ा। अमृत प्रभात में वीरेन डंगवाल 'घूमता आइना' नामक स्तंभ लिखते थे जो बहुत मशहूर हुआ। घुमक्कड़ और फक्कड़ स्वभाव के वीरेन डंगवाल ने इस कालम में जो कुछ लिखा, वह आज हिंदी पत्रकारिता के लिए दुर्लभ व विशिष्ट सामग्री है। वीरेन डंगवाल पीटीआई, टाइम्स आफ इंडिया, पायनियर जैसे मीडिया माध्यमों में भी जमकर लिखते रहे। वीरेन डंगवाल ने अमर उजाला, कानपुर की यूनिट को वर्ष 97 से 99 तक सजाया-संवारा और स्थापित किया। वे पिछले पांच वर्षों से अमर उजाला, बरेली के स्थानीय संपादक थे।

वीरेन का पहला कविता संग्रह 43 वर्ष की उम्र में आया। 'इसी दुनिया में' नामक इस संकलन को 'रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार' (1992) तथा श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) से नवाज़ा गया। दूसरा संकलन 'दुष्चक्र में सृष्टा' 2002 में आया और इसी वर्ष उन्हें 'शमशेर सम्मान' भी दिया गया। दूसरे ही संकलन के लिए उन्हें 2004 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। वीरेन डंगवाल हिन्दी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते और आदर्श कवि हैं। उनमें नागार्जुन और त्रिलोचन का-सा विरल लोकतत्व, निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध की बेचैनी व बौद्धिकता एक साथ मौजूद है। वीरेन डंगवाल पेशे से रुहेलखंड विश्वविद्यालय के बरेली कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर, शौक से पत्रकार और आत्मा से कवि हैं। सबसे बड़ी बात, बुनियादी तौर पर एक अच्छे-सच्चे इंसान। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी खुद की कविताएं बांग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेजी, मलयालम और उड़िया में छपी हैं।

पिछले साल वीरेन डंगवाल के मुंह के कैंसर का दिल्ली के राकलैंड अस्पताल में इलाज हुआ। उन्हीं दिनों में उन्होंने 'राकलैंड डायरी' शीर्षक से कई कविताएं लिखी। ये और लगभग 70 अन्य नई कविताएं जल्द ही एक कविता संग्रह 'कटरी की रुक्मिणी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा' शीर्षक से प्रकाशित होने वाली हैं। यह तीसरा काव्य संग्रह सात वर्षों बाद आ रहा है। वीरेन डंगवाल ने पत्रकारिता को काफी करीब से देखा और बूझा है। जब वे अमर उजाला, कानुपर के एडिटर थे, तब उन्होंने 'पत्रकार महोदय' शीर्षक से एक कविता लिखी थी, जो इस प्रकार है-


--------------------------------------------------------------------------------

पत्रकार महोदय

'इतने मरे'

यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर

छापी भी जाती थी

सबसे चाव से

जितना खू़न सोखता था

उतना ही भारी होता था

अख़बार।



अब सम्पादक

चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी

लिहाज़ा अपरिहार्य था

ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।

एक हाथ दोशाले से छिपाता

झबरीली गरदन के बाल

दूसरा

रक्त-भरी चिलमची में

सधी हुई छ्प्प-छ्प।



जीवन

किन्तु बाहर था

मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली

चीख़ के बाहर था जीवन

वेगवान नदी सा हहराता

काटता तटबंध

तटबंध जो अगर चट्टान था

तब भी रेत ही था

अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !


--------------------------------------------------------------------------------

वीरेन डंगवाल से संपर्क dangv@rediffmail.com के जरिए किया जा सकता है। उनके बारे में ज्यादा जानने के लिए और उनके लिखे को पढ़ने के लिए इन अड्डों पर भी जा सकते हैं-

विकिपीडिया
कबाड़खाना
टूटी हुई बिखरी हुई
रचनाकार
कविताकोश
दैट्सहिंदी
दुष्चक्र में सृष्टा
इंडिया पिक्स
अनुनाद
कृत्या
पोयमहंटर

13 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

वीरेन दा को सलाम !
वीरेन दा को सलाम !
वीरेन दा को सलाम !

Anil Pusadkar said...

जब संपादक नाम की संस्था खतम हो रही हो तब,
ऐसे संपादक का ……………………………॥

सलाल वीरेन दा को।
उनकी कलम को॥
वीरेन दा ज़िन्दाबाद ज़िन्दाबाद्।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

शाबाश वीरेन डंगवाल।
ज़िन्दाबाद ज़िन्दाबाद्।
स्वाभिमान की अनूठी मिसाल।
अमर उजाला को करारा जवाब।
बधाई।

सतीश पंचम said...

देश को कमजोर करने वाले घुन लगता है ज्यादा ताकतवर हो गये हैं। उसी का परिणाम है वीरेनजी जैसे लोगों का इस्तीफा ।

मुनीश ( munish ) said...

I salute him for taking a bold step in this era of eroding professional ethics ! I hope editors of big National dailies introspect and ask themseves as to what they have been indulging into in the name of journalism.

अनुनाद सिंह said...

मेरी भी 'सहानुभूति' उनके साथ है।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

एक आबद्ध, कटिबद्ध और प्रतिबद्ध आदमी का यह व्यवस्था ऐसा ही हश्र करती है. बड़े साहित्यकार-सम्पादक की यह कड़ी भी टूटना थी!

हमारे लिए सांत्वना यही है कि वीरेन दा अब साहित्य को अधिक समय दे सकेंगे और हमें वह सब मिलेगा जो शायद उनके अखबारी कार्यों में उलझे रहने के चलते नहीं मिल पा रहा था.

वीरेन दा के हौसले को सलाम!

Anonymous said...

बोल के सच जिन्दा है अब तक

Ek ziddi dhun said...

अमर अँधेरा जिसमें अपने भी ११ साल गर्क हुए. इस अँधेरे में वीरेन ही थे रोशनी की अकेली मीनार.

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

पता नहीं कैसे झेला वीरेन दा ने अब तक . इलेक्शन के समय पत्रकार विज्ञापन संकलन कर्ता बन जाता है .

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

वीरेनजी के लिए एक दरवाज़ा बंद हुआ तो सौ दरवाज़े खुल जाएंगे॥ पर भाई साहब, कृपया अपनी भाषाओं के लिए ‘देसी-वर्नाकुलर ’ जैसे अपशब्द से गुरेज़ कीजिए। हमारी भाषाएं कोई गुलामी बोलियां नहीं है!!

neeraj pasvan said...

नौकरियां जिसके लिए 'केक-वाक' है
उसके इस्तीफ़े पर मसखरे अवाक हैं

पाखंडियों की देखो भइया है कितनी लंबी जमात
बैठे हैं आसन मारे डाल-डाल, हर पात-पात

हम मुफ़लिसों का सीना चाक है
'शहादत' पर भी ढिंढोरची की धाक है !

राजेश उत्‍साही said...

अमर उजाला से वीरेन जी का इस्‍तीफा मूल्‍यहीन पत्रकारिता से इस्‍तीफा है। हम सबको उनका आदर करना चाहिए।
पर यह क्‍या हो रहा है कि हम वीरेन जी पर बात करते-करते अचानक गाली गलौज पर उतर आए हैं।
वह भी व्‍यक्तिगत। मैं देख रहा हूं कि यह हर ब्‍लाग में हो रहा है। जैसे ब्‍लाग न हो रेल के डिब्‍बे का शौचालय हो । कुछ तो शर्म करो।